रविवार, 22 अप्रैल 2012

मेरा बचपन

खिला एक फूल फिर इन रेगिस्तान में.
मुरझाने फिर चला दिल्ली की गलियों में.
ग्रॅजुयेट की डिग्री हाथ में थामे निकल गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......

खो गया इस भागती भीड़ में वो.
रोज़ मरा बस के धक्कों में वो.
दिन है या रात वो भूल गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........

देर से रात घर आता है पर कोई टोकता नहीं.
भूख लगती है उसे पर माँ अब आवाज लगाती नहीं.
कितने दिन केवल चाय पीकर वो सोता गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........

अब साल में चार दिन घर जाता है वो.
सारी खुशियाँ घर से समेट लाता है वो.
अपने घर में अब वो मेहमान बन गया
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........

मिलजाए कोई गाँव का तो हँसे लेता है वो.
पूरी अनजानी भीड़ में उसे अपना लगता है वो.
मैं आज फिये बचपन मैं गया तो उदास होता गया..
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......

न जाने कितने फूल पहाड के यूँ ही मुरझाते हैं..
नौकरी के बाज़ार में वो बिक जाते है.
पत्तों पर कुछ बूंदें हैं, उन बूंदों में जीवन है
कुछ आवाजें हैं गूँज रहीं है
क़दमों तले रौंदा गया जो उस सूखे पात में भी जीवन है
पानी मेरी आँखो का बिखर गया
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......

दिनेश पारीक



23 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

तथ्य पूरक |

Kailash Sharma ने कहा…

महानगर के जीवन में असहनीय अकेलेपन की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...

Unknown ने कहा…

बहुत बढ़िया

Kewal Joshi ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति.

Udan Tashtari ने कहा…

Yahi hai mahanagariya jiwan ka satya..

Rohit Singh ने कहा…

बता तो बिल्कुल सही लिखी है भाई. पर इतना उदास होना अच्छी बात नहीं..नए शहर को अपनाने की कोशिश तो करो...हर जगह रिश्ता नहीं दोस्ता ढूंढों ..शहर अपना लगने लगेगा..

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

waah bahut badhiya padhte padhte mere raugte khade ho gye matmik sachchai kavita ke bhane....

मनोज कुमार ने कहा…

हम अधुनिक हो गए हैं और भूल रहे हैं अपनी सभ्यता और संस्कृति और परंपराएं।

डॉ टी एस दराल ने कहा…

पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़े होने में कुछ तो खोना पड़ता है ।
महानगर में कामकाजी युवक की व्यथा को बहुत सुन्दर से उजागर किया है ।

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

आधुनिकता की कीमत....

Dr Xitija Singh ने कहा…

कड़वा सच दर्शाती रचना ...

Sumit Madan ने कहा…

nice. :)

Crazy Codes ने कहा…

sach ko kavita mein halke shabdo se baandhkar gajab kee kavita likhi hai aapne...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत बढ़िया दिनेश जी....
सार्थक लेखन के लिए बधाई....

अनु

virendra sharma ने कहा…

GOOD PORTRAIT OF MONEY ORDER CULTURE OF AN UNEMPLOYED YOUTH.TRANSLITREATION NOT SHOWING.

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

आज के जीवन का सटीक वर्णन, कितना बचपन यूँ ही खो जाता है शहर की भीड़ में. बहुत अच्छी रचना, बधाई.

Suman ने कहा…

sarthak satik chitran.......

Rakesh Kumar ने कहा…

कमाल की प्रस्तुति है आपकी.
मार्मिक,दिल को छूती हुई,
कचोटती हुई.

प्रस्तुति के लिए आभार आपका.

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

महानगर के बिना काम भी चलता नहीं,और व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक पहचान गँवा बैठता है -त्रिशंकु बना-सा कहीं बीच में अटक जाता है!

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति...
सार्थक लेखन...

dasarath ने कहा…

बहुत सुंदर

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

बढ़िया संवेदनशील रचना....

Coral ने कहा…

बहुत खूब !