रविवार, 3 अप्रैल 2011

मनुहार




Pariwar Special article
उस रात मैं रेलवे प्लेटफॉर्म पर गाड़ी के आने का इंतजार कर रहा था। गाड़ी एक घंटा लेट थी और समय गुजारने के लिए मैं एक बैंच पर बैठा था। मेरी तरह अनगिनत यात्री गाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे। मैंने ध्यान दिया, बहुत से लोग बैंचों पर बैठे थे। कुछ नीचे दरी-चादर बिछाकर लेटे, कुछेक बैठे थे। कुछ लोग अपने परिचितों, मित्रों के साथ खड़े बतिया रहे थे। कुछ इधर से उधर टहल रहे थे। कुछ लोग चाय-बिस्किट के ठेले के पास खड़े थे और अपनी ठंड दूर कर रहे थे।  दो कुली ठंड से सिकुड़े बैठे बीड़ी पी रहे थे।

मैंने घड़ी की ओर ध्यान दिया, साढ़े दस बज रहे थे। गाड़ी के लिए एक घंटे का समय गुजारना था। ठंडी हवाएं शरीर में तीर की तरह चुभने लगी थीं। मैंने बैग से ऊनी टोपा निकालकर पहन लिया। ठंड की चुभन कुछ कम हुई। लगा, ठंडी हवाओं के चल जाने से ठंडक बढ़ी है। लोगों पर इसका असर दिखाई दे रहा है। वैसे भी पूस-माघ की रातें अघिक ठंडी होती हैं। पर मुझे लगा इस साल कुछ अघिक ठंड है। रेलवे पटरी के उस पार नजर गई। देखा, धुएं की तरह घना कोहरा छाया है। उनके बीच जलते हुए विद्युत बल्ब अंगारों की तरह लगे। दूर एक अलाव से उठती आग की लौ दिखाई दी। ऎसा लगा, कुछ लोग अलाव जलाकर बैठे हैं। मैंने भी बैग में से ऊनी शॉल निकालकर कंधों पर डाल लिया। गाड़ी के लेट होने से घर पहुंचने में देर हो जाएगी, इस विचार से बेचैनी बढ़ गई।
सहसा घंटी सुनकर मेरा ध्यान अपने मोबाइल फोन की ओर गया। 


देखा, बहू निशा का फोन है। उससे बातें करने लगा, 'हां बोलो बेटी, क्या बात है?' उसने पूछा, 'पापा, कहां हो, घर कब लौट रहे हो?' मैंने बताया, 'इंदौर रेलवे स्टेशन पर हूं। गाड़ी का इंतजार कर रहा हूं। गाड़ी एक घंटा लेट है। इसलिए घर लौटने में देर हो जाएगी।' निशा ने चिंता भरे स्वर में कहा, 'ओह्ह पापा, गाड़ी लेट है तो बस से आ जाइए। ठंड कितनी तेज है!' मैंने कहा, 'मैंने टिकट ले लिया है, इसलिए ट्रेन से ही आऊंगा। तुम मेरी चिंता मत करो। खाना खाकर आराम करो।' यह कहकर मैंने फोन बंद किया और वापस जेब में रख लिया। विचार आया, बहू बड़ा ध्यान रखती है। सोनू बेटी के ब्याह के बाद बहू निशा ने उसका स्थान ले लिया है। मेरी सुख-सुविधा का पूरा ध्यान रखती है। मन में उसके प्रति स्नेह भाव जाग्रत हो गए। फिर मेरा ध्यान मेरे पास बैठे सज्जन की ओर गया। साठ-पैंसठ वष्ाü के वयोवृद्ध व्यक्ति। घंटी की आवाज सुन वे जेब से मोबाइल फोन निकालकर किसी से बातें करने लगे।   

