बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

एक छलावा-सा

एक छलावा-सा
4 जुलाई 1942 को जन्मे कन्हैयालाल भाटी की अनुवादक के रूप में विशेष ख्याति रही है, मगर उनकी कहानियां भी कथ्य व शिल्प की दृष्टि से अनूठी हैं. साहित्य अकादमी व गुजरात सरकार से अनुवाद के लिए पुरस्कृत भाटी की एक राजस्थानी कहानी हमलोग के पाठकों के लिए...

जोधपुर स्टेशन पर एक-दूसरे को आमने-सामने देख कर अचरज में दोनों बोल उठे तुम? जेठ की तपती दोपहर का वक्त था। सपना को मुंबई जाना था, जबकि त्रिलोक हावड़ा से आई गाड़ी से उतरा था। स्टेशन पर भीड़ के बीच दोनों सुध -बुध खोकर खड़े थे। आसपास शोर-शराबे से अनजान स्टेशन के बीचोबीच इस तरह खड़े रहने से आने-जाने वाले मुसाफिरों क ो दिक्कत हो रही थी, पर उनको सुनने का वक्त कहां था।

सपना की गाड़ी के रवानगी का वक्त हो चुका था। दोनों चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे। आखिर त्रिलोक सपना को हाथ पकड़कर उसे स्टेशन के बाहर एक रेस्टोरेंट में ले गया। चाय मंगवाई और दोनों चाय की चुस्कियां लेने लगे। त्रिलोक चाय की चुस्की लेते बोला, "तुम ठीक तो हो ना? मैं तो तुम्हें देखकर बावरा ही हो गया। कितना वक्त बीत गया उन बातों को, पर स्टेशन पर मुझे देखकर तुम गले आ पडी...।" "नहीं, नहीं, तुम गले पड़े हो मेरे।" सपना ने मुस्कराते हुए त्रिलोक को बीच में टोका, "लग तो ऎसे रहा है जैसे कल ही हम मिले हो, वैसे तो हमें मिले बहुत साल हो गए।"

"हां, लगभग पन्द्रह वर्ष हो गए होंगे।" सपना बोली।
"तुम्हें कितनी अच्छी तरह याद है-पन्द्रह वर्ष। एक युग बीत गया, है ना सपना?" त्रिलोक बोला, "तुमने विवाह कर लिया क्या? बाल बच्चे भी होंगे? आज यहां कैसे? कहां जा रही हो?" "थोड़ा धीरज रखो, जल्दबाजी मत करो, बारी-बारी से पूछो। तुम्हारी जल्दबाजी वाली आदत अभी तक पहले जैसी ही है। तुम्हें रतौंधी हुई है क्या? तुम्हारी आंखों के सामने बैठी हूं। तुम्हें मेरी गोद में दीख रहे है बच्चे। जो पूछ रहे हो, तुम्हारे बच्चे-बच्चे हैं क्या? बेतुकी बातें मत किया करो। तुम्हें पता होना चाहिए कि मैंने अभी तक विवाह नहीं किया है।

तुम तो जानते ही हो रोजमर्रा के काम में आदमी के सामने कितनी कठिनाईयां आती है। जीव एक और जंजाल बहुत। आदमी जीवन में आगे बढ़ना चाहता है, पर उसे वक्त कहां मिलता है? और वक्त भी कितना चंचल है, इधर-उधर देखते है तब तक कितना आगे निकल जाता है। जो वक्त की कीमत समझता है, वही दिनोंदिन आगे बढ़ सकता है। "खैर छोड़ो इस बात को। अब तू बता कि काम क्या करती है? मतलब ऎसा कौनसा काम है जिससे तुम्हें वक्त ही नहीं मिलता? त्रिलोक बड़ी उत्सुकता से उसे देख रहा था, पर सपना खिड़की से बाहर वृक्ष की डाली पर बैठे तोता- मैना के जोड़े को एकटक निहार रही थी।

"मैं यहां एक कॉलेज में व्याख्याता हूं। अब तुम खुद अंदाज लगा लो कि बड़े शहरों की दौड़-भाग की जिन्दगी में वक्त कैसे बीत जाता है।"
"क्या बात करती हो।" त्रिलोक उतावला सा बोला, "बधायजै।" सपना अब त्रिलोक को बड़े गौर से देख रही थी। उसका चेहरा लाल हो गया, बधाई की बात सुनकर।

"तुमने तो खूब तरक्की कर..." त्रिलोक बोला, "मैं तुम्हारी सारी बात समझ गया। पर अब बता कि तुम छुटि्टयां मनाने कहां जा रही हो?"
"मैं मुंबई जा रही हूं। मेरा वहां जाना बहुत जरूरी हो गया है क्योंकि एक ही कॉलेज में पढ़ाते-पढ़ाते बोर हो गई हूं। त्रिलोक, तुम क्या कर रहे हो आजकल? मैंने तो बस सेहत सुधारने का ही काम किया है।" त्रिलोक मन ही मन सोच रहा था कि यदि इसे इतना आसान काम नहीं मिला होता तो ठीक रहता। फिर तो मैं उसे पूछ लेता कि तुम अभी भी मुझे चाहती हो क्या? पर अब, ना भई ना, अब यह बात पूछनी ठीक नहीं। यह मेरी बात को अभी हंसी में टाल देगी पर बाद मैं जरूर मखौल उड़ाएगी। सपना उसकी बात को अनसुना करती बोली, "तुम क्या काम कर रहे हो अभी?"

