एक सदी का युद्ध : स्त्री
कई दिनों से सामान बांधे , रेल का टिकेट मेरे पास है…. जाना चाहती थी मै, ऐसी ही यात्रा पर क्यूँ नहीं निकल जाती आज पैर चौखट से निकलते ही नहीं कई बार समझाया, अपनी खुद की व्यथा पर रोई , खुद पर चीत्कार की, जाना ही नियति है, लेकिन पैर ही नहीं उठते मेरे रात का खाना टेबल पर है कपडे सारे धुले हुए अलमारी में…. जाने की सारी तैयारी, पिछली रात को कर ली थी मैंने, फिर क्यूँ खड़ी हूँ मैं , भावशून्य आशंकित, किसका इंतज़ार है, मैंने कितने फैसले सुने, और आज एक फैसला नहीं कर सकती नहीं कर पा रही हूँ, चौखट पार ….. नहीं तोड़ पा रही हूँ मोह की जंजीर, हाथ थामे, कई अनदेखे सपने सूटकेस में बंद, अन्दर आये थे इस चौखट के, बहार तो सिर्फ मुझे जाना है, सारे बीते सालों का मंज़र, मुठी में बंद किये, खड़ी हूँ , आज खुद से नाराज़, हालात से खफा इतनी देर से क्या सोच रही हूँ मै, शायद, पांच बज गए है चाय बना लेती हूँ……………… चौखट पार कर जाती तो….. जीत जाती एक सदी का युद्ध !!!!
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