'नहीं...नहीं... मैं घर नहीं लौटूंगा।... जहां इच्छा होगी चला जाऊंगा। बेटा, तुम रहो, तुम्हारी बीवी रहे घर में। मेरी क्या जरूरत है?...तुम्हें जरूरत है, झूठी बात है क्योंकि आजकल तुम भी बीवी का पक्ष लेते हो। उसकी गलती पर भी उसे कुछ नहीं कहते। ...और तुम्हारी बीवी के ताने सुन-सुनकर मैं परेशान हो गया हूं। वह मुझे बोझ समझती है। इसलिए मेरा घर छोड़ देना ही ठीक है।... तुम दोनों रहो मजे से।...और सुनो, मैं जा रहा हूं...मुझे ढूंढ़ने की कोशिश मत करना और न मुझे फोन लगाना।' इतना कहकर उन्होंने अपना मोबाइल फोन बंद कर दिया। उनका चेहरा देखकर लगा बहुत नाराज हैं। परिवार से नाराज होकर घर छोड़ रहे हैं। घर से दूर कहीं निकल जाना चाहते हैं।... मैं सोचने लगा, जब इंसान का मन अशांत हो।

 तब क्या बाहर शांति मिल सकती है? क्या यह इतना आसान होता है? क्या यह भटकाव की स्थिति नहीं है?...फिर लगा, मैं फिजूल ही एकपक्षीय बातें सोच रहा हूं। इन सज्जन को दोष्ा दे रहा हूं। हो सकता है वे अपनी जगह सही हों। उनके बारे में पूरी बात जानने की उत्सुकता हुई। पर अपरिचित होने की झिझक के कारण कुछ न पूछ पाया। कुछ देर में बातचीत की पहल उन्हीं की ओर से हुई। उन्होंने पूछा, 'भाई, गाड़ी कितनी लेट है?' मंैने बताया, 'एक घंटा लेट है। इससे अघिक लेट हो सकती है। आजकल गाडियां घने कोहरे के कारण लेट चल रही हैं। ' फिर उन्होंने पूछा, ' अच्छा ये बताओ, मालवा दिल्ली कब पहुंच जाती है? वहां से हरिद्वार-ऋ çष्ाकेश जाने के क्या साधन हैं?'

मैंने उन्हें जानकारी दी, 'मालवा सुबह दिल्ली पहुंच जाती है। वहां से हरिद्वार जाने के लिए ट्रेन है। बस स्टैंड से बहुत-सी बसें हरिद्वार-ऋ çष्ाकेश जाती हैं। टैक्सियां भी जाती हैं।' उन्होंने फिर पूछा, 'और यदि मुझे वैष्णोदेवी जाना हो तो?' 'तो भी आप मालवा से जाइए। यह जम्मूतवी तक जाती है। वहां से कटरा वैष्णोदेवी जाने के लिए बसें मिल जाती हैं।' वे चुप हो गए। ऎसा लगा कि उनके मानस में कशमकश की स्थिति है। कहां जाना है, इसका निर्णय नहीं ले पाए हैं। उनकी मानसिकता का कुछ आभास हो गया। उनके पास छोटा बैग था। लगा, उसमें जरूरी सामान होगा। ठंड से बचने के लिए कंबल आदि दिखाई नहीं दिया। लगा, यात्रा के दौरान इन्हें मौसम की तकलीफ सहनी होगी। सहसा एक वयोवृद्ध व्यक्ति ऊनी कंबल में लिपटे उनके सामने आकर खड़े हो गए। शायद उनके परिचित थे। बोले, 'अरे गजेंद्रजी आप यहां बैठे हैं?... मैं बड़ी देर से आपको ढूंढ़ रहा हूं।'

गजेंद्र ने जवाब नहीं दिया। दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। आगंतुक उनके पास बैठ गए और बोले, 'वैभव और सुधा को भी तुम्हारी चिंता है। उन्होंने फोन पर आपके बारे में बताया तो मैं सारा काम छोड़कर आपको ढंूढ़ने निकल पड़ा। बड़ी देर तक बस स्टैंड पर ढूंढ़ता रहा। वहां नहीं मिले तो यहां आया। अच्छा हुआ मिल गए।'

