शनिवार, 22 दिसंबर 2012

लकीरें और तक़दीरें


लकीरें और तक़दीरें
हाथ में कोई किताब लिए बैठा हूँ.
पन्ने पलटते हुए उँगलियाँ कहीं थम जाती हैं
और तब सबकी तरह वो पढने लग जाता हूं,
जो किताब में लिखा ही नहीं.
किसी दिन हाथ की किताब में उलझा था.
लकीरें जाँचने व तक़दीरें बांचने की कोशिश कर रहा था.
शायद किसी कशिश या कशमकश में रहा होऊं .
किताब चार लकीरों से जीवन जगत का हाल बताती थी -
-जिंदगी की लकीर, जो हाथ में भी वक्त के साथ नीचे ढलती जाती है.
-दिल की लकीर, एक छोर से दिल से मिलने सी आती है, मगर बीच राह में मुड कर ऊपर चढ जाती है.
-दिमाग़ की लकीर, जो जिंदगी के साथ ही शुरू होती है, मगर जिंदगी और दिल के बीच लक्ष्मण रेखा की तरह बिछ जाती है.
-किस्मत की लकीर, जो वहाँ से शुरू होती है
जहाँ जिंदगी की लकीर खत्म होती है
मगर
दिमाग़ की लकीर को काटकर दिल को छूने की खातिर बढती जाती है.
अजीब है,
आदमी ने दिमाग़ के रास्ते तक़दीर को गढा है
और
तक़दीर है कि दिल के रास्ते गुजरना चाहती है.
सोचता हूं,
जब बचपन था, हाथ पर कितनी तस्वीरें बनाईं,
क्या उससे कोई तक़दीर बनी होगी.
युवा हुआ, तब नदी तट पर बैठ जाने कितने पत्थर उछाले
क्या उनसे घिसकर कोई लकीर मिटी होगी.
और
अब जब प्रौढ़पन में माथे पर लकीरें पडने

हाथों के खुले रहने का वक्त आया,
तब लकीरें जुटा-मिटा रहा हूं.
कहीं किसी घर के द्वार पर महावर लगे हाथों की छाप लगी है.
हाथों के शुभत्व को दीवार पर उकेरने की कोशिशकी गई है.
उस शुभत्व के पार कोई सुना सा स्वर गूँज रहा है -
"मेरे रब हर तदबीर कर देखा
मिट न सकी दूरी नजदीकियों की.
खेल खेल में उसने ही खींच दी थी,
कोई तिरछी सी गहरी लकीर कोई."
तब जाना,
सब ओर वही तस्वीरें है.
घर के बाहर खुली दीवारों पर हाथों में खिली लकीरें हैं
और
घर के भीतर घिसी लकीरों से बंदी हुई तक़दीरेंहै

कोई टिप्पणी नहीं: