http://vangaydinesh.blogspot.com/बेटी हूं मैं, कोई पाप नहीं
भारत में लगातार बढ़ती जनसंख्या एक चिंता का विषय बनी हुई है विश्व में चीन के बाद भारत दूसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है जहां एक ओर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन का दवाब विकास की गति को बाधित कर रहा है वहीं दूसरी ओर भू्रण हत्या के कारण घटता लिंगानुपात समाज के संतुलन को बिगाड़ रहा है। भारत में कन्या भ्रूण हत्या का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है।सरकारी स्तर पर किए गए तमाम प्रयासों के बावजूद इसमें कमी नहीं आ रही है।
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दो बच्चों की अनिवार्यता और कन्या भ्रूण हत्या
परिवार का आकर सीमित करने और छोटे परिवार की धारणा को प्रबल करने के उद्देश से सरकार द्वारा दो बच्चों के सिद्धात को लागू किया सबसे पहले यह राजस्थान में 1992 में फिर हरिय़ाणा 1993 उसके बाद मध्य प्रदेश 2000 (जिसे वापस लिया गया था और अभी इसके बारे में मुझे पता नही है कि स्थिति क्या है),उड़ीसा 1993 आदि में लागू किया गया इस नियम के चलते दो अधिक संतानों वाले माता-पिता चुनाव में उम्मीदवारी और पंचायत राज संस्थाओं की स्वायत्त शासन की आधारभूत इकाईयों यथा पंचायती राज संस्थान और स्थानीय नगरीय निकायों में किसी भी पद के लिए अयोयग्य करार दिया है( राजस्थाम में लागू है) इन राज्यों में इस फैसले ने भी कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपरोधों को प्रोसाहित ही किया हैएक सर्वे के अनुसार इन सिंद्धात की बजह से समाज में महिलाओं की स्थिति पहले से ज्यादा बदतर हुई है।इसमे जबरिया गर्भपात कन्या शिशुओं का परिस्याग लोगों राजनैतिक आकंक्षाओं की बलि चढती जा रही है। राजनैतिक महत्वकाक्षांओं की पूर्ति के लिए बालिकाओं के प्रति उपेक्षाभाव,पतियों द्वारा पत्नियों का परित्याग कलह और बेटे को ही पैदा करने का दबाब महिलाओं पर पड रहा है
निर्णय लेने की अधिकारी नहीं है महिलाएं
घर में खाना बनाने के लिए जहां84 प्रतिशत महिलाएं स्वयं निर्णय ले सकती है बहीं सामाजिक और रीतिगत मामलों में उन्हें निर्णय लेनेका अधिकार सिर्फ 40 प्रतिशत ही है।समाज में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा महिलाएं अपने पतियों की हिंसा की शिकरा होती है तो 49 प्रतिशत महिलाएं ही पुरूषों के मुकाबलें कार्यशीलहैं।समाजिक दबाब के चलते उनके कानों यह बात बार बार डाली जाती है कि बगैर बेटे को पैदा किये समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थान नहीं मिल सकता है।हमें मिलकर इस सामाजिक बुराई से लडना होगा समय के साथ साथ लडके औऱ लड़कियों के बीच के भेद को मिटाना होगा नहीं तो कहीं लड़किया सिर्फ वेश्यालयों मे ही ना पैदा होने लगे और हमारा संभ्रात समाज अपनी ही सोच के चलते सिमट कर ना रह जाये इन हालातो में एक बात जरूर हमें समझ लेनी चाहिए कि .यदि हम बेटियां नहीं चाहेगें तो हमे बहुए भी नसीब नहीं होगीं
“यहां आने से पहले बेटी पूछती है खुदा से
संसार तूने बनाया, या बनाया है इन्सां ने
मारे वो हमको जैसे, हम उनकी संतान नहीं
डर लग रहा है कभी वापस भेज न दे वो हमें यहां से
कहा फिर उस खुदा ने कि भूल गया है इन्सां
जहां बेटी नहीं है बता वो कौन सा है जहां
वक्त एक ऐसा आएगा, ‘औरत’ शब्द रह न जाएगा
फिर पूछूंगा इन्सां से, अब तू ‘बेटा’ लाएगा कहां से”
दिनेश पारीक