सोमवार, 19 दिसंबर 2011

हिंदी की स्थिति

जैसे ही सितंबर का महीना आता है¸ हिंदी की याद में हर हिंदुस्तान का दिल धड़कने लगता है। हम जो शुद्ध हिंदुस्तानी ठहरे¸ हमारा जी और भी व्याकुल हो उठता है¸ सावन के महीने में जिस तरह महिलाओं को पीहर की याद आती है ठीक वैसे ही। मन में हूक सी उठती है कि सब जग हिंदीमय हो जाए। इसी तड़फ़ को बनाए रखने के लिए हर साल चौदह सितंबर को हिंदी दिवस मनाने की परंपरा चल पड़ी हैं। हर साल सितंबर का महीना हाहाकारी भावुकता में बीतता है। कुछ कविता पंक्तियों को तो इतनी अपावन क्रूरता से रगड़ा जाता है कि वो पानी पी-पीकर अपने रचयिताओं को कोसती होंगी। उनमें से कुछ बेचारी हैं:-
निज भाषा उन्नति अहै¸ सब उन्नति को मूल¸
बिनु निज भाषाज्ञान के मिटै न हिय को सूल।

या फिर

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती¸
भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती।

या फिर

कौन कहता है आसमान में छेद नहीं हो सकता.¸
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।

कहना न होगा कि दिल के दर्द के बहाने से बात पत्थरबाजी तक पहुंचने के लिए अपराधबोध¸ निराशा¸ हीनताबोध¸ कर्तव्यविमुखता¸ गौरवस्मरण की इतनी संकरी गलियों से गुज़रती है कि असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है कि वास्तव में हिंदी की स्थिति क्या है?

ऐसे में श्रीलाल शुक्ल जी का लिखा उपन्यास 'राग दरबारी' याद आता है जिसका यह वर्णन हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं पर लागू होता है:-

एक लड़के ने कहा¸ "मास्टर साहब¸ आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं?"
वे बोल¸ ."आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।"
एक दूसरे लड़के ने कहा¸ "अब आप देखिए¸ साइंस नहीं अंग्रेज़ी पढ़ा रहे हैं।"
वे बोले¸ ."साइंस साला बिना अंग्रेज़ी के कैसे आ सकता है?"

हमें लगा कि हिंदी की आज की स्थिति के बारे में मास्टर साहब से बेहतर कोई नहीं बता सकता। सो लपके और गुरु को पकड़ लिया। उनके पास कोई काम नहीं था लिहाज़ा बहुत व्यस्त थे। हमने भी बिना भूमिका के सवाल दागना शुरु कर दिया।

सवाल:- हिंदी दिवस किस लिए मनाया जाता है?
जवाब:- देश में तमाम दिवस मनाए जाते हैं। स्वतंत्रता दिवस¸ गणतंत्र दिवस¸ गांधी दिवस¸ बाल दिवस¸ झंडा दिवस वगैरह।
ऐसे ही हिंदी दिवस मना लिया जाता है। जैसे आज़ादी की¸ संविधान की¸ नेहरू–गांधी जी की याद कर ली जाती हैं वैसे ही हिंदी को भी याद रखने के लिए हिंदी दिवस मना लिया जाता है। राजभाषा होने के नाते इतना तो ज़रूरी ही है मेरे ख्याल से।

सवाल:- लेकिन केवल एक दिन हिंदी दिवस मनाए जाने का क्या औचित्य है?
जवाब:- अब अगर रोज़ हिंदी दिवस ही मनाएंगे तो बाकी दिवस एतराज़ करेंगे न! सबको बराबर मौका मिलना चाहिए। एक फ़ायदा इसका यह भी होता है कि लोगों के मन में जितनी हिंदी होती है वह सारी एक दिन में निकाल कर साल भर मस्त
रहते हैं। हिंदी दिवस पर सारी हिंदी उडे.लकर बाकी सारा साल बिना हिंदी के तनाव के निकल जाता है। साल में हिंदी की एक बढ़िया खुराक ले लेने से पूरे साल देशभक्ति का और कोई बुखार नहीं चढ़ता। बड़ा आराम रहता है।

सवाल:- हिंदी की वर्तमान स्थिति कैसी है आपकी नज़र में?
जवाब:- हिंदी की हालत तो टनाटन है। हिंदी को किसकी नज़र लगनी है?

सवाल:- किस आधार पर कहते हैं आप ऐसा?
जवाब:- कौनौ एक हो तो बताएं। कहां तक गिनाएं?

सवाल:- कोई एक बता दीजिए।
जबाव:- हम सारा काम बुराई-भलाई छोड़कर टीवी पर हिंदी सीरियल देखते हैं। घटिया से घटिया¸ इतने घटिया कि देखकर रोना आता है¸ सिर्फ़ इसीलिए कि वो हिंदी में बने है। यही सीरियल अगर अंग्रेज़ी में दिखाया जाए तो चैनेल बंद हो जाए। करोड़ों घंटे हम रोज़ होम कर देते हैं हिंदी के लिए। ये कम बड़ा प्रमाण/आधार है हिंदी की टनाटन स्थिति का?

सवाल:- अक्सर बात उठती है कि हिंदी को अंग्रेज़ी से ख़तरा है। आपका क्या कहना है?
जवाब:- कौनौ ख़तरा नहीं है। हिंदी कोई बताशा है क्या जो अंग्रेज़ी की बारिश में घुल जायेगी? न ही हिंदी कोई छुई-मुई का फूल है जो अंग्रेज़ी की उंगली देख के मुरझा जाएगी।

सवाल:- हिंदी भाषा में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रदूषण हिंगलिश के बारे में आपका क्या कहना है?
जवाब:- ये रगड़-घसड़ तो चलती ही रहती है। जिसके कल्ले में बूता होगा वो टिकेगा। जो बचेगा सो रचेगा। समय की मांग को जो भाषा पूरा करती रहेगी उसकी पूछ होगी वर्ना आदरणीय¸ वंदनीय¸ पूजनीय बताकर अप्रासंगिक बन जाएगी।

सवाल:- लोग कहते हैं कि अगर कंप्यूटर के विकास की भाषा हिंदी जैसी वैज्ञानिक भाषा होती तो वो आज के मुकाबले बीस वर्ष अधिक विकसित होता।
जवाब:- ये बात तो हम पिछले बीस साल से सुन रहे हैं। तो क्या वहां कोई सुप्रीम कोर्ट का स्टे है हिंदी में कंप्यूटर के विकास पर? बनाओ। निकलो आगे। झुट्‌ठै स्यापा करने रहने क्या मिलेगा?

सवाल:- बॉलीवुड वाले जो हिंदी की रोटी खाते हैं¸ हिंदी बोलने से क्यों कतराते हैं? रोटी खाते हैं¸ हिंदी बोलने से क्यों कतराते हैं? इसका जवाब ज़रा विस्तार से दें काहे से कि यह सिनेमा वालों से जुड़ा है और इसलिए जवाब में ये दिल मांगे मोर की ख़ास फ़रमाइस है लोगों की।
जवाब:- इसके पीछे आर्थिक मजबूरी मूल कारण हैं। असल में तीन घंटे के सिनेमा में काम करने के लिए हीरो-हीरोइनों को कुछेक करोड़ रुपये मात्र मिलते हैं। हिंदी फ़िल्मों में काम करते समय तो डायलाग लिखने वाला डायलाग लिख देता है वो डायलाग इन्हें मुफ्.त में मिल जाते हैं सो ये बोल लेते हैं। एक बार जहां सिनेमा पूरा हुआ नहीं कि लेखक लोग हीरो-हीरोइन को घास डालना बंद कर देते हैं। इनके लिए डायलाग लिखना भी बंद कर देते हैं। अब इतने पैसे तो हर कलाकार के पास तो होते नहीं कि पैसे देकर ज़िंदगी भर के लिए डायलाग लिखा ले। पचास खर्चे होते हैं उनके। माफ़िया को उगाही देना होता है¸ पहली बीबी को हर्जाना देना होता है¸ एक फ्लैट बेच कर दूसरा ख़रीदना होता है। हालात यह कि तमाम खर्चों के बीच वह इत्ते पैसे नहीं बचा पाता कि किसी कायदे के लेखक से डायलाग लिखा सके। मजबूरी में वह न चाहते हुए भी अपने हालात की तरह टूटी-फूटी हिंदी-अंग्रेज़ी बोलने पर मजबूर होता है।

अब हिंदी चूंकि वह थोड़ी बहुत समझ लेता है लिहाज़ा उसे पता लग जाता है कि कितनी वाहियात बोल रहा है। फिर वह घबराकर अंग्रेज़ी बोलना शुरू कर देता है। अंग्रेज़ी में यह सुविधा होती है चाहे जैसे बोलो¸ असर करती है। आत्मविश्वास के साथ कुछ ग़लत बोलो तो कुछ ज़्यादा ही असर करती है। बोलचाल में जो कुछ चूक हो जाती है उसे ये लोग अपने शरीर की भाषा (बाडी लैन्गुयेज) से पूरा करते हैं। बेहतर अभिव्यक्ति के प्रयास में कोई-कोई हीरोइने तो अपने पूरे शरीर को ही लैंग्वेज में झोंक देती हैं। जिह्वा मूक रहती है¸ जिस्म बोलने लगता है। अब हिंदी लाख वैज्ञानिक भाषा हो लेकिन इतनी सक्षम नहीं कि ज़बान के बदले शरीर से निकलने लगे। तो यह अभिनेता हिंदी बोलने से कतराते नहीं। उनके पास समुचित डायलाग का अभाव होता है जिसके कारण वे चाहते हुए भी हिंदी में नहीं बोल पाते हैं।

सवाल:- चलिए वालीवुड का तो समझ में आया कुछ मामला और मजबूरी लेकिन अच्छी तरह हिंदी जानने वाले बीच-बीच में
अंग्रेज़ी के वाक्य क्यों बोलते रहते हैं?
जवाब:- आमतौर पर यह बेवकू.फ़ी लोग इसलिए करते हैं ताकि लोग उनको मात्र हिंदी का जानकार समझकर बेवकूफ़समझने की बेवकूफ़ी न कर बैठे। हिंदी के बीच-बीच में अंग्रेज़ी बोलने से व्यक्तित्व में उसी निखार आता है जिस क्रीम पोतने से चेहरे पर चमक आ जाती है और जीवन साथी तुरंत पट/फिदा हो जाता है। वास्तव में ऐसे लोगों के लिए अंग्रेज़ी एक जैक की तरह काम करता है जिसके सहारे वे अपने विश्वास का पहिया ऊपर उचकाकर व्यक्तित्व का पंचर बनाते हैं। लेकिन देखा गया है ऐसे लोगों का हिंदी और अंग्रेज़ी पर समान अधिकार होता है यानी दोनों भाषाओं का ज्ञान चौपट होता है उनका।

सवाल:- हिंदी दिवस पर आपके विचार?
जवाब:- हमें तो भइया ये खिजाब लगाकर जवान दिखने की कोशिश लगती है। शिलाजीत खाकर मर्दानगी हासिल करने
का प्रयास। जो करना हो करो¸ नहीं तो किनारे हटो। अरण्यरोदन मत करो। जी घबराता है।

सवाल:- हिंदी की प्रगति के बारे में आपके सुझाव?
जवाब:- देखो भइया¸ जबर की बात सब सुनते है। मज़बूत बनो-हर तरह से। देखो तुम्हारा रोना-गाना तक लोग नकल करेंगे। तुम्हारी बेवकूफ़ियों तक का तार्किक महिमामंडन होगा। पीछे रहोगे तो रोते रहोगे-ऐसे ही। हिंदी दिवस की तरह। इसलिए समर्थ बनो। वो क्या कहते हैं:- इतना ऊंचे उठो कि जितना उठा गगन है।

सवाल:- आप क्या ख़ास करने वाले हैं इस अवसर पर?
जवाब:- हम का करेंगे? विचार करेंगे। खा-पी के थोड़ा चिंता करेंगे हिंदी के बारे में। चिट्‌ठा/लेख लिखेंगे। लिखके थक जाएंगे। फिर सो जाएंगे। और कितना त्याग किया जा सकता है-- बताओ?


गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

शिक्षा मंत्री परमार ने सच क्या बोला, हंगामा हो गया

राजनीति भी अजीबोगरीब चीज है। नेता झूठ बोले तो बवाल और सच बोल जाए तो हंगामा। इधर कुआं, उधर खाई। नेता बेचारा जाए कहां? तभी तो बुजुर्गों ने कहा है कि बोलने से पहले तोलना चाहिए, मगर जुबान है कि दातों से बचने-बचाने के चक्कर में फिसल ही जाती है। और जुबान फिसल जाए तो राजनीति भी पसर जाती है। अपने पूरे रंग दिखाती है। हाल ही उच्चा शिक्षा मंत्री बने दयाराम परमार के साथ ऐसा ही हुआ। उन्होंने इतना भर कहा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अच्छे नेता तो हैं ही, अच्छे जादूगर भी हैं। नेता लोगों की मति भ्रमित करने में माहिर होता है तो जादूगर नजरों को। गहलोत में दोनों ही गुण हैं। इसी कारण चालीस साल से राजनीति में जमे हुए हैं और दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने में सफल हुए हैं। अब भला इसमें परमार ने गलत क्या कह दिया। वे खुद भी यही सवाल कर रहे हैं कि उन्होंने कुछ गलत कहा क्या?  सब जानते हैं कि गहलोत जादूगर घराने से हैं और कांग्रेस हाईकमान पर जादू किए हुए हैं, वरना दुनियाभर के विवादों के बाद भी मुख्यमंत्री पद पर कैसे बने रह सकते थे? कदाचित ऐसा भी हो कि कुछ तुतला कर बोलने के कारण हाईकमान उनमें बच्चे जैसी मासूमियत और सच्चाई समझ कर माफ करता रहा हो। वे पूरे दो-ढ़ाई साल तक शातिर और खांटी नेता सी. पी. जोशी के हर वार को खारिज करते रहे, तो जरूर में उनमें कोई कला ही होगी। और कोई होता तो कब का धराशायी हो जाता।
खैर, बात चल रही थी परमार की। असल में वे बूंदी में कन्या महाविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष के शपथ ग्रहण समारोह में नेताओं के अच्छे गुण बता रहे थे। लगे हाथ गहलोत के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने को उनको भी आदर्श नेता बताने के चक्कर में ऐसा कह बैठे, मगर उनके इस बयान को लेकर हंगामा हो गया। इसे इस अर्थ में लिया गया कि गहलोत धोखा देने में माहिर हैं। हालांकि दयाराम परमार दिल के बड़े साफ आदमी हैं और उन्होंने नेताओं के सर्वोपरि गुण मति भ्रमित करने को ही गिनाया था, मगर यदि उनका मतलब धोखा देने में माहिर होना भी निकाला जाए तो इसमें गलत क्या है? वैसे भी मति भ्रमित करने और धोखा देने में फर्क ही क्या है? मति भ्रमित करने के मतलब भी यही है कि जो है, उससे ध्यान हटा कर कुछ और दिखाना और धोखा देने का मतलब भी यही है। फर्क सिर्फ इतना है कि मति भ्रमित करना कुछ साफ-सुथरा तो धोखा देना कुछ घटिया शब्द है। यानि मूल तत्व वही है, मगर चेहरा अलग-अलग है। कॉलेज की छात्राओं को वे यही सिखा रहे थे कि यदि अच्छा नेता बनना है तो गहलोत की तरह लोगों की मति भ्रमित करना सीख लें। इसमें उन्होंने गलत क्या कह दिया? यह एक सच्चाई ही है। नेता वही कामयाब है जो जनता को वैसा ही दृश्य दिखाए जो उसके अनुकूल होता हो। क्या यह कम बात है कि गहलोत ने पूरे तीन साल तक कांग्रेसियों की मति भ्रमित करके रखी और राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर लॉलीपोप देते रहे। और मजे की बात है कि कोई चूं तक नहीं बोला। भले ही परमार का मकसद गहलोत को धोखेबाज कहना न हो, मगर चूंकि इन दिनों नेताओं पर शनि की महादशा है, इस कारण अर्थ का अनर्थ निकाला जाता है। अल्पसंख्यक विभाग और वक्फ राज्य मंत्री अमीन खान के साथ भी तो यही हुआ था। उन्होंने राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील की तारीफ करने के चक्कर में वह सब कह दिया जो संभांत समाज में नहीं कहा जाता। नतीजतन उन्हें पद गंवाना पड़ा था। माफी भी मांगनी पड़ी। वो तो उनकी शराफत देखते हुए और मुसलमानों की नाराजगी को दूर करने के लिए उन्हें फिर से मौका मिला गया।
वैसे एक बात है, राजनीति में बड़बोलापन तकलीफ ही देता है। पूर्व शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल को भी यही बीमारी थी। बड़बोलेपन के कारण उन्हें कई बार विवाद से गुजरना पड़ा था। वे इतने विवादित हो गए कि आखिर पर से हटा दिए गए। यह एक संयोग ही है कि नए शिक्षा मंत्री परमार भी इसी बड़बोलेपन से ग्रसित हो गए। ये तो पता नहीं कि इस पद के साथ ही कोई चक्कर है, या दोनो वाकई बड़बोले हैं, मगर शिक्षा, ज्ञान और समझदारी देने वाले महकमे के मंत्री ही नासमझी क्यों कर रहे हैं, ये समझ में नहीं आ रहा।
-tejwanig@gmail.com

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

बदकिस्मती बिकती है, खरीदेंगे?

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वह उठा और एक छोटी कैंची ले आया। उसने कैंची से प्यूपा का छेद बड़ा कर दिया। तितली आराम से बाहर आ गई। आदमी उत्सुक उसे उड़ते देखने को बैठा रहा, लेकिन वह नहीं उड़ी। उंगली से उड़ाने की कोशिश पर वह बस हल्के से हिल डुलकर रह गई, उड़ नहीं पाई...

सीजेरियन प्रसव यानी बच्चे के लिए सुरक्षित। मां को भी प्रसव-वेदना से मुक्ति। यह भ्रम व्यापकता से फैलाया गया है। जनसाधारण को यही बताने के लिए आज की मीटिंग थी। एक छोटी फिल्म दिखाई गई। एक प्यूपा दिखा जिसमें अंदर से छेद कर तितली निकलने की कोशिश कर रही थी। पास बैठा एक आदमी गौर से तितली की यह चेष्टा देख रहा था। बार बार कोशिश के बावजूद भी तितली बाहर नहीं निकल पा रही थी। आदमी को दया आई। वह उठा और एक छोटी कैंची ले आया। उसने कैंची से प्यूपा का छेद बड़ा कर दिया। तितली आराम से बाहर आ गई। आदमी उत्सुक उसे उड़ते देखने को बैठा रहा, लेकिन वह नहीं उड़ी। उंगली से उड़ाने की कोशिश पर वह बस हल्के से हिलडुल कर रह गई, उड़ नहीं पाई।

तितली नहीं उड़ पाई, क्यों कि आदमी ने जो दया की थी वह प्रकृति-प्रतिकूल क्रिया थी। तितली को प्यूपा से निकल ने के लिए जो मशक्कत करनी पड़ती है वह प्रकृति नियत सप्रयोजन है। इस दौरान तितली को जो जोर लगाना पड़ता है उस से उसका रक्त बह कर उसके पंखों में आ जाता है जिससे बाहर आने के तुरंत बाद वह उड़ने में सक्षम हो जाती है। उसी तरह प्रसव के दौरान गर्भपथ से गुजरने की मषक्कत में शिशु के शरीर में प्रकृति नियत ऎसे परिवर्तन होते हैं जो उसे असुरक्षित परिवश से लड़ने की क्षमता देते हैं।

दबाव के कारण शिशु के शरीर में केटाकोलामिन नामक पदार्थ स्त्रावित होते हैं। इनसे लिवर में संग्रहित ग्लाईकोजन ग्लुकोस में बदल जाता है जो शीघ्र-ऊर्जा की आवश्यकता पूरी करता है। शिशुु के फेंफड़ों में स्थित गर्भजल अवशोषित हो जाता है जिससे आक्सीजन एक्सचेंज सुगम हो जाता है। सीजेरियन प्रसव में यह सब नहीं होता अत: प्रसवोपरांत अगर कुछ गड़बड़ हुई तो शिशु उससे पार पाने में सक्षम नहीं होता। इसके अतिरिक्त सीजेरियन के तुरन्त बाद नाल बांध कर काटना भी प्रकृति विरूद्ध होता है। प्लेसेन्टा (आंवल) में स्थित रक्त नवजात के शरीर में नहीं पहुंचता।

सीजेरियन प्रसव। तुरन्त नाल बांध बच्चा बालचिकित्सक के हवाले। अस्पताल की नवजात सघन इकाई में देख रेख। बच्चा देखने में स्वस्थ। बड़ा हुआ। पढ़ने भेजा। सीखने में कमजोर, लनिंüग डिसेबिलिटी (ऑटिज्म) का षिकार। इसका कोई और कारण नहीं मिला। दूसरा बच्चा मंद बुद्धि। उसमें भी इसका और कोई कारण नहीं मिला। मां बाप का दुख सहज ही समझा जा सकता है। सीजेरियन प्रसव की बढ़ती दर के साथ इन विकालांगताओं की दर बढ़ती जा रही है। आधुनिक व्यवासायीकृत चिकित्सा में अकारण होते सीजेरियन प्रसवों की यही त्रासदी है। दुर्भाग्य यह कि त्रासदी, अनजाने में, लोग अच्छा खर्च कर मोल लेते हैं।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

एक मुलाकात के 80 बरस

20वीं सदी के दो महापुरूषों के मिलन की ऎतिहासिक घटना को स्विटजरलैंड निवासी दिसम्बर महीने में बड़े धूमधाम के साथ मना रहे हैं। यह वर्ष स्विटजरलैंड के एक छोटे से कस्बे के लिए गौरव का वर्ष है, जब 6 दिसम्बर 1931 को नाबेल विजेता महान साहित्यकार रोम्यां रोला और महात्मा गांधी की मुलाकात हुई थी। यहां उल्लेखनीय है कि रोमां रोलां महात्मा गांधी के सत्य ओर अहिंसा के दर्शन से इतने प्रभावित थे कि बिना उनसे मिले ही उनके बारे में एक किताब "महात्मा गांधी" लिख डाली थी जिसका प्रकाशन 1924 में हो गया था।

जब रोमां रोलां को इस बात का पता चला कि महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन में भाग लेन आ रहे हैं तो उन्होंने गांधी जी से मिलने की आतुरता जाहिर की । गांधी जी भी इतने प्रभावित थे कि उन्होंने उनसे मिलने का फैसला कर लिया। लेकिन जिस दिन गांधी जी उनके छोटे से कस्बेे के स्टेशन पर उतरे तो रोमां रोलां उनसे मिलने नहीं आए। एक क्षण को गांधी जी को आश्चर्य हुआ लेकिन बाद में पता चला कि रोमां रोला दमे के मरीज हेाने और भयंकर बारिश हो जाने के कारण, वे उन्हे स्टेशन पर मिलने नहीं आए। लेकिन इसके बाद वे 6 दिसम्बर से लेकर 11 दिसम्बर तक उनके अतिथि बन कर रहे।

जब तक गांधी जी उनके घर पर रहे उन दोनों के बीच विश्व की राजनीति से लेकर ईश्वर, सत्य और अहिंसा जैसे दार्शüनिक विषयों पर मात्र पांच दिनों में 15 घंटे की बातचीत हुईं रोम्या रोलां को गीता का श्लोक का पाठ सुनना अच्छा लगता था। रोला को संस्कृत के मंत्र के उच्चारण का संगीत तथा राम और शिव को लेकर उसकी व्याख्या अच्छी लगती थी। शॅाल लपेटे गांधी और लांग कोट में लदफदे रोला की तस्वीरो को वहां के तमाम अखबारों में इन दिनों ढ़ूंढ़ा जा रहा है।

रोमां रेालां की छोेटी बहन मेडेलिन रोलां ने, जो स्वयं एक लेखिका थी, लिखा था कि "जब तक गांधी जी रहे तब तक उनके कमरे की खिड़की के सामने एक युवा संगीतकार सांझ ढलते ही वायलिन बजाना शुरू कर देता। इसके साथ ही बायलिन बजाते हुए बच्चों की एक भीड़ जमा कर लेता। एक जापानी कलाकार गांधी जी से जुड़ी सभी घटनाओं के स्कैच बनाता रहता।

और गांधी जी स्वयं स्थानीय समाचार पत्र के संवाददाताओं से घिरे रहते।" गांधी जी की विदाई को लेकर स्वयं रोमंा रोलां ने पियानो बजा कर गांधी जी को सुनाया था। आश्चर्य की बात यह है कि आठ दशको के बाद भी वाउद कस्वे के निवासी इस ऎतिहासिक मिलन की याद करते हुए जश्न की तैयारियां अभी से करने लगे हैं। इस जश्न को 6 दिसम्बर से लगभग सप्ताह भर तक वहां के लोग मनाते रहेंगे।