गजेंद्र कुछ नहीं बोले। आगंतुक ने समझाइश भरे शब्दों में कहा, 'भाईसाहब, नाराज होकर घर छोड़कर जाना ठीक नहीं है।' गजेंद्र बोले, 'सुनो गोकुलजी, आप मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें।' गोकुल ने पूछा, 'पर आप जाएंगे कहां?' गजेंद्र ने जवाब दिया, 'कहीं भी ...बहुत बड़ी दुनिया है।' गोकुल ने आत्मीयता भरे शब्दों में कहा, 'भाई, इस तरह घर छोड़कर जाना ठीक नहीं। आप घर-परिवार के मुखिया हैं। बच्चों पर आपके आशीर्वाद की छाया बनी रहनी चाहिए।' गजेंद्र ने बुझे हुए स्वर में जवाब दिया, 'नहीं, अब वह घर मेरा नहीं, आपकी बेटी और दामाद का है। उन्होंने मेरा मन दुखाया है। अब मैं वहां नहीं रहना चाहता। इस बारे में मैं किसी की बात नहीं सुनूंगा।' गोकुल ने कहा, 'पर आपको मेरी प्रार्थना सुननी होगी। मैंने आपसे रिश्ता जोड़ा है। अपनी बेटी दी है आपको। घर चलिए। उन्हें आपकी जरूरत है।'

गजेंद्र बोले, 'झूठी बात है। उन्हें मेरी कोई जरूरत नहीं। विशेष्ा रूप से सुधा को तो मेरी बिलकुल जरूरत नहीं। मुझे बोझ मानती है। जब देखो तब मुझे ताने देती है। मेरा अपमान करती है। मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करती है।... वैभव भी उससे दबता है। उसे कुछ नहीं कहता। भला मैं ऎसी बेइज्जती कब तक बर्दाश्त करूंगा?... इसलिए मेरा चले जाना ही ठीक है।'

गोकुल ने अचरज भरे स्वर में कहा, 'पर समधीजी, अब भी मेरी समझ में नहीं आया कि आप उनसे इतने नाराज क्यों हैं? सुधा किस बात के ताने देती है?' गजेंद्र ने गंभीर मुद्रा में जवाब दिया, 'वह पांच लाख रूपए लौटाने के ताने देती है जो शादी के समय आपने दिए थे।... देखो गोकुलदास, सच बात आप भी जानते हैं। शादी के पहले की बात याद करो। वैभव पढ़ाई पूरी करने के बाद बेरोजगार था। मैं नौकरी के बाद ही उसकी शादी करना चाहता था। आपने उसे सुधा के लिए पसंद किया। आपको ही उसे दामाद बनाने की जल्दी थी, इसलिए शादी पर जोर दिया। 

आपने शादी का खर्च उठाने की बात कही। इसके लिए पांच लाख रूपए दिए। ध्यान रहे, ये रूपए मैंने मांगे नहीं थे। आपने स्वेच्छा से दिए थे। शादी धूमधाम से हो गई। अब सुधा उन रूपयों को लौटाने की बात कहती है। मेरी हैसियत को लेकर ताने कसती है।... मेरे मान-सम्मान को ठेस पहुंचाती है। मैं एक पेंशनभोगी हैडमास्टर! जिंदगी भर स्वाभिमान से सिर उठाकर जिया हूं और मरते दम तक सिर उठाकर ही जिंदा रहना चाहता हूं।' गोकुल ने कहा, 'पर समधीजी, मैंने कभी उन रूपयों की वापसी की बात नहीं कही।'

गजेंद्र बोले, 'हां, आपने नहीं कही, पर आपकी बेटी तो कहती है।...वह चाहती है कि जैसे भी हो, मैं ये रूपए लौटाऊं?... अब आप ही बताएं मैं एक पेंशनभोगी आदमी। इतनी बड़ी रकम कैसे लौटाऊंगा?...और सवाल है क्यों लौटाऊं?... वैभव  ठीक से कमाता नहीं, इसलिए उसकी बात सुन लेता है.. पर मैं उसकी बात क्यों सुनूंगा? वह मेरी अवज्ञा करके सिरमौर बनकर रहना चाहती है। मैं उससे दबकर क्यों रहूं? इसलिए मैंने घर छोड़ने का फैसला कर लिया है गोकुलदासजी!'
कहते-कहते उनका गला भर आया। ह्वदय की पीड़ा और कष्ट के भाव उनके चेहरे पर उभर आए।

