बुधवार, 8 दिसंबर 2010

All blogger member


मेरे प्यारे  दोस्तों ,
My last message against terrorists brought out a volley of criticism, and thus I withdrew the same. I am amazed to find the number of terrorist sympathisers in this country. I suppose it is natural. We love portraying ourselves as intellectuals who love democracy and freedom even if it means appeasing anti national and anti human elements. We love all this till the blow falls on our own families and friends. Sorry, I cannot love criminals. I am not so broadminded, nor am I a saint. I am a simple human being in whom anger flares up whenever and wherever she sees injustice and violence.

Secondly, as has happened before, my spiritual messages have been questioned and criticised from time to time. Even though I have always taken time out from a busy job and other work to be courteous to everyone, last night, I was accused of being rude and rough in my behaviour. And this has not been the first time. All this is not only killing the spontaneity within me, but is also making me extremely formal while talking to people. If I have to think a hundred times before posting anything to anyone, then there is no point in me being anywhere in any social network. Being a sensitive and emotional person who has throughout life acted spontaneously, all this is actually hampering my mental peace.

I am taking some time away and thus will be away from social networking till Christmas. I may or may not come back. Depends on many factors. I shall also not be available over the phone or through any other medium except the e-mail.

Wishing everyone a very happy winter and a great holiday season. God bless you all.

दिनेश पारीक
 दूरभाष नंबर ९१+९५८२५९८२४४






रविवार, 5 दिसंबर 2010

शोक संदेश

शोक संदेश
हमें अत्यंत दुःख के साथ सूचित करना पड़ रहा है कि प्रो. दिवाकर शास्त्री (अध्यक्ष वनस्थली विध्यापीठ) सुपुत्र स्व. हीरालाल जी शास्त्री (प्रथम मुख्यमंत्री, राजस्थान) का स्वर्गवास दिनांक 5-12-2010 को दोपहर 3:15 बजे जयपुर मे हो गया है, जिनका अंतिम संस्कार दिनांक 6-12-2010 को दिन के 11:00 बजे वनस्थली विध्यापीठ मे किया जायेगा |











शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

मेरी बिटिया की बाई की बाई

मेरी बिटिया की बाई की बाई

छोटी बिटिया की महरी बहुत कुशल है। एक्स्पर्ट या निपुण की कोटि में आती है। दो साल की नौकरी में वह 600 रुपये से 3000 रुपये की पगार व एक बच्चे की 800 रुपये प्रति माह की फ़ीस +पुस्तकें + वर्दी आदि पर पहुँच गयी है। उसका काम इतना अच्छा है कि बिटिया उसे झाड़ू पोछे व बर्तन साफ़ करने से शुरू कर घर की केयरटेकर तक ले गयी। हर कुछ महीने में उसकी पगार बढ़ती गयी और वह कुछ नयी जिम्मेदारी सम्भालती गयी। अब तो यह हाल है कि वह कहती है कि अब मेरी पगार मत बढ़ाना क्योंकि अब आपके घर में मेरे करने लायक और कोई नया काम नहीं बचा है।

बिटिया उसे घर की चाभी देकर जाती है। जब काम से घर लौट कर आती है तो चमचमाता, साफ़ सुथरा घर मिलता है। ऐसा लगता है जैसे उसके जाने के बाद किसी ने जादू से उसका घर चमका दिया हो।

पति द्वारा सताई गयी व छोड़ी गयी सरस्वती को आज इतना खुश व सफल देख बिटिया व मेरा मन बहुत खुश हो जाता है। पिछले साल ही तो जब उसे एक दुर्घटना में चोट लगी थी तो हमने उसकी सेवा की थी। छोटी सी चोट ऐसी बिगड़ी कि उसे औपरेशन कराना पड़ा। हाँ, उसने 800 रुपये देकर महरी रख ली थी।

अब जबकि वह ठीक हो चुकी है तब भी वह उस महरी को निकाल नहीं पायी है। कहती है कि उसे वह निकाल नहीं सकती, कि वह बुढ़िया है, कि उसे उसके बच्चों से मोह हो गया है। कि करने दो उसे भी काम ना! कि आप लोग मुझे इतना देते हो। कि इतना पाने का तो मैने स्वप्न भी कभी नहीं देखा था। अब मैं जितने भी नये घर पकड़ती हूँ केयरटेकर कहकर ही पकड़ती हूँ ना कि महरी कहकर और मेरी कमाई इतनी होती है कि मैं बहुत खुश हूँ।

बिटिया के घर का पुराना सोफ़ा,(उसका सामान कितना पुराना हो सकता है? उसकी उम्र ही क्या हुयी है?) लगभग सारा पुराना फ़र्नीचर उसके ही घर में है। ढेरों बर्तन आदि सब उसके ही घर पहुँचते हैं। किन्तु मुझे जो बात सबसे अधिक मोहित करती है वह है उसके पास भी महरी का होना।

कया बाई की भी बाई होना उन्नति है? जो भी हो मुझे प्रगति लगती है।

मार्केटिंग - कॉमेडी कथाकथन भाग-४/४

उस दुकान से बाहर निकलते वक्त बाहर सामने एक जुते की दुकान दिखी. वहां बोर्ड लगा था "एक के उपर एक फ्री' . अब दायें जुते के उपर बाया जूता फ्री ... या फिर बाये जूते के उपर दाया जुता फ्रि... या फिर एक पेअर के साथ दूसरी पेअर फ्री...ये उस दुकान मालिक को पुछने की मेरी प्रबल इच्छा हूई. लेकिन अभी अभी आये ताजा अनुभवसे मेरी उस दुकान में जानेकी हिम्मत नही बनी.

रस्तेसे जाते हूए अपनी झेंप छीपाने के लिये उस छाते को कभी जेबमें तो कभी कॉलर मे लटकाने की कोशीश करने लगा. गले मे लटकाते हूए एक विचार मेरे मन मे आया ... अरे यह तो जबरदस्ती गले पडा हूवा छाता है इसको और गले मे लटकाने की क्या जरुरत.

अनायास ही एक पतली गलीमें मेरा ध्यान गया. वहां कोने मे उस दिन मिला अंधा, लंगडा भिखारी मस्त खडा होकर सिगार पीता हूवा दिखाई दिया. इसका मतलब वह लंगडा नही था और शायद अंधा भी नही था. मुझे तो विश्वास ही नही हो रहा था. उसने हम सबको उल्लू बनाया था. उल्लू सी सुरत लेकर मै थोडा और आगे निकल गया . वहां रस्तेके किनारे लोगोंकी भीड जमा हूई थी. कभी कभी भीड ऐसे ही जमा हो जाती है. दो लोग जमा हो जाते है. वे दो क्यों जमा हूए ये देखने के लिये और तिन जाते है...और तिन के पिछे और छे... ऐसे मै भी भीड मे घुस गया... देखता हू तो उस दिन मिला दुसरा भिखारी जो "मेरी मां बिमार है' कहकर भिख मांग रहा था .. वह किसी वृध्द महिला का सर अपने गोद में लेकर जोर जोर से रो रहा था. वह महिला मर गई थी ... शायद उसकी मां थी. उस दिन कितनी विवशता से पैसे मांग रहा था बेचारा. उसको कोई समझ नही पाया था ... या फिर वह अपनी जरुरत की ठीक ढंग से मार्केटिंग नही कर पाया था.

इतने मे वह दुसरा झुठा लंगडा अंधा भिखारी लंगडता हूवा वहां आया. उसकी मौके की नजाकत को पहचानने की काबीलीयत तो देखो. झट से उसने एक कॅप उलटी की और लडखडाता हूवा " उसकी मां को जलाने को पैसे दो' करके भीख मांगने लगा ... ही इज अ परफेक्ट मार्केटींग मॅन ... यहां अगर कोई मार्केटिंग के लोग बैठे हो तो माफ कर देना भाई.

मै और मेरी बीवी मार्केटिंग निपटाकर घर लौट रहे थे. उस भिखारी की मां को मरे हूए 7 - 8 दिन हो गए होंगे. तो भी वह चित्र मेरी आंखो के सामनेसे हटते नही हट रहा था. उस झुठे लंगडे अंधे भिखारी ने सबको बेवकुफ बनाया था. जिसे असली जरुरत उसको किसीने भी पैसे नही दिए थे. आज इस भडकीले ऍड्वर्टाइज, भडकिले मार्केटिंग के युग में क्या सचमुछ अपनी समझ खत्म होती जा रही है. मै अपनी सोच में डूबा चला जा रहा था.

" वह कॉफी सेट बहुत ही सुंदर था है न?' मेरी बिवीने मेरी विचारोंकी श्रुंखला को तोडा.

मैभी अपने आप को नॉर्मल बतानेके प्रयास मे मजाक पर उतर आया.

" हां बहुत ही सुंदर था ... लेकिन एक चीज उस कॉफी सेट की सुंदरता बिगाड रही थी...' मैने कहा.

" कौनसी?' मेरी बिवीने पुछा.

" उसपर लगा हुवा प्राईज टॅग' मैने कहा.

थोडी देर अंधेरे मे हम चूