सोमवार, 19 दिसंबर 2011

हिंदी की स्थिति

जैसे ही सितंबर का महीना आता है¸ हिंदी की याद में हर हिंदुस्तान का दिल धड़कने लगता है। हम जो शुद्ध हिंदुस्तानी ठहरे¸ हमारा जी और भी व्याकुल हो उठता है¸ सावन के महीने में जिस तरह महिलाओं को पीहर की याद आती है ठीक वैसे ही। मन में हूक सी उठती है कि सब जग हिंदीमय हो जाए। इसी तड़फ़ को बनाए रखने के लिए हर साल चौदह सितंबर को हिंदी दिवस मनाने की परंपरा चल पड़ी हैं। हर साल सितंबर का महीना हाहाकारी भावुकता में बीतता है। कुछ कविता पंक्तियों को तो इतनी अपावन क्रूरता से रगड़ा जाता है कि वो पानी पी-पीकर अपने रचयिताओं को कोसती होंगी। उनमें से कुछ बेचारी हैं:-
निज भाषा उन्नति अहै¸ सब उन्नति को मूल¸
बिनु निज भाषाज्ञान के मिटै न हिय को सूल।

या फिर

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती¸
भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।

या फिर

कौन कहता है आसमान में छेद नहीं हो सकता.¸
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।

कहना न होगा कि दिल के दर्द के बहाने से बात पत्थरबाजी तक पहुंचने के लिए अपराधबोध¸ निराशा¸ हीनताबोध¸ कर्तव्यविमुखता¸ गौरवस्मरण की इतनी संकरी गलियों से गुज़रती है कि असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है कि वास्तव में हिंदी की स्थिति क्या है?

ऐसे में श्रीलाल शुक्ल जी का लिखा उपन्यास 'राग दरबारी' याद आता है जिसका यह वर्णन हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं पर लागू होता है:-

एक लड़के ने कहा¸ "मास्टर साहब¸ आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं?"
वे बोल¸ ."आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।"
एक दूसरे लड़के ने कहा¸ "अब आप देखिए¸ साइंस नहीं अंग्रेज़ी पढ़ा रहे हैं।"
वे बोले¸ ."साइंस साला बिना अंग्रेज़ी के कैसे आ सकता है?"

हमें लगा कि हिंदी की आज की स्थिति के बारे में मास्टर साहब से बेहतर कोई नहीं बता सकता। सो लपके और गुरु को पकड़ लिया। उनके पास कोई काम नहीं था लिहाज़ा बहुत व्यस्त थे। हमने भी बिना भूमिका के सवाल दागना शुरु कर दिया।

सवाल:- हिंदी दिवस किस लिए मनाया जाता है?
जवाब:- देश में तमाम दिवस मनाए जाते हैं। स्वतंत्रता दिवस¸ गणतंत्र दिवस¸ गांधी दिवस¸ बाल दिवस¸ झंडा दिवस वगैरह।
ऐसे ही हिंदी दिवस मना लिया जाता है। जैसे आज़ादी की¸ संविधान की¸ नेहरू–गांधी जी की याद कर ली जाती हैं वैसे ही हिंदी को भी याद रखने के लिए हिंदी दिवस मना लिया जाता है। राजभाषा होने के नाते इतना तो ज़रूरी ही है मेरे ख्याल से।

सवाल:- लेकिन केवल एक दिन हिंदी दिवस मनाए जाने का क्या औचित्य है?
जवाब:- अब अगर रोज़ हिंदी दिवस ही मनाएंगे तो बाकी दिवस एतराज़ करेंगे न! सबको बराबर मौका मिलना चाहिए। एक फ़ायदा इसका यह भी होता है कि लोगों के मन में जितनी हिंदी होती है वह सारी एक दिन में निकाल कर साल भर मस्त
रहते हैं। हिंदी दिवस पर सारी हिंदी उडे.लकर बाकी सारा साल बिना हिंदी के तनाव के निकल जाता है। साल में हिंदी की एक बढ़िया खुराक ले लेने से पूरे साल देशभक्ति का और कोई बुखार नहीं चढ़ता। बड़ा आराम रहता है।

सवाल:- हिंदी की वर्तमान स्थिति कैसी है आपकी नज़र में?
जवाब:- हिंदी की हालत तो टनाटन है। हिंदी को किसकी नज़र लगनी है?

सवाल:- किस आधार पर कहते हैं आप ऐसा?
जवाब:- कौनौ एक हो तो बताएं। कहां तक गिनाएं?

सवाल:- कोई एक बता दीजिए।
जबाव:- हम सारा काम बुराई-भलाई छोड़कर टीवी पर हिंदी सीरियल देखते हैं। घटिया से घटिया¸ इतने घटिया कि देखकर रोना आता है¸ सिर्फ़ इसीलिए कि वो हिंदी में बने है। यही सीरियल अगर अंग्रेज़ी में दिखाया जाए तो चैनेल बंद हो जाए। करोड़ों घंटे हम रोज़ होम कर देते हैं हिंदी के लिए। ये कम बड़ा प्रमाण/आधार है हिंदी की टनाटन स्थिति का?

सवाल:- अक्सर बात उठती है कि हिंदी को अंग्रेज़ी से ख़तरा है। आपका क्या कहना है?
जवाब:- कौनौ ख़तरा नहीं है। हिंदी कोई बताशा है क्या जो अंग्रेज़ी की बारिश में घुल जायेगी? न ही हिंदी कोई छुई-मुई का फूल है जो अंग्रेज़ी की उंगली देख के मुरझा जाएगी।

सवाल:- हिंदी भाषा में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रदूषण हिंगलिश के बारे में आपका क्या कहना है?
जवाब:- ये रगड़-घसड़ तो चलती ही रहती है। जिसके कल्ले में बूता होगा वो टिकेगा। जो बचेगा सो रचेगा। समय की मांग को जो भाषा पूरा करती रहेगी उसकी पूछ होगी वर्ना आदरणीय¸ वंदनीय¸ पूजनीय बताकर अप्रासंगिक बन जाएगी।

सवाल:- लोग कहते हैं कि अगर कंप्यूटर के विकास की भाषा हिंदी जैसी वैज्ञानिक भाषा होती तो वो आज के मुकाबले बीस वर्ष अधिक विकसित होता।
जवाब:- ये बात तो हम पिछले बीस साल से सुन रहे हैं। तो क्या वहां कोई सुप्रीम कोर्ट का स्टे है हिंदी में कंप्यूटर के विकास पर? बनाओ। निकलो आगे। झुट्‌ठै स्यापा करने रहने क्या मिलेगा?

सवाल:- बॉलीवुड वाले जो हिंदी की रोटी खाते हैं¸ हिंदी बोलने से क्यों कतराते हैं? रोटी खाते हैं¸ हिंदी बोलने से क्यों कतराते हैं? इसका जवाब ज़रा विस्तार से दें काहे से कि यह सिनेमा वालों से जुड़ा है और इसलिए जवाब में ये दिल मांगे मोर की ख़ास फ़रमाइस है लोगों की।
जवाब:- इसके पीछे आर्थिक मजबूरी मूल कारण हैं। असल में तीन घंटे के सिनेमा में काम करने के लिए हीरो-हीरोइनों को कुछेक करोड़ रुपये मात्र मिलते हैं। हिंदी फ़िल्मों में काम करते समय तो डायलाग लिखने वाला डायलाग लिख देता है वो डायलाग इन्हें मुफ्.त में मिल जाते हैं सो ये बोल लेते हैं। एक बार जहां सिनेमा पूरा हुआ नहीं कि लेखक लोग हीरो-हीरोइन को घास डालना बंद कर देते हैं। इनके लिए डायलाग लिखना भी बंद कर देते हैं। अब इतने पैसे तो हर कलाकार के पास तो होते नहीं कि पैसे देकर ज़िंदगी भर के लिए डायलाग लिखा ले। पचास खर्चे होते हैं उनके। माफ़िया को उगाही देना होता है¸ पहली बीबी को हर्जाना देना होता है¸ एक फ्लैट बेच कर दूसरा ख़रीदना होता है। हालात यह कि तमाम खर्चों के बीच वह इत्ते पैसे नहीं बचा पाता कि किसी कायदे के लेखक से डायलाग लिखा सके। मजबूरी में वह न चाहते हुए भी अपने हालात की तरह टूटी-फूटी हिंदी-अंग्रेज़ी बोलने पर मजबूर होता है।

अब हिंदी चूंकि वह थोड़ी बहुत समझ लेता है लिहाज़ा उसे पता लग जाता है कि कितनी वाहियात बोल रहा है। फिर वह घबराकर अंग्रेज़ी बोलना शुरू कर देता है। अंग्रेज़ी में यह सुविधा होती है चाहे जैसे बोलो¸ असर करती है। आत्मविश्वास के साथ कुछ ग़लत बोलो तो कुछ ज़्यादा ही असर करती है। बोलचाल में जो कुछ चूक हो जाती है उसे ये लोग अपने शरीर की भाषा (बाडी लैन्गुयेज) से पूरा करते हैं। बेहतर अभिव्यक्ति के प्रयास में कोई-कोई हीरोइने तो अपने पूरे शरीर को ही लैंग्वेज में झोंक देती हैं। जिह्वा मूक रहती है¸ जिस्म बोलने लगता है। अब हिंदी लाख वैज्ञानिक भाषा हो लेकिन इतनी सक्षम नहीं कि ज़बान के बदले शरीर से निकलने लगे। तो यह अभिनेता हिंदी बोलने से कतराते नहीं। उनके पास समुचित डायलाग का अभाव होता है जिसके कारण वे चाहते हुए भी हिंदी में नहीं बोल पाते हैं।

सवाल:- चलिए वालीवुड का तो समझ में आया कुछ मामला और मजबूरी लेकिन अच्छी तरह हिंदी जानने वाले बीच-बीच में
अंग्रेज़ी के वाक्य क्यों बोलते रहते हैं?
जवाब:- आमतौर पर यह बेवकू.फ़ी लोग इसलिए करते हैं ताकि लोग उनको मात्र हिंदी का जानकार समझकर बेवकूफ़समझने की बेवकूफ़ी न कर बैठे। हिंदी के बीच-बीच में अंग्रेज़ी बोलने से व्यक्तित्व में उसी निखार आता है जिस क्रीम पोतने से चेहरे पर चमक आ जाती है और जीवन साथी तुरंत पट/फिदा हो जाता है। वास्तव में ऐसे लोगों के लिए अंग्रेज़ी एक जैक की तरह काम करता है जिसके सहारे वे अपने विश्वास का पहिया ऊपर उचकाकर व्यक्तित्व का पंचर बनाते हैं। लेकिन देखा गया है ऐसे लोगों का हिंदी और अंग्रेज़ी पर समान अधिकार होता है यानी दोनों भाषाओं का ज्ञान चौपट होता है उनका।

सवाल:- हिंदी दिवस पर आपके विचार?
जवाब:- हमें तो भइया ये खिजाब लगाकर जवान दिखने की कोशिश लगती है। शिलाजीत खाकर मर्दानगी हासिल करने
का प्रयास। जो करना हो करो¸ नहीं तो किनारे हटो। अरण्यरोदन मत करो। जी घबराता है।

सवाल:- हिंदी की प्रगति के बारे में आपके सुझाव?
जवाब:- देखो भइया¸ जबर की बात सब सुनते है। मज़बूत बनो-हर तरह से। देखो तुम्हारा रोना-गाना तक लोग नकल करेंगे। तुम्हारी बेवकूफ़ियों तक का तार्किक महिमामंडन होगा। पीछे रहोगे तो रोते रहोगे-ऐसे ही। हिंदी दिवस की तरह। इसलिए समर्थ बनो। वो क्या कहते हैं:- इतना ऊंचे उठो कि जितना उठा गगन है।

सवाल:- आप क्या ख़ास करने वाले हैं इस अवसर पर?
जवाब:- हम का करेंगे? विचार करेंगे। खा-पी के थोड़ा चिंता करेंगे हिंदी के बारे में। चिट्‌ठा/लेख लिखेंगे। लिखके थक जाएंगे। फिर सो जाएंगे। और कितना त्याग किया जा सकता है-- बताओ?


गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

शिक्षा मंत्री परमार ने सच क्या बोला, हंगामा हो गया

राजनीति भी अजीबोगरीब चीज है। नेता झूठ बोले तो बवाल और सच बोल जाए तो हंगामा। इधर कुआं, उधर खाई। नेता बेचारा जाए कहां? तभी तो बुजुर्गों ने कहा है कि बोलने से पहले तोलना चाहिए, मगर जुबान है कि दातों से बचने-बचाने के चक्कर में फिसल ही जाती है। और जुबान फिसल जाए तो राजनीति भी पसर जाती है। अपने पूरे रंग दिखाती है। हाल ही उच्चा शिक्षा मंत्री बने दयाराम परमार के साथ ऐसा ही हुआ। उन्होंने इतना भर कहा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अच्छे नेता तो हैं ही, अच्छे जादूगर भी हैं। नेता लोगों की मति भ्रमित करने में माहिर होता है तो जादूगर नजरों को। गहलोत में दोनों ही गुण हैं। इसी कारण चालीस साल से राजनीति में जमे हुए हैं और दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने में सफल हुए हैं। अब भला इसमें परमार ने गलत क्या कह दिया। वे खुद भी यही सवाल कर रहे हैं कि उन्होंने कुछ गलत कहा क्या?  सब जानते हैं कि गहलोत जादूगर घराने से हैं और कांग्रेस हाईकमान पर जादू किए हुए हैं, वरना दुनियाभर के विवादों के बाद भी मुख्यमंत्री पद पर कैसे बने रह सकते थे? कदाचित ऐसा भी हो कि कुछ तुतला कर बोलने के कारण हाईकमान उनमें बच्चे जैसी मासूमियत और सच्चाई समझ कर माफ करता रहा हो। वे पूरे दो-ढ़ाई साल तक शातिर और खांटी नेता सी. पी. जोशी के हर वार को खारिज करते रहे, तो जरूर में उनमें कोई कला ही होगी। और कोई होता तो कब का धराशायी हो जाता।
खैर, बात चल रही थी परमार की। असल में वे बूंदी में कन्या महाविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष के शपथ ग्रहण समारोह में नेताओं के अच्छे गुण बता रहे थे। लगे हाथ गहलोत के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने को उनको भी आदर्श नेता बताने के चक्कर में ऐसा कह बैठे, मगर उनके इस बयान को लेकर हंगामा हो गया। इसे इस अर्थ में लिया गया कि गहलोत धोखा देने में माहिर हैं। हालांकि दयाराम परमार दिल के बड़े साफ आदमी हैं और उन्होंने नेताओं के सर्वोपरि गुण मति भ्रमित करने को ही गिनाया था, मगर यदि उनका मतलब धोखा देने में माहिर होना भी निकाला जाए तो इसमें गलत क्या है? वैसे भी मति भ्रमित करने और धोखा देने में फर्क ही क्या है? मति भ्रमित करने के मतलब भी यही है कि जो है, उससे ध्यान हटा कर कुछ और दिखाना और धोखा देने का मतलब भी यही है। फर्क सिर्फ इतना है कि मति भ्रमित करना कुछ साफ-सुथरा तो धोखा देना कुछ घटिया शब्द है। यानि मूल तत्व वही है, मगर चेहरा अलग-अलग है। कॉलेज की छात्राओं को वे यही सिखा रहे थे कि यदि अच्छा नेता बनना है तो गहलोत की तरह लोगों की मति भ्रमित करना सीख लें। इसमें उन्होंने गलत क्या कह दिया? यह एक सच्चाई ही है। नेता वही कामयाब है जो जनता को वैसा ही दृश्य दिखाए जो उसके अनुकूल होता हो। क्या यह कम बात है कि गहलोत ने पूरे तीन साल तक कांग्रेसियों की मति भ्रमित करके रखी और राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर लॉलीपोप देते रहे। और मजे की बात है कि कोई चूं तक नहीं बोला। भले ही परमार का मकसद गहलोत को धोखेबाज कहना न हो, मगर चूंकि इन दिनों नेताओं पर शनि की महादशा है, इस कारण अर्थ का अनर्थ निकाला जाता है। अल्पसंख्यक विभाग और वक्फ राज्य मंत्री अमीन खान के साथ भी तो यही हुआ था। उन्होंने राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील की तारीफ करने के चक्कर में वह सब कह दिया जो संभांत समाज में नहीं कहा जाता। नतीजतन उन्हें पद गंवाना पड़ा था। माफी भी मांगनी पड़ी। वो तो उनकी शराफत देखते हुए और मुसलमानों की नाराजगी को दूर करने के लिए उन्हें फिर से मौका मिला गया।
वैसे एक बात है, राजनीति में बड़बोलापन तकलीफ ही देता है। पूर्व शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल को भी यही बीमारी थी। बड़बोलेपन के कारण उन्हें कई बार विवाद से गुजरना पड़ा था। वे इतने विवादित हो गए कि आखिर पर से हटा दिए गए। यह एक संयोग ही है कि नए शिक्षा मंत्री परमार भी इसी बड़बोलेपन से ग्रसित हो गए। ये तो पता नहीं कि इस पद के साथ ही कोई चक्कर है, या दोनो वाकई बड़बोले हैं, मगर शिक्षा, ज्ञान और समझदारी देने वाले महकमे के मंत्री ही नासमझी क्यों कर रहे हैं, ये समझ में नहीं आ रहा।
-tejwanig@gmail.com

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

बदकिस्मती बिकती है, खरीदेंगे?

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वह उठा और एक छोटी कैंची ले आया। उसने कैंची से प्यूपा का छेद बड़ा कर दिया। तितली आराम से बाहर आ गई। आदमी उत्सुक उसे उड़ते देखने को बैठा रहा, लेकिन वह नहीं उड़ी। उंगली से उड़ाने की कोशिश पर वह बस हल्के से हिल डुलकर रह गई, उड़ नहीं पाई...

सीजेरियन प्रसव यानी बच्चे के लिए सुरक्षित। मां को भी प्रसव-वेदना से मुक्ति। यह भ्रम व्यापकता से फैलाया गया है। जनसाधारण को यही बताने के लिए आज की मीटिंग थी। एक छोटी फिल्म दिखाई गई। एक प्यूपा दिखा जिसमें अंदर से छेद कर तितली निकलने की कोशिश कर रही थी। पास बैठा एक आदमी गौर से तितली की यह चेष्टा देख रहा था। बार बार कोशिश के बावजूद भी तितली बाहर नहीं निकल पा रही थी। आदमी को दया आई। वह उठा और एक छोटी कैंची ले आया। उसने कैंची से प्यूपा का छेद बड़ा कर दिया। तितली आराम से बाहर आ गई। आदमी उत्सुक उसे उड़ते देखने को बैठा रहा, लेकिन वह नहीं उड़ी। उंगली से उड़ाने की कोशिश पर वह बस हल्के से हिलडुल कर रह गई, उड़ नहीं पाई।

तितली नहीं उड़ पाई, क्यों कि आदमी ने जो दया की थी वह प्रकृति-प्रतिकूल क्रिया थी। तितली को प्यूपा से निकल ने के लिए जो मशक्कत करनी पड़ती है वह प्रकृति नियत सप्रयोजन है। इस दौरान तितली को जो जोर लगाना पड़ता है उस से उसका रक्त बह कर उसके पंखों में आ जाता है जिससे बाहर आने के तुरंत बाद वह उड़ने में सक्षम हो जाती है। उसी तरह प्रसव के दौरान गर्भपथ से गुजरने की मषक्कत में शिशु के शरीर में प्रकृति नियत ऎसे परिवर्तन होते हैं जो उसे असुरक्षित परिवश से लड़ने की क्षमता देते हैं।

दबाव के कारण शिशु के शरीर में केटाकोलामिन नामक पदार्थ स्त्रावित होते हैं। इनसे लिवर में संग्रहित ग्लाईकोजन ग्लुकोस में बदल जाता है जो शीघ्र-ऊर्जा की आवश्यकता पूरी करता है। शिशुु के फेंफड़ों में स्थित गर्भजल अवशोषित हो जाता है जिससे आक्सीजन एक्सचेंज सुगम हो जाता है। सीजेरियन प्रसव में यह सब नहीं होता अत: प्रसवोपरांत अगर कुछ गड़बड़ हुई तो शिशु उससे पार पाने में सक्षम नहीं होता। इसके अतिरिक्त सीजेरियन के तुरन्त बाद नाल बांध कर काटना भी प्रकृति विरूद्ध होता है। प्लेसेन्टा (आंवल) में स्थित रक्त नवजात के शरीर में नहीं पहुंचता।

सीजेरियन प्रसव। तुरन्त नाल बांध बच्चा बालचिकित्सक के हवाले। अस्पताल की नवजात सघन इकाई में देख रेख। बच्चा देखने में स्वस्थ। बड़ा हुआ। पढ़ने भेजा। सीखने में कमजोर, लनिंüग डिसेबिलिटी (ऑटिज्म) का षिकार। इसका कोई और कारण नहीं मिला। दूसरा बच्चा मंद बुद्धि। उसमें भी इसका और कोई कारण नहीं मिला। मां बाप का दुख सहज ही समझा जा सकता है। सीजेरियन प्रसव की बढ़ती दर के साथ इन विकालांगताओं की दर बढ़ती जा रही है। आधुनिक व्यवासायीकृत चिकित्सा में अकारण होते सीजेरियन प्रसवों की यही त्रासदी है। दुर्भाग्य यह कि त्रासदी, अनजाने में, लोग अच्छा खर्च कर मोल लेते हैं।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

एक मुलाकात के 80 बरस

20वीं सदी के दो महापुरूषों के मिलन की ऎतिहासिक घटना को स्विटजरलैंड निवासी दिसम्बर महीने में बड़े धूमधाम के साथ मना रहे हैं। यह वर्ष स्विटजरलैंड के एक छोटे से कस्बे के लिए गौरव का वर्ष है, जब 6 दिसम्बर 1931 को नाबेल विजेता महान साहित्यकार रोम्यां रोला और महात्मा गांधी की मुलाकात हुई थी। यहां उल्लेखनीय है कि रोमां रोलां महात्मा गांधी के सत्य ओर अहिंसा के दर्शन से इतने प्रभावित थे कि बिना उनसे मिले ही उनके बारे में एक किताब "महात्मा गांधी" लिख डाली थी जिसका प्रकाशन 1924 में हो गया था।

जब रोमां रोलां को इस बात का पता चला कि महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन में भाग लेन आ रहे हैं तो उन्होंने गांधी जी से मिलने की आतुरता जाहिर की । गांधी जी भी इतने प्रभावित थे कि उन्होंने उनसे मिलने का फैसला कर लिया। लेकिन जिस दिन गांधी जी उनके छोटे से कस्बेे के स्टेशन पर उतरे तो रोमां रोलां उनसे मिलने नहीं आए। एक क्षण को गांधी जी को आश्चर्य हुआ लेकिन बाद में पता चला कि रोमां रोला दमे के मरीज हेाने और भयंकर बारिश हो जाने के कारण, वे उन्हे स्टेशन पर मिलने नहीं आए। लेकिन इसके बाद वे 6 दिसम्बर से लेकर 11 दिसम्बर तक उनके अतिथि बन कर रहे।

जब तक गांधी जी उनके घर पर रहे उन दोनों के बीच विश्व की राजनीति से लेकर ईश्वर, सत्य और अहिंसा जैसे दार्शüनिक विषयों पर मात्र पांच दिनों में 15 घंटे की बातचीत हुईं रोम्या रोलां को गीता का श्लोक का पाठ सुनना अच्छा लगता था। रोला को संस्कृत के मंत्र के उच्चारण का संगीत तथा राम और शिव को लेकर उसकी व्याख्या अच्छी लगती थी। शॅाल लपेटे गांधी और लांग कोट में लदफदे रोला की तस्वीरो को वहां के तमाम अखबारों में इन दिनों ढ़ूंढ़ा जा रहा है।

रोमां रेालां की छोेटी बहन मेडेलिन रोलां ने, जो स्वयं एक लेखिका थी, लिखा था कि "जब तक गांधी जी रहे तब तक उनके कमरे की खिड़की के सामने एक युवा संगीतकार सांझ ढलते ही वायलिन बजाना शुरू कर देता। इसके साथ ही बायलिन बजाते हुए बच्चों की एक भीड़ जमा कर लेता। एक जापानी कलाकार गांधी जी से जुड़ी सभी घटनाओं के स्कैच बनाता रहता।

और गांधी जी स्वयं स्थानीय समाचार पत्र के संवाददाताओं से घिरे रहते।" गांधी जी की विदाई को लेकर स्वयं रोमंा रोलां ने पियानो बजा कर गांधी जी को सुनाया था। आश्चर्य की बात यह है कि आठ दशको के बाद भी वाउद कस्वे के निवासी इस ऎतिहासिक मिलन की याद करते हुए जश्न की तैयारियां अभी से करने लगे हैं। इस जश्न को 6 दिसम्बर से लगभग सप्ताह भर तक वहां के लोग मनाते रहेंगे।

बुधवार, 9 नवंबर 2011

प्रेम गली अति सांकरी




Pariwar
प्रेम गली अति सांकरी
हमारे यहां प्रेम करना और प्रेम न करना दोनों ही कभी खतरे से खाली नहीं रहे। आम दिनों की तो छोडिए, वैलेंटाइन डे तक पर श्रीराम सेना वाले तो यह धमकी दे देते हैं कि जो प्रेम करता हुआ पाया गया, उसे पीटेंगे और सरकार पुलिस को यह आदेश दे देती है कि इस दिन कोई भी नागरिक प्रेम से वंचित नहीं रहना चाहिए। इसलिए प्रेम करने वाले तो श्रीराम सेना वालों से पिटते हैं और प्रेम न करने वाले पुलिस वालों से।

मुझसे कई प्रकार के लोग कई प्रकार की सलाह लेने आते रहते हैं। इस भय से कि जाकर सलाह नहीं ली, तो खुद देने आ जाएगा। उम्र का एक दौर ऎसा आता ही है जब आदमी को धन्नो भी बसंती लगने लगती है। ऎसी ही दशा वाला एक नौजवान मेरे पास आया और निवेदन किया, 'एक सलाह मिलेगी?'

