खिला एक फूल फिर इन रेगिस्तान में.
मुरझाने फिर चला दिल्ली की गलियों में.
ग्रॅजुयेट की डिग्री हाथ में थामे निकल गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......
खो गया इस भागती भीड़ में वो.
रोज़ मरा बस के धक्कों में वो.
दिन है या रात वो भूल गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........
देर से रात घर आता है पर कोई टोकता नहीं.
भूख लगती है उसे पर माँ अब आवाज लगाती नहीं.
कितने दिन केवल चाय पीकर वो सोता गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........
अब साल में चार दिन घर जाता है वो.
सारी खुशियाँ घर से समेट लाता है वो.
अपने घर में अब वो मेहमान बन गया
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........
मिलजाए कोई गाँव का तो हँसे लेता है वो.
पूरी अनजानी भीड़ में उसे अपना लगता है वो.
मैं आज फिये बचपन मैं गया तो उदास होता गया..
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......
न जाने कितने फूल पहाड के यूँ ही मुरझाते हैं..
नौकरी के बाज़ार में वो बिक जाते है.
पत्तों पर कुछ बूंदें हैं, उन बूंदों में जीवन है
कुछ आवाजें हैं गूँज रहीं है
क़दमों तले रौंदा गया जो उस सूखे पात में भी जीवन है
पानी मेरी आँखो का बिखर गया
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......
दिनेश पारीक
23 टिप्पणियां:
तथ्य पूरक |
महानगर के जीवन में असहनीय अकेलेपन की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...
बहुत बढ़िया
बढ़िया प्रस्तुति.
Yahi hai mahanagariya jiwan ka satya..
बता तो बिल्कुल सही लिखी है भाई. पर इतना उदास होना अच्छी बात नहीं..नए शहर को अपनाने की कोशिश तो करो...हर जगह रिश्ता नहीं दोस्ता ढूंढों ..शहर अपना लगने लगेगा..
waah bahut badhiya padhte padhte mere raugte khade ho gye matmik sachchai kavita ke bhane....
हम अधुनिक हो गए हैं और भूल रहे हैं अपनी सभ्यता और संस्कृति और परंपराएं।
पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़े होने में कुछ तो खोना पड़ता है ।
महानगर में कामकाजी युवक की व्यथा को बहुत सुन्दर से उजागर किया है ।
आधुनिकता की कीमत....
कड़वा सच दर्शाती रचना ...
nice. :)
sach ko kavita mein halke shabdo se baandhkar gajab kee kavita likhi hai aapne...
बहुत बढ़िया दिनेश जी....
सार्थक लेखन के लिए बधाई....
अनु
GOOD PORTRAIT OF MONEY ORDER CULTURE OF AN UNEMPLOYED YOUTH.TRANSLITREATION NOT SHOWING.
आज के जीवन का सटीक वर्णन, कितना बचपन यूँ ही खो जाता है शहर की भीड़ में. बहुत अच्छी रचना, बधाई.
sarthak satik chitran.......
कमाल की प्रस्तुति है आपकी.
मार्मिक,दिल को छूती हुई,
कचोटती हुई.
प्रस्तुति के लिए आभार आपका.
महानगर के बिना काम भी चलता नहीं,और व्यक्ति अपनी सांस्कृतिक पहचान गँवा बैठता है -त्रिशंकु बना-सा कहीं बीच में अटक जाता है!
बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति...
सार्थक लेखन...
बहुत सुंदर
बढ़िया संवेदनशील रचना....
बहुत खूब !
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