मंगलवार, 11 जनवरी 2011

लड़की, बाहर आओ तोड़ के सिमटते हुये दायरे को छत के कोने पर खड़े हो फैलाओ

लड़की,
बाहर आओ
तोड़ के सिमटते हुये दायरे को
छत के कोने पर खड़े हो फैलाओ बाहों को
महसूस करो हवा में तैरने के लिये
तुम कभी लगा सकती हो छलाँग
अनंत में तोड़ते हुये सारे बंधनों को

हथेलियों में,
क़ैद करो हवा में घुली हुई नमी को
और मुरझाते हुये सपनों को ताज़ा दम कर लो
या गूँथो कोई नया संकल्प

सुनो
हवा में गूँजते हुये संगीत को
और चुरा कर रखो किसी टुकड़े को अपने अंदर
वहीं, जहाँ तुम रखती हो अपनी सिसकियाँ सहेज कर
और छाने दो संगीत का खु़मार सिसकियों पर

देखो ठहरे हुये
पराग कणों को तुम्हारी चेहरे पर
और पनाह दो आँखों के नीचे बन आये काले दायरो में/
या बुनी जा रही झुर्रीयों में
और फूलने दो नव-पल्लव विषाद रेखाओं के बीच

महसूस करो,
हवा में पल रही आग को
और उतार लो तपन को अपने सीने में
जहाँ रह-रह कर उमड़ते हैं ज्वार
और लौट आते हैं अलकों की सीमा से टकराकर

लड़की,
बाहर आओ, उठ खड़ी होओ
दीवार के बाद पीछे कोई जगह नहीं होती
और यदि कोने में हो तो कुछ और नहीं हो सकता
कब तक घुटनों पर रख सकोगी सिर/
आँसुओं का सैलाब बहाओगी/
अँधेरे में सिमटती रोशनी सी
कब तक लड़ सकोगी अकेली फड़फ़डाते हुये

लड़की,
बाहर आ

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Very useful reading. Very helpful, I look forward to reading more of your posts.