मैंने झट कहा, 'बैठे किसलिए हैं? सलाहें तो मैं बिन मांगे ही देता रहता हूं जबकि तुम तो मांग भी कर रहे हो। एक क्यों दस मांगो।' उसने इच्छा प्रकट की, 'मैं चौपाया होना चाहता हूं। आपकी क्या राय है?'मैंने प्रति प्रश्न किया, 'अक्ल से तो लग ही रहे हो और भला किस तरह चौपाया होना चाहते हो?' उसने बात घुमाई, 'क्या आपने प्रेम या प्रेम विवाह किया है?'

मैं बोला, 'मैंने न एक बार भी लव किया और न एक बार भी लव मैरिज। प्यार-व्यार के मामले में मेरी स्थिति नितांत 'क्या जाने अदरक का स्वाद' वाली रही है। मेरी शादी पूरी तरह सुनियोजित थी। और मेरी भांति शादियाए हुए जानते ही हैं कि हिंदुस्तान में मैरिज अरेंज्ड हो, तो सारे काम बाप करता है सिवाय फेरे खाने के।
मुझे तो स्कूल-कॉलेज के दिनों में भी प्रेम-व्रेम नसीब नहीं हुआ। मैं था हिंदी साहित्य का छात्र सो मुझ मरते हुए पर कौन मरती? किंतु यह कमजोरी ही मेरी ताकत भी थी। एक तो मेरे हिंदी साहित्य का विद्यार्थी होने से भी मेरी भाषा जरा ठीक थी। दूसरा, मैंने ट्रकों से शेरो-शायरी नोट कर-कर के पर्याप्त होमवर्क कर रखा था। इसलिए प्रेमीजन मुझसे प्रेमपत्र लिखवाते थे। और सत्य कह रहा हूं कि जिस लड़के को प्रेमपत्र लिख देता था, उसके दो नतीजे तय थे। या तो वह अपनी प्रेमिका या उसके अन्य प्रेमियों से पिटता था या फिर उसकी अपनी प्रेमिका से शादी हो जाती थी (हालांकि, ले देकर बातें दोनों एक ही हैं)। भले ही जमाना गुजर गया किंतु यदा-कदा आज भी कई टकराते रहते हैं, अपनी प्रेमिका-पत्नी और बाल-बच्चों के साथ जो मेरे लिखे प्रेमपत्रों की वजह से ही ब्याहे गए थे। मुझे देखते ही दांत पीस कर कहने लगते हैं कि नालायक जॉर्ज बुश। तुम्हीं हो जिसने मुझ अच्छे- खासे अमरीकी सिपाही को इराक में उलझा दिया।'

वह बोला, 'तब तो आपसे इश्क-मोहब्बत के विषय में सलाह तो दूर, चर्चा करना ही व्यर्थ है।'मैंने कहा, 'व्यर्थ क्यों है? सच है कि मैंने स्वयं कभी भांग नहीं पी लेकिन भंगेडियों को तो देखा ही है। यों भी सलाह-मशविरा देने के लिए उस विषय की एबीसीडी ज्ञात होना जरूरी थोड़े ही है।'

उसने बात बढ़ाई, 'बताइए कि मुझे लव मैरिज करनी चाहिए या अरेंज्ड मैरिज?'मैंने सलाह दी, 'जब घंटे भर घोड़ी पर बैठ कर जिंदगी भर के लिए घोड़ी ही होना है, तो लव का बाईपास क्यों? प्रेम से नहीं बच सके हो तो कोई बात नहीं, प्रेमविवाह से तो बचो। अन्यथा बाद में पछताना पड़ेगा कि काश वक्त रहते किसी पेशेवर प्रेमी से गीता रहस्य जान लेते, तो मोक्ष पा जाते। भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर में ही प्रयोग कर सिद्ध कर दिया था कि सफल गृहस्थी का कुल रहस्य यह है कि रास राधा के संग रचाओ और ब्याह रूक्मिणी से करो।' उसने शंका प्रकट की, 'क्या प्रेम विवाह के साइड इफेक्ट्स भी होते हैं?'

मैंने कहा, 'कितने गिनाऊं? ब्याह की कुनैन खाते ही प्यार का मलेरिया उतर जाता है। जंगली तोते को पिंजरे में रख दो, तो वह हरीमिर्च और चने की दाल पर आ जाता है। जो उड़-उड़ कर टीं-टीं गाता रहता था, बेचारा राम-राम बोलने लगता है। धन्नो को बसंती समझने वाला ब्याह होते ही उसी बसंती की धन्नो बन जाता है। प्रेमिका के संग प्यार के वक्त झीलों में फेंके गए कंकर शादी होते ही दाल में निकलने लगते हैं। प्रेमी जिस प्रेमिका को लेकर भागता है, शादी के बाद उसे देखते ही भागने लगता है।

उस पर उम्र का जोश हावी था। उसने मेरी संपूर्ण सलाह खारिज की और मुझे चिढ़ाने की गरज से खुमार बाराबंकवी का शेर सुनाया- 'न हारा है इश्क न दुनिया थकी है/दिया जल रहा है हवा चल रही है।'मैं भी कहां परास्त होने वाला था। अविलंब सलाह दी, 'वक्त की नजाकत को समझो प्यारे। प्रेम दर्शन का विषय है, प्रदर्शन का नही, बचो। समय बदल चुका है।'
संपत सरल
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बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

काशी कथा वाया मोहल्ला अस्सी


काशी कथा वाया मोहल्ला अस्सी
Hum Tum special article
काशी की जिंदगी के महžवपूर्ण हिस्से और धर्म की धुरी कहे जाने वाले मोहल्ला अस्सी पर हिंदी के अनूठे कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' के शब्दों को पिघलाकर चलते हुए चित्रों में तब्दील किया जा रहा है।

बनारस के घाटों की गोद में अलसायी सी लेटी गंगा को सुबह सुबह देखिए। सूरज पूर्व से अपनी पहली किरण उसे जगाने को भेजता है और अनमनी सी बहती गंगा हवा की मनुहारों के साथ अंगड़ाई लेती है। नावों के इंजन घरघराते हैं, हर हर महादेव की ध्वनियां गूंजती हैं। लोग डुबकियां लगा रहे हैं। यह मैजिक ऑवर है, रोशनी के लिहाज से।

डा.चंद्रप्रकाश द्विवदी निर्देशित फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' की यूनिट नावों में सवार है। वे इसी जादुई रोशनी के बीच सुबह का शिड्यूल पूरा कर लेना चाहते हैं। काशी की जिंदगी के महžवपूर्ण हिस्से और धर्म की धुरी कहे जाने वाले मोहल्ला अस्सी पर हिंदी के अनूठे कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' के शब्दों को पिघलाकर चलते हुए चित्रों में तब्दील किया जा रहा है। यह सिनेमा और साहित्य के संगम का अनूठा अवसर है। हम घूमने बनारस गए हैं और देखा कि वहां शूटिंग भी चल रही है तो यह यात्रा अपने आप में नई हो गई।

यह बेहद दिलचस्प है कि एक प्रतिबद्ध वामपंथी लेखक काशीनाथ सिंह की कृति पर एक समृद्ध इतिहासबोध वाले लेकिन विचारधारा में दक्षिणपंथी कहलाने वाले डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी फिल्म बना रहे हैं। दो धाराओं का यह संगम हुआ कैसे?

बकौल डॉ. द्विवेदी, जब उन्होंने उपन्यास पढा तो वे इसकी कहानी और शिल्प को लेकर चकित थे। इतिहास मुझे प्रिय रहा है और है लेकिन मैं अपने ऊपर लगे इतिहासवादी लेबल से भी अलग कुछ करना चाहता था। मैंने लगातार काशीनाथ जी से संपर्क रखा और वे मेरी दृष्टि से सहमत हुए। मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि उपन्यास की आत्मा वही रहेगी। बस कोई बदलाव होगा तो वह सिनेमाई जरूरत के हिसाब से होगा।

काशीनाथ सिंह कहते हैं, मैं उनके दक्षिणपंथी रूझान से वाकिफ रहा हूं लेकिन डा. साहब की बातचीत और उपन्यास को लेकर नजरिए से मैं आश्वस्त था। फिर मैंने उनकी फिल्म पिंजर देखी और यह पुख्ता हो गया कि डा. द्विवेदी से बेहतर इस पर कोई फिल्म नहीं बना सकता। काशीनाथ सिंह यह कबूल करते हैं कि इस खबर के बाहर आते ही इंडस्ट्री के दो बड़े निर्देशकों ने उनसे संपर्क किया था लेकिन अव्वल तो मैं डा. साब को जुबान दे चुका था और दूसरे मैं आश्वस्त नहीं था कि वे लोग उस तरह विषय के साथ न्याय कर पाएंगे जैसा मुझे डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी पर यकीन है।

लेखक और निर्देशक के आपसी यकीन का आलम यह है कि फिल्म की पटकथा डा. द्विवेदी ने लिखी है और काशीनाथ सिंह ने उसे पढ़ना जरूरी नहीं समझा। वे कहते हैं, इससे किसी निर्देशक की मेहनत का अपमान होता कि मैं उन पर भरोसा नहीं कर रहा। मैं मानता हूं कि उपन्यास में कंकाल तो मेरा है लेकिन उसको मांस मज्जा की सिनेमाई जरूरत से भरने का हक निर्देशक का ही है और उसमें कहानी के लेखक होने के नाते मुझे दखल नहीं करनी चाहिए।

आप शूटिंग के दौरान देख सकते हैं कि मुंह में पान दबाए धोती कुर्ते में काशीनाथ सिंह, रामबचन पांडे, गया सिंह सब के सब बेतकल्लुफी से किसी भी वैनिटी वैन में आ जा रहे हैं। अपनी ही भूमिका निभा रहे चरित्रों से मिल रहे हैं और उन्हीं संवादों को सुनते हुए अभिभूत हैं जो उनके मुंह से उपन्यास में कहे गए हैं। बनारस के लोगों के बीच अचानक से ये सब लोग महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।

पहले वे इन्हें नाम से जानते ही थे लेकिन अब यह भी देखा है कि किस तरह उनकी इज्जत की जा रही है। बहरहाल, जिन लोगों ने उपन्यास पढा है, वे जानते हैं कि इसमें काशी में प्रचलित गालियां जुबान का हिस्सा हैं और जैसा कि निर्देशक और लेखक दोनों की मानते हैं कि गालियां फिल्म में रहेंगी ही क्योंकि वे अश्लील होने से कहीं ज्यादा उस भाषायी संस्कृति का बोध कराती हैं जो बनारस और अस्सी घाट की परंपरा रही है। काशीनाथ सिंह हंसते हुए कहते हैं, 'डा. साब ने मुझे आश्वस्त किया है कि कहानी में इस्तेमाल 53 गालियां ज्यों की त्यों फिल्म के संवादों में हैं।'

पप्पू की दुकान के रूपक के माध्यम से पूरी कहानी समकालीन परिदृश्य में घटित होती है, जिसके अपने राजनीतिक मायने हैं और बकौल निर्देशक इसे कला फिल्म समझने की कोई गलती नहीं करनी चाहिए। हमारे समय के बदलाव को लेकर नए और पुराने के संघर्ष को लेकर यह एक जबरदस्त कहानी है, जिसमें मनोरंजन घुला हुआ है।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि कहानी में आने वाले पात्रों के असली किरदार भी शूटिंग स्थल पर मौजूद रहे हैं जिनमें खुद काशीनाथ सिंह के अलावा रामबचन पांडे, गया सिंह, पप्पू चाय वाला और तन्नी गुरू के परिवार के लोग। फिल्म के मुख्य कलाकार सन्नी देओल कहते हैं, 'डा. द्विवेदी ने कमाल कर रहे है, खासकर मैं समझता हूं यह मेरे लिए सबसे चुनौतीपूर्ण और सुख देने वाली भूमिका रही है। वे परफेक्शनिस्ट हैं। अपने संवादों के साथ छेड़छाड़ करने की इजाजत कलाकार को नहीं देते।' फिल्म के दूसरे कलाकार रवि किशन कहते हैं, 'सच कहूं तो मैं सैट पर कई बार संवाद इप्रोवाइज करता हंू लेकिन डॉ. साब ने हमें स्क्रिप्ट पढने के लिए बाध्य किया। हमें डॉयलॉग्स याद करने पड़े ताकि उन्हें बोलते समय हमारे भाव अपनी भूमिका के मुताबिक बने रहें।'

एक साहित्यिक कहानी पर दांव खेलने वाले निर्माता विनय तिवारी कहते हैं, 'मैंने उपन्यास पहले से ही पढा था। बनारस के मोहल्ला अस्सी के बहाने यह हमारे समय की सबसे जादुई कहानी मुझे लगती है और संयोग देखिए कि डा. द्विवेदी यह फिल्म निर्देेशित करना चाहते थे और मैं चाहता था कि अपनी कंपनी की पहली फिल्म की शुरूआत इसी कहानी से करूं।'

काशीनाथ सिंह कहते हैं, 'हिंदी लेखकों में बहुत लोगों ने मुंबई जाकर सिनेमा में लिखने की कोशिश की, जिनमें प्रेमचंद भी शामिल हैं, लेकिन शायद ही कोई हो, जो अपमानित होकर ना लौटा हो, या कड़वे अनुभव लेकर नही आया हो। ऎसे में इन लोगों को लेखक के प्रति आदर बेहतर है।' काशीनाथ सिंह यह भी कहते हैं कि उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि इस उपन्यास पर फिल्म बनेगी। लिखते समय उनकी मंशा यह रही कि वे उपन्यास के परंपरागत ढांचे को तोड़े जिसमें संस्मरण, यथार्थ और कल्पना के साथ कथा तžव रखा।

'यथार्थ को रचनात्मक बनाना पड़ता है। मैंने असली लोगों के पात्र रचे और वे जिधर जा रहे थे, उन्हें जाने दिया। इस तरह आप कह सकते हैं मैं किसी एक पात्र में नहीं हूं, थोड़ा थोड़ा सब में हूं।' लेखन में विचारधारा के आरोपण पर वे कहते हैं, 'मैं अकसर समाज को बदलने की इच्छा रखने वाले विद्रोही लेखक के रूप में अपनी कहानियों में रहा लेकिन रूसी समाजवाद के विघटन के बाद जो भरोसा था, वह हिला और उसका पूरा दबाव भी काशी का अस्सी के पात्रों पर आया। हालांकि लिखने के दौरान मैं मार्क्सवादी बना रहा और मुझे यह भी लगता रहा कि सारी राजनीतिक पार्टियां अब एक जैसी हो गई हैं।' डा. द्विवेदी कहते हैं, लेखक की यह दुविधा हमारे नायक में भी है। नए-पुराने के द्वंद्व हैं। आस्था का संकट है। दुनिया बदल रही है। उपन्यास की मूल आत्मा फिल्म में है।

फिल्म को एक हिस्सा मुंबई में सैट लगाकर किया गया। पप्पू की दुकान से सारा सामान खरीदकर उसे असली लुक देने की कोशिश की गई। नामवर सिंह ओर काशीनाथ सिंह ने जब मुंबई जाकर सैट देखा था तो वे अवाक थे कि किस तरह बनारस की गलियां हूबहू वहां खड़ी कर दी गई हैं। और बाकी हिस्सा बनारस में शूट हुआ। निर्देशक कहते हैं, आप ही सोचिए क्या गंगा और बनारस के घाटों को कोई भी विकल्प हो सकता है। हमें पता था कि एक तो विषय ऎसा है और दूसरा हमारा राजनीतिक माहौल ऎसा हो गया है कि आप सोच नहीं सकते कि कब क्या हो जाए लेकिन अच्छा यह है कि बनारस के लोगों ने हमें पूरी मदद की।

और इस पूरे फिल्मी माहौल के बीच बनारस के सब लोग मस्त हैं। घाट पर बच्चे कुछ फिरंगी महिलाओं को अपने दीपक बेचने की फिराक में पीछे लगे हैं। वे मुस्कराते हुए उन्हें पीछे कर रही हैं। वे सब दोस्त हो गए हैं। वे बच्चे लपकों की तरह नहीं हैं। तत्काल समझ में आ जाता है कि वे विलायती बालाएं ओर देसी बच्चे आपस में एक दूसरे को पहले से ही जानते हैं, वे हिंदी बोलते हुए उन्हें आश्वस्त करती हैं, 'आज नहीं, कल खरीदेंगी।' और बच्चे फुदकते हुए नए ग्राहक को ढूंढने लगते हैं। सिगरेट के सुट्टे लगाती लड़कियों की ओर हमारा मोबाइल कैमरा देखकर एक लोकल गाइड कहता है,

'वाई आर यू टेकिंग पिक्स।' और हम कहते हैं, 'अपना काम करो भाई।' उसने हमारी शिकायत की है उन्हीं लड़कियों और लड़कों से, 'गायज, दे आर टेकिंग योर स्नैप्स।' लड़कियां हमें अपने फोटो दिखाने को और डिलीट करने को कहती हैं और कारण पूछा तो बताया गया कि वे फिल्म की यूनिट का हिस्सा हैं। उन्हें डायरेक्टर ने मना किया है कि वे उनकी अनुमति के बिना किसी को फोटो नहीं खींचने देंगी।

अस्सी घाट पर चाट वाले ने हमारे लिए चाट बनाई है। उससे पानी मांगा तो उसने यह काम अपने वेटर को बोला है। वेटर टाल गया है। तीन चार बार याद दिलाने पर उसने खुद जग उठाया है। पानी भरा है और यह क्या? गटागट खुद पी गया है। हमारी हंसी नहीं थम रही है, 'ये बनारस है, ग्राहक बैठा है और तुम खुद पानी पिए जा रहे हो।' और उसने मुस्कराकर जबाब दिया है, 'तो क्या हो गया भइया, हमको भी तो प्यास लगी है। आप अब पी लीजिए।' और उसने जग हमें थमा दिया।
दिनेश पारीक

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

माँ , तुमने महिषासुर का संहार किया

माँ , तुमने महिषासुर का संहार किया
नौ रूपों में अपने
नारी की शक्ति को समाहित किया !
अल्प बुध्धि - सी काया दी
वक्त की मांग पर तेज़
जब-जब अत्याचार बढ़ा
तुमने काया कल्प किया !
रक्त में ज्वाला
आँख में अग्नि
मस्तिष्क में त्रिशूल बन धधकी !
कमज़ोर नहीं है नारी
जाने है दुनिया सारी
माँ तेरी कृपा है हर उस घर में
जहाँ जन्म ले नारी !!!
पहले पहल किसने छुई?
किया किसने अविष्कार धागे के साथ
तेरा रिश्ता? तुम पहले पहल
कैसी थी और अब से कितनी अलग?
कोई औरत सी रही होगी अलाव के पास चमड़े और पत्ते
इसके पहले कि हो बंर्फबारी
हो जाए हालत बद से बदतर
मर्द जबकि लड़ते थे
पत्थरों के हथियारों से जंगलों की लड़ाई
एक औरत
लड़ रही थी सुई से
बुरे मौसमों के विरुध्द
उस औरत को भी
नहीं मालूम
कि सी दी थी
उसने कितनी बड़ी
आदिम सभ्यता की
चादर
वह इसलिए
नहीं सोई
कि उसके मर्द
बच्चों के लिए
गुफा में
सिमटी रहे
थोड़ी-सी गर्मी
नींदों में भी
सुनाई न पड़े
दु:खों की गुर्राहट
फिर पीले पत्ते उड़े
जंगल
अग्रि-पर्वतों में तब्दील हुए पत्ते झुलसे
स्वप् राख हुए तब भी औरत
बना रही थी एक नक्षत्राकार तंबू
बिन थके
बिन थके
आखिरकार उसने बुन ही डाला
संसार का ताना-बाना टांक दिए
आकाश में खरबों सलमे-सितारे
उससे इसको जोड़ा इससे उसको
और पूरी पृथ्वी को ही
उसने बना डाला उष्णऊनों का
धड़कता हुआ गोला शुरु से
जो पास रही औरत के वह थी यही एक
नन्हीं सुई ऊंगलियों के
पोरों में असंख्य बार चुभी, छलकी आंखें
पर न औरत रुकी न ही पृथ्वी...

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मेरी बिटिया

उसके होने से ही
पावन है घर-आँगन,
उसकी चंचल चितवन
मोह लेती हम सबका मन,

वो रूठती
तो रुक जाते हैं
घर के काम सभी,
वो हँसती

तो झर उठते हैं
हरसिंगार के फूल,
महक उठता है
घर का कोना-कोना,
जाने कैसे हैं वे लोग
जो बेटियों को
जन्मने ही नहीं देते
हम तो सह नहीं सकते
अपनी बेटी का
एक पल भी घर में न होना .

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

एक स्त्री के बारे में....?

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न एक स्त्री का एकांत?

घर प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी
जमीन के बारे में बता सकते हो तुम?

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को उसके घर का पता?

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित करती है एक स्त्री?

सपनों में भागती एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में अपने-आपसे लड़ते?

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के मन की गाँठ खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने उसके भीतर का खेलता इतिहास?
पढ़ा है कभी उसकी चुप्पी की दहलीज पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को?

उसके अंदर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर?

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण?

बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा?

अगर नहीं!
तो फिर क्या जानते हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में....?

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

मेरी कविताओं का संग्रह: ब्लॉग पे सेक्स की जानकारी नहीं बल्कि सेक्स केस कि...

मेरी कविताओं का संग्रह: ब्लॉग पे सेक्स की जानकारी नहीं बल्कि सेक्स केस कि...: मेरे प्यारे मित्रो और साथियों पहले तो मैं आप सब से माफ़ी चाहता हु की मैं काफी दिनों के बाद ब्लॉग जगत में आया हु किसी अन्य जरुरी काम की वजह ...

प्रेम कहानियां यूं ही नहीं बनतीं (कोमल )

जब भी प्यार, इश्क की बात होती है तो हम खुद को मजनूं या रांझा का रिश्तेदार समझ लेते हैं. हर किसी की लाइफ में इन प्रेम कहानियों की खास इंपोर्टेंस होती है. किसी ने आपका दर्द पूछा नहीं कि आप तुरंत अपनी प्रेमकथा सुनाने को तैयार हो जाते हैं. हर किसी का अपना-अपना दर्द होता है, लेकिन इस दर्द को बयां करके जो सूकून इंसान को मिलता है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. आज मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. दूसरी सिटी में रहने के कारण मेरा फ्रैंड सर्किल काफी सीमित है. बस यूं ही टहलते हुए मैं एक पार्क तक चली गई. इस पार्क को दून के रिपोटर्स का अड्ढा भी कहा जाता है. यहां पर जर्नलिज्म के कुछ सीनियर्स हमेशा ही मिल जाया करते हैं. यहां पर पहुंची तो एक रीजनल न्यूजपेपर के दो रिपोर्टर यहां पहले से मौजूद थे. आमतौर पर इनसे मैं फील्ड में मिल चुकी हूं, लेकिन बातचीत कम ही होती है. मुझे लगा चलो थोड़ी देर यहीं गपशप कर ली जाए. दोनों जर्नलिस्ट बहुत सीनियर हैं. बात ही बात में चर्चा मेरी शादी तक आ पहुंची. दोनों का कहना था कि ‘कोमल हर काम समय पर होना चाहिए, तुम भी जल्दी शादी कर लो’. मैंने हामी भरी और यूं ही कह दिया कि हां भईया जी जल्द ही शादी कर लूंगी. बात यहां से मुड़ी और प्यार पर आ गई. मैंने उनमें से एक सीनियर से उनके परिवार के बारे में पूछा तो पहले तो वह चुप रहे, लेकिन उनके दूसरे साथी ने कहा कि यह इस बुढ़ापे में भी अपनी लवर का वेट कर रहे हैं. पहले तो मुझे यह मजाक लगा, लेकिन यह मजाक नहीं था. इन सीनियर की उम्र अब चालीस साल क्रास कर चुकी है. उन्होंने बताया कि वह कुमांऊ के एक गांव से बिलांग करते हैं, वहीं पर वह लड़की रहा करती है जिसे उन्होंने प्यार किया. कुमांऊनी ब्राह्म्ण होने के कारण पैरेंट्स ने दूसरी कास्ट की लड़की से शादी करने की इजाजत नहीं दी. बस फिर क्या था मैंने सोच लिया कि अब उसका इंतजार ही करूंगा. मुझे मेरे स्कूटर से बहुत प्यार था और उसकी के सहारे मैं सिटी की गलियां नापा करता था. यह स्कूटर क्योंकि मेरे पापा ने दिया था, इसीलिए मैंने अपने निर्णय के बाद इस स्कूटर को कभी नहीं छुआ. इसके बाद में देहरादून आ गया. कई साल यूं ही बीत गए हैं, लेकिन मैं अकेला ही रहा. उस लड़की को देखे हुए छह साल हो गए हैं, चार साल से उसकी आवाज नहीं सुनी. बावजूद इसके यह रिश्ता इतना गहरा है कि मैं उसकी हर खबर रखता हूं. कोई टेलीफोनिक कम्युनिकेशन नहीं है, लेकिन मुझे पता है कि उसने भी शादी नहीं की. हमेशा चुप रहने वाले इन सीनियर जर्नलिस्ट की बातें सुनकर मैं सोच में पड़ गई कि क्या सचमुच कोई किसी का इतना लंबा इंतजार कर सकता है. बावजूद इसके वह बहुत आशावान हैं और उन्होंने मुझे बताया कि कोमल इस बार मैं जब गांव जाऊंगा तो उससे जरूर मिलूंगा. तुम प्रेयर करना की सब ठीक हो जाए…..

नारी किसी से न हारी

नारी किसी से न हारी 

Pariwar Special articleईश्वर की रची सर्वाधिक सुंदर कृति है 'स्त्री'। प्रकृति ने उसे कोमल अवश्य बनाया है , पर उसने  परंपराओं से बाहर  निकलकर मील के पत्थर कायम किए हैं। लेकिन अपनी खास पहचान बनाने के बाद भी कदम-कदम पर उसके लिए चुनौतियां हैं। कभी वह इनसे उबरकर पंख लगाकर उड़ती है तो कभी संघर्ष में उलझ जाती है। आइए, उन्हीं से जानते हैं कि मुश्किलों से भरा यह सफर उन्होंने कैसे तय किया।

पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में सामंजस्य
एक कामकाजी महिला के नजरिए से मेरा मानना है औरतों के सामने सबसे बड़ी चुनौती  अपनी पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में बैलेंस बनाकर चलना है। अकेली औरत घर को संभालें या ऑफिस को। ऎसे में प्राथमिकताएं तय करना मुश्किल हो जाता है। महंगाई के मौजूदा दौर में घर-गृहस्थी को चलाने के लिए पति-पत्नी दोनों का कमाना जरूरी हो गया है। महिलाएं भाग्यशाली हैं कि कई काम जैसे टीचर, रिसेपशनिस्ट आदि के लिए उन्हें उपयुक्त माना जाता है पर चूंकि पुरूषों की भांति उनकी जिम्मेदारी केवल दफ्तर तक सीमित नहीं है इसीलिए योग्य होते हुए भी वे कॅ रियर के क्षेत्र मे दोहरी जिम्मेदारी के चलते पिछड़ जाती हैं। घर और बाहर के काम में सामंजस्य बैठाना ही बहुत बड़ी चुनौती है।      

अमरप्रीत सब्बरवाल
नेशनल ट्रेनर

खूबसूरती है पैमाना
स्त्री को हमेशा सौंदर्य के मापदंडों पर तोला जाता है। वह कितनी भी अक्लमंद या टैलंटेड क्यों न हो, पुरूष उसके दैहिक सौंदर्य से ही उसे परखते हैं। एक लड़की का खूबसूरत होना उसके विवाह की पक्की गारंटी समझा जाता है। लड़का चाहे कैसा भी हो, पर पत्नी उसे सुंदर ही चाहिए। ऎसे में कितनी लड़कियों के ब्याह नहीं होते या उनमें से ज्यादातर मन मे कंुठाएं पाल लेती हैं या हीनभावना से ग्रसित हो जाती हैं। जबकि बेहद खूबसूरत çस्त्रयों के पति अक्सर असुरक्षित महसूस करते है,ं आत्मकुंठित हो जाते हैं। कार्यस्थलों पर, जहां मापदंड आकर्षक व्यक्तित्व का होता है, वहां अक्सर छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न, अनैतिक संबंध भी इसी मनोदशा के परिचायक हंै। 


महंगाई डायन खाए जात है
एक महिला के समक्ष आज सबसे 
बड़ी चुनौती घर का खर्च चलाने की है। बढ़ती महंगाई ने मध्यमवर्गीय परिवारों की कमर तोड़ कर रख दी है। महीने के आखिर तक आते-आते तो एक-एक रूपया सोच समझकर खर्च करना पड़ता है। महीने के आखिरी दिन इसी जद्दोजहद में गुजर जाते हैं कि सीमित आय में घर का खर्च कैसे चलाएं। जरूरतें तो दिन-ब-दिन बढ़ती ही हैं पर कीमतों में इजाफ ा होने से बजट गड़बड़ा रहा है। लिविंग स्टैंडर्ड मेनटेन करना मध्यम वर्ग के लिए मुश्किल हो 
गया है।

शिवांगी जैन
गृहिणी

एक परिघि है
मेरा मानना है कि एक औरत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है अपना कॅरियर बनाना। कॅरियर के लिहाज से आज भी महिला के पास बहुत सीमित विकल्प हैं। कामकाज के सिलसिले में कई बार घर से बाहर आने-जाने और रहने वाली लड़कियों के चरित्र पर उंगली उठाई जाती है। चूंकि स्त्री हर कहीं रह नहीं सकती, जा नहीं सकती, ठहर नहीं सकती, ये सीमाएं उसे कमजोर बना देती हैं और वो अपनी काबिलियत सिद्ध नहीं कर पाती। जब वह पुरूष प्रधान समाज के मापदंडों पर खरा उतरने का प्रयास करती है तो उसे कई समझौतेे करने पड़ते हैं। बराबरी का हक देना तो दूर, समाज के कर्णधार लोग उसे हर क्षेत्र में दबाना चाहते हैं

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

हिन्दी ब्लौगिंग को समृद्ध कीजिये

मसला कोई भी और कितना भी बिगड़ा हुआ क्यों न हो लेकिन वह जब भी सुलझेगा , बातचीत से ही सुलझेगा .
यह एक अहम सूत्र है.
ब्लॉगर्स मीट वीकली का मकसद यही है कि फासले कम हों और गलतफहमियां दूर हों .
आप सभी के विचार अमूल्य हैं , हिन्दी ब्लौगिंग को समृद्ध करने में इनका उपयोग करें.

 ब्लॉगर्स मीट वीकली (11)

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

“इस्लामी आतंकवाद” की फ़र्ज़ी धारणा

Hindi translation of bestseller "Who Killed Karkare?"
Book:
करकरे के हत्यारे कौन ?
भारत में आतंकवाद का असली चेहरा
एस. एम. मुशरिफ़
by S.M. Mushrif
[Former, IG Police, Maharashtra]
368 pages p/b
Price: Rs 250 / US $15 $20
ISBN-10: 81-7221-038-8
ISBN-13: 978-81-7221-038-0
Year: 2010
Publishers: Pharos Media Publishing Pvt Ltd
368 पन्‍नों की यह पुस्तक भारत में “इस्लामी आतंकवाद” की फ़र्ज़ी धारणा को तोड़ती है।

यह उन शक्‍तियों के बारे में पता लगाती है जिनका महाराष्ट्र ए टी एस के प्रमुख हेमंत करकरे ने पर्दाफ़ाश करने की हिम्मत की और आख़िरकार अपने साहस, और सत्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की क़ीमत अपनी जान देकर चुकाई।

एक पुस्तक जो साफ़ तौर पर यह कहती है कि ये “ब्राह्‌मणवादियों” का “ब्राह्‌मणवादी आतंकवाद” है, इस्लामवादियों का “इस्लामी आतंकवाद” नहीं...

See More : http://hbfint.blogspot.com/2011/09/blog-post_689.html

एक स्त्री के बारे में....?

बस यही की सदियों से विवाह नाम के व्यापर से खरीदी हुई वो वस्तु ,जिसे ता उम्र अपनी तमाम
ज़िन्दगी का किस्त धीरे धीरे और भी रिस्तो में बंध कर चुकाना पड़ता है ,
जिसका कुछ ब्याज बिस्तर पर वसूल होता है,,,,,,,,,,
कुछ रसोई में ......आज भी .अधिकांश पुरुषों के लिए नारी को बस यही तक
का उपयोग माना जाता है ..........

सोमवार, 5 सितंबर 2011

“मर्ज़ी का प्यार बनाम मज़बूरी का प्यार

दोस्तों प्यार क्या है ? हरेक प्रेमी और विचारक अपनी २ समझ + रूचि और स्वभाव के अनुसार इसकी अलग -२ व्याख्या करता है ….. लेकिन एक बात तो तय है की हरेक युग में प्यार में स्वार्थीपन और त्याग + बलिदान में संघर्ष चलता रहा है …… युग के प्रभाव के अनुसार ही इसमें स्वार्थ और त्याग तथा बलिदान की मात्रा अलग -२ रही है ……
प्रेम सिर्फ देने तथा त्याग का ही दूसरा नाम है , इस बात को मानने वाले आजकल न के बराबर रह गए है ….. आजकल तो प्यार सिर्फ और सिर्फ पाने का ही नाम रह गया है ….. रूह की गहराइयों से कोसो दूर आकर्षण युक्त सिर्फ सतही प्यार ….. ऐसे प्यार का भूत दिलो दिमाग से बहुत ही जल्दी उतर जाया करता है …… ऐसे भी पति – पत्नी के जोड़ें है जिनकी की सारी की सारी उम्र साथ रहते हुए तो बीत जाती है , दर्जनों बच्चे भी हो जाते है , लेकिन अगर उनसे यह पूछा जाए की उन्होंने अपने –२ जीवनसाथी से क्या वास्तव में प्यार किया ? और अगर किया तो कितना ? …… ज्यादातर का जवाब शायद नहीं में होगा …… जब भीतर में उमंग और चाहत ही नही होगी तो प्यार कहाँ से उपजेगा ?….. हम लोग नियति के बनाए हुए रिश्तों में मजबूरी का फर्ज रूपी प्यार करते नही बल्कि उस मज़बूरी के प्यार को भी अपनी जिंदगी मान कर ढोते रहते है …..
इसका मतलब यह नहीं की मैं इस बात के हक में हूँ की सभी को प्रेम विवाह कर लेना चाहिए …… प्रेम विवाह करने वालो का तो और भी बुरा हाल है …… उनकी सफलता का प्रतिशत तो अरेंज्ड मैरिज वालो की तुलना में कहीं भी नहीं ठहरता …… मेरे कहने का मतलब बस इतना भर है की आप विवाह चाहे प्रेम – विवाह करिए या फिर अपने बड़े बजुर्गो की मर्जी से ….. जिससे भी आपका नाता एक बार जुड़ जाए बस फिर उसी को अपना सब कुछ मान कर उसी में डूबकर अपने तन मन और रूह की गहराइयों से प्यार कीजिये … किसी और से सम्बन्ध रखना तो दूर की बात , किसी गैर के बारे में कोई ख्याल लाना भी आपके लिए पाप होना चाहिए ……..
मेरे कालेज के समय में जो साथी लड़के मुझसे किसी लड़की का पीछा करने और उसका घर देख आने में सहायता मांगते थे तो मैं उनसे पहले उनके इष्टदेव के नाम पर यह वचन ले लेता था की अगर उस लड़की से बात बनी तो फिर वोह शादी भी उसी से करेगा …… मैं यह देख कर हैरान रह जाता था की वोह एक सेकंड से पहले शपथ उठा लेते इश्वर के नाम की ……. वोह ज्यादातर समय मेरे साथ ही गुजारते थे , फिर भी पता नही मन के किसी कोने से यह आवाज आती थी की यह अपने वादे पर पूरा नही उतरेंगे ….. मुझको अचरज होता है की जब मुझको उनको साथी होने पर उन पर पूरा विश्वाश नही था तो आजकल की लड़किया लड़को पर किस बिनाह पर विश्वाश कर लेती है ……
शायद इसके दो ही कारण हो सकते है मेरी नजर में …. पहली बात जो जेहन में आती है की यह सच ही कहा गया है की प्यार अंधा होता है ….. जिसमे पड़कर प्रेमी अपना विवेक और सोचने समझने की शक्ति खो देते है ….. दूसरा कारण यह हो सकता है की वोह कहावत जोकि हम लोग अपने बड़े बजुर्गो से सुनते और किताबों में भी पढ़ते आये है की सुन्दर औरते मुर्ख होती है , उनकी अक्ल घुटनों में या फिर उनकी जुल्फों में निवास करती है ….. और यह बात आप सभी भली न्हंती जानते है की आजकल की छोरियों की जुल्फे रही ही कहाँ ….. तो उनकी उसी जन्मजात कमजोरी का फायदा लम्पट पुरुष अक्सर उठाया करते है , और अपना उल्लू सीधा किया करते है …… इस मामले में तो बेचारी कुदरत भी अपनी हार मान लेती है …… उस पराशक्ति ने नारी को इसी कमजोरी पर काबू पाने के लिए और दुनिया का सामना करने के लिए उसको छठी इंद्री रूपी सजगता से नवाजा है जिसको की आजकल हम सिक्स्थ सैंस के नाम से भी जानते है ……
लेकिन आजकल के जमाने में नारियों का यह गुण दब गया है , मुझको तो यही डर है की कम होते -२ कहीं यह एक दिन बिलकुल ही खत्म ना हो जाए …… चाहे हम कितना भी तरक्की क्यों न कर ले , आदमी कितना भी क्यों न गिर जाए , नारी कितनी भी पतित क्यों न हो जाए , लेकिन फिर भी मेरे मन में यह आस और विश्वाश है की वोह दीन कभी नहीं आएगा , जब नारी प्रकर्ति द्वारा अपने इस गुण रूपी हथियार से वंचित हो जायेगी…

रविवार, 4 सितंबर 2011

शिक्षक दिवस पर एक ख़ास रिपोर्ट ; ब्लॉगर्स मीट वीकली (7) Earn Money online


हाजी अब्दुल रहीम अंसारी साहब
कागज़ी समाजसेवी सबक़ लें ... 

 समाचार पत्रों में आप अक्सर समाजसेवियों के बारे में पढ़ते रहते है. किन्तु जो समाजसेवी समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनते है उसके पीछे कितनी सतनी सच्चाई होती है. शायद हर पत्रकार जानता है. ऐसे समाजसेवियों को आईना दिखने के लिए हैं.  हाजी अब्दुल रहीम अंसारी, एक ऐसा नाम जो उन लोंगो के लिए के लिए प्रेरणा श्रोत है जो खुद को समाजसेवी कहलाने के लिए परेशान रहते है किन्तु समाजसेवा का कोई कार्य नहीं करते. 

मूलतः संत रविदासनगर भदोही जनपद के काजीपुर मुहल्ले के रहने वाले अब्दुल रहीम अंसारी नगर के अयोध्यापुरी प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक के पद पर कई वर्षो तक  कार्यरत रहे. २००७ में वे इसी विद्यालय से अवकाश प्राप्त किये, दो दिन घर पर रहने के बाद उन्हें एहसास हुआ की वे घर पर खाली नहीं रह सकते. लिहाजा फिर पहुँच गए उसी स्कूल जहाँ बच्चो को पढ़ाते थे, उन्हें देखते ही बच्चे चहक उठे. उन्होंने विद्यालय के प्रधानाचार्य से पढ़ाने की इच्छा जाहिर की और नियमित रूप से विद्यालय आकर पढ़ाने लगे. यही नहीं विद्यालय का लेखा जोखा पहले उन्ही के पास रहता था, दुबारा यह जिम्मेदारी उन्हें फिर सौंप दी गयी.  २००९ में उन्होंने हज भी किया. पांच वक़्त के नमाज़ी अब्दुल रहीम अभी तक नियमित रूप से विद्यालय  आकर बच्चो को शिक्षा देते रहते है. उन्हीं के दिशा निर्देश पर पूरा विद्यालय परिवार चलता है. एक बार विद्यालय के प्रधानाद्यापक और सहायक अध्यापक राजीव श्रीवास्तव ने उन्हें अपने वेतन से कुछ पारिश्रमिक देने की बात कही तो वे  भड़क उठे.  कहा आज भी सरकार उन्हें आधी तनख्वाह देती है. हराम का लेना उन्हें पसंद नहीं जब तक शरीर साथ देगा वे बच्चों को नियमित शिक्षा देंगे. यही नहीं वे होमियोपैथिक के अच्छे जानकर भी है. विद्यालय के बच्चे जब बीमार होते हैं तो वही दवा देते हैं.. यही नहीं जो भी उनके पास इलाज के लिए पहुँचता है. उसे भी दवा देते है. और इस दवा का वे कभी एक पैसा तक नहीं लेते. आज वे अपने मुहल्ले में वे सम्मान की दृष्टि से देखे जाते है.  आज जहा लोग पैसे के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते है. ऐसे में वे सम्मान जनक पात्र ही नहीं वरन पूरे समाज के लिए प्रेरणास्रोत  है.
सच इंसानियत, समाजसेवा का जज्बा हर इन्सान में होना चाहिए चाहे वह किसी भी धर्म का हो. ऐसे महान व्यक्तित्व को मैं सलाम करता हूँ. यदि ऐसे लोंगो का अनुसरण लोग करें तो जरा सोचिये समाज का क्या स्वरूप होगा. 

हाजी अब्दुल रहीम साहब के बारे में हमें यह सारी जानकारी हमारे मित्र हरीश सिंह जी ने दी है जो कि ख़ुद भदोही में ही रहते हैं। यह जानकर अच्छा लगता है कि हमारे बीच  अभी ऐसे  लोग मौजूद हैं जो कि अपने फ़र्ज़ पहचानते हैं और उसे अदा करते हैं और यह तो सोने पर सुहागे जैसा सुखद है कि यह सब करने वाला एक मुसलमान है।
हमारी दुआ है कि मुसलमानों को विशेष रूप से हाजी जी के अमल से प्रेरणा मिले और यूं तो वह हरेक के लिए एक प्रेरणा स्रोत हैं ही।
ब्लॉगर्स मीट वीकली में आज सबसे पहले हाजी अब्दुल रहीम साहब का ही ज़िक्र किया गया है। जिसे आप इस लिंक पर देख सकते हैं- 

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

एक स्त्री के बारे में....? part 2

मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है

चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और तमगों से लैस
सीना फुलाए हुए सिपाही महाराज की जय बोल रहे हैं.

वे महाराज जो मर चुके हैं
महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.

मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं

कितना ख़राब लगता है एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भी बुरा नहीं लगता

औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं

इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.

रविवार, 21 अगस्त 2011

ब्लॉगर्स मीट वीकली (5) Happy Janmashtami

Saleem Khan & Anwer Jamal Khan
प्रेरणा अर्गल जी और डॉ.अनवर जमाल जी की ये संयुक्त प्रस्तुति बहुत ही सार्थक पहल है और जिस शालीन ढंग से यहाँ ब्लोग्स की पोस्ट की चर्चा की जाती है वह सारे ब्लॉग जगत में सराहनीय है.सही कहा कि जब त्यौहार साथ साथ हो सकते हैं तो हम उन्हें साथ साथ मनाने से गुरेज़ क्यों करें.हम तो अपने बचपन से ही सारे त्यौहार साथ साथ मनाते रहे हैं और यदि ईश्वर की और इस धरती पर बसे सत्पुरुषों की कृपा दृष्टि यूँ ही बनी रही तो सारी जिंदगी हम मिल जुल कर ही अपने जीवन को हंसी ख़ुशी बिताना चाहेंगे.

ब्लॉगर्स मीट वीकली (5) Happy Janmashtami & Happy Ramazan