"मैँ", त्रिलोक धीरे से बोला, "अभी मेरे भाग भी जगे हुए हैं। मैं पहले जो काम करता था उसे छोड़ दिया है। अब मैं एक मिल में मैंनेजर हूं। मुझे यह काम करते लगभग चार साल हो गए।" सपना उसकी बात को ध्यान से सुन रही थी पर इसके साथ उसकी नजरें त्रिलोक की अंगुली में विवाह की अंगूठी ढंूढ रही थी। मगर उसकी अंगुली में अंगूठी नहीं थी। अब सपना का मन गुजरे वक्त की खिड़कियों में झांक रहा था। आज से पन्द्रह वर्ष पहले दोनों के बीच "ब्रेक-अप" हो गया था। एक छोटी-सी बात पर दोनों के मन में खटास आ गया और अचानक दोनों की प्रीत का हार टूट गया। उसके बाद दोनों अब तक मिल नहीं सके थे। वह उस वक्त मोटर मिस्त्री का काम सीख रहा था।

उसकी ओछी कमाई, कपड़ो में तेल की बदबू पर सपना खूब कटाक्ष करती कि जीवन में कुछ अच्छा काम कर के दिखा। पहले सफल आदमी तो बन, फिर मैं दूसरी बात पर विचार करूंगी। वो कितनी नादानी का वक्त था। बात खिंचती गई और दोनों उलझ पड़े। वैसे उन दोनों का झगड़ा करने का कोई मन नहीं था। पर इस झगड़े से आई खटास को वे मिठास में नहीं बदल सके और आपस में मिलने-जुलने के अभाव में कुछ नहीं कर पाए। इन हालातों में भी सपना सोचती रहती कि त्रिलोक कुछ बन कर दिखाए।

वह बोली, "वक्त ने हमारा साथ दिया और हम दोनों ने सफलता हासिल की। यह हमारे लिए खुशी की बात है।" यह कहने के साथ- साथ सपना मन में सोचती रही कि त्रिलोक की उम्र तो पक गई मगर अभी तक कितना खूबसूरत व आकर्षक लग रहा है। यह इतनी तरक्की नहीं करता तो ठीक रहता। तभी तो मैं उसे पूछ सकती कि हमारे बीच हुए झगड़े को तुम अभी तक भूले नहीं क्या? क्या तुम अब भी मुझे चाहते हो? पर अब किस मुंह से पूछूं। तभी त्रिलोक बोला, "अरे, मैं तो बिना मतलब तुम्हारा वक्त खराब कर रहा हूं। तुम्हारी सैर-सपाटे की छूियां शुरू हो गई है।" वह इसी तरह की बातें करता रहा, पर सपना के चेहरे के सामने देखने की हिम्मत नहीं कर सका। पता नहीं क्यों?" "नहीं रे, मैं तो तीन वाली गाड़ी से रवाना हो जाऊंगी और वैसे देखा जाए तो मैं ही तुम्हारा कीमती वक्त बरबाद कर रही हूं। तो ठीक है, तुम्हारा कोई जरूरी काम होगा या फिर किसी से मिलना-जुलना होगा।"

"तुम इस बात की चिंता मत करो। मुझे यहां से लेने गाड़ी आ जाएगी। मैं लम्बा सफर करता हूं तब गाड़ी घर पर ही छोड़कर आता हूं। आजकल टे्रफिक की हालत तो तुम्हे पता ही है। घर पहुंचे तब तक आदमी थक कर अधमरा हो जाता है। "तुम्हारा कहना सोलह आना सही है। मैं भी यही कहना चाहती हूं।" फिर सपना त्रिलोक की आंखों में झांक कर बोली, "तुमने विवाह कर लिया या फिर अंगूठी और घरवाली को घर छोड़कर मुसाफरी करके आए हो?" यह बात कहते ही दोनों जोर-जोर से हंसने लगे, तो रेस्टोरेंट के लोगों को बड़ा अटपटा लगा।

त्रिलोक बोला, "नहीं, मैंने अभी तक विवाह नहीं किया है। इसमें भी राज है, कोई अड़चन है। बात ऎसी है कि मैं जिसे चाहता हूं , वैसी तो मुझे संसार में ढूंढने पर भी मिली नहीं और जो मुझे चाहती है, वह मेरी तरफ झांकना नहीं चाहती। फिर इसके लिए समय भी तो चाहिए।" इतना कहने के बाद वह मन में सोच रहा था कि यदि मैं इसे कह दूं कि तुम्हें अभी तक भूल नहीं सका हूं और आज पन्द्रह वर्ष बीत गए हैं, पर कोई महिला मुझे नहीं डिगा सकी है। इसे ये सारी बातें कैसे कहूं? अब वक्त आगे निकल गया है। हां, अब बहुत देर हो गई है। यह मेरी बात की हंसी उडाएगी।

इसकी वह हंसी आज तक मेरे कानों में गूंज रही है। उधर सपना के मन में भी यही भाव उठ रहे थे। उसके मन में लोर उठ रहे थे कि मुझे त्रिलोक को कह देना चाहिए कि मैं आज तुम्हारे इशारे पर चलने को तैयार हूं। मेरे जीवन में जब कोई दूसरा आदमी आया, मैंने हमेशा उसकी तुलना त्रिलोक से करती रहती। मैंने यह पक्का इरादा कर रखा था कि जीवन साथी हो तो त्रिलोक सरीखा, पर मुझे इस जैसा कहीं नजर नहीं आया। पर अब उसे यह बात कहने का कुछ मतलब नहीं है। आज यह अच्छी इज्जतदार नौकरी कर रहा है। सब बातों से सुखी है। अब तो ये मेरी बातों का मखौल ही उडाएगा। भले ही मुंह से नहीं बोले, मगर मन में तो सोचेगा कि अब तुमसे क्या लेना-देना। छोड़ो इस बात को और भूल जाओ मुझे। अंत में दोनोे अलग-अलग शब्दों में एक ही बात सोचते रहे।

"अपना जीवन सफल हुआ। मान-सम्मान, धन-दौलत वगैरह जो हम चाहते थे वो मिल गया।" त्रिलोक सिगरेट के कश खींचता गया और ये बाते सोचता रहा। सपना धीरे-धीरे लस्सी के घूंट गले में उतारती रही। त्रिलोक बैठा बैठा सपना को देखता रहा कि उसे उसकी आंखों के पास हल्की सी सलवट दिखी, पर वह सलवट उसकी खूबसूरती में इजाफा ही कर रहा था। सपना की गाड़ी का वक्त होने वाला था। त्रिलोक सपना को साथ लेकर स्टेशन पहुंचा। दोनों एक-दूसरे के सामने नहीं देख रहे थे। थोड़ी देर वे दोनों बिना बोले खड़े रहे। केवल आने-जाने वाले यात्रियों को देखते रहे। कुछ समय बाद गाड़ी आ गई। सपना गाड़ी में बैठ गई, त्रिलोक ने उसका सामान सीट के नीचे रख दिया।

अभी तक दोनों नजरें नहीं मिला पा रहे थे। उनका बोलने का मन हुआ कि अब तो तुम मुंह से बोलो, सच कहो। पर त्रिलोक गाड़ी से उतर गया। सपना ने डब्बे में बैठे विदाई की धुन में हाथ हिलाया। जैसे ही गाड़ी स्टेशन से आगे निकली वह तुरंत दूसरे डिब्बे में जाकर बैठ गई । अब वह अखबार की ओट में मोरनी की तरह आंसू टपकाने लगी और मन में सोचा कि मैं कितनी मूर्ख हूं। जब मैं अपने भले की नहीं सोच सकी तो दूसरों के बारे में कैसे सोच सकती हूं? मैंने झूठ की ओट क्यों ली, मैं उसे सच बता देती तो क्या बिगड़ता बल्कि कुछ समाधान ही निकलता।

मैंने उसे साफ-साफ क्यों नहीं कहा कि मैं एक सेल्स गर्ल हूं। मेरी वही पुरानी नौकरी है, एक छोटी सी दुकान में, पर ये सारी बातें कैसे कहती? मेरे मन में डर बैठा हुआ है कि वह मेरी बातों को हंसी-मजाक में टाल देगा। अब तो वह बड़ा आदमी बन गया है। और नहीं तो कम से कम उसका पता तो लेना चाहिए था। ये मेरी कितनी नादानी है। इधर त्रिलोक स्टेशन से बाहर निकलकर बस-अaे की तरफ गया। बस की टिकट खिड़की के आगे कतार में खड़ा हो गया । मकानोें का काम चल रहा था। वहां पहुंच गया। अपना परिचय दिया, "मैं क्रेन का ड्राइवर हूं।"

"हूं.. कल कहा रह गए थे तुम?" खैर। सुपरवाइजर, इसे काम बता दो और सोने-उठने का कमरा दिखा दो। कल से काम पर लगना है।" त्रिलोक को सपना की याद सताने लगी। सपना की गाड़ी दौड़ती जा रही होगी।"

3 टिप्‍पणियां:

Sanju ने कहा…

बहुत प्रशंसनीय पोस्ट है दिनेश जी आपकी
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

बेनामी ने कहा…

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avanti singh ने कहा…

bahut hi achi post hai