 गोकुलदास ने बड़ी विनम्रता से कहा, 'नहीं गजेंद्रजी ऎसा मत करो। मेरी बेटी में बचपना है। वह रिश्तों की गहराई और उसकी महत्ता को नहीं समझती। मैं उसे समझाऊंगा कि आपका सम्मान करे और उन रूपयों की बात कभी न करे। दरअसल अघिक लाड़-प्यार और सुख-सुविधाएं पाकर वह उग्र और अघिक स्वार्थी बन गई है। अहंकार के कारण वह दूसरों की भावनाओं को नहीं समझ पाती है। मैं उसे समझाऊंगा।... आप उसके कारण अपना घर- परिवार मत छोड़ो।'

गजेंद्र सिंह ने उनकी बातें ध्यान से सुनी। फिर कहा, 'पर मुझे नहीं लगता कि तुम्हारे समझाने से वह अपना स्वभाव बदल देगी। इसलिए अच्छा होगा, मुझे उनसे दूर जाने दो। मुझे मत रोको भाई!' गोकुलदास उनकी बातों से उदास हो गए। उन्होंने बुझे हुए स्वर में कहा, 'आपको मेरी बात का भरोसा करना चाहिए और घर लौट चलना चाहिए।' गजेंद्र चुप रह गए। कुछ देर ठहरकर गोकुलदास ने पूछा, 'अच्छा ये बताओ, फिलहाल जाओगे कहां?' गजेंद्र बोले, 'तीर्थ स्थानों पर जाऊंगा, मन को शांति मिलेगी। हरिद्वार-ऋ çष्ाकेश में गंगा किनारे रहूंगा। अपना जीवन सार्थक करूंगा।'

इस पर गोकुलदास बोले, 'तब तो मैं भी आपके साथ चलूंगा समधीजी।' गजेंद्र सिंह यह सुनकर चौंक पड़े। बोले, 'भला आप मेरे साथ क्यों चलेंगे? आपको यहां क्या तकलीफ है?  अपने सुख के संसार को छोड़कर मेरे साथ कष्ट भोगने क्यों चलेंगे? लगता है मेरे साथ मजाक कर रहे हैं?' 'मजाक नहीं, सही कह रहा हूं समधीजी।' गोकुलदास बोले, 'सवाल यह है कि गलती मेरी बेटी की है और सजा आप अकेले क्यों भोगेंगे? दरअसल गलती मेरी भी है। 

मैंने बेटी को पढ़ाया-लिखाया जरूर, पर उसे अच्छे संस्कार नहीं दे पाया। उसे परिवार में रहने के गुण और बड़ों के साथ सद्व्यवहार करने का सलीका नहीं सिखा पाया। यह सब इसी का परिणाम है। मैं उसे सही राह पर लाने के लिए आपके साथ चलूंगा। तभी उसकी आंखें खुलेंगी।...  बताएं आपने कहां का टिकट लिया है, मैं भी टिकट लेकर आता हूं।' गजेंद्र सिंह को लगा कि वे सचमुच ही उनके साथ जाने को तैयार हैं। उनके लिए अपना घर छोड़ने को तैयार है। मन में उनके प्रति आदर और प्रेम के भाव उमड़ आए। कुछ ठहरकर बोले, ' गोकुलजी, मुझे भरोसा है कि आप सुधा को समझाएंगे... आपकी मनुहार के शीतल जल ने मेरे क्रोध की आग को ठंडा कर दिया है।... हम किसी तीर्थ पर नहीं जा रहे हैं। अपने घर लौट रहे हैं।'

उधर गाड़ी के आने का संकेत हो गया। प्लेटफॉर्म पर यात्रियों के बीच हलचल बढ़ गई। मैं भी गाड़ी में जगह तलाशने की इच्छा से उठ खड़ा हुआ। दोनों समघियों के पास कहीं जाने के लिए टिकट नहीं थे। इसलिए वे गाड़ी आने के पहले ही प्लेटफॉर्म से बाहर जाने के लिए उठ खड़े हुए। मैंने देखा, दोनों बड़े निश्चिंत होकर प्लेटफॉर्म के बाहर अपने घरों की ओर लौट रहे हैं।

2 टिप्‍पणियां:

अभिषेक मिश्र ने कहा…

Sarthk rachna aur Sundar blog. Badhai.

बेनामी ने कहा…

Thanks for sharing this with us. i found it informative and interesting. Looking forward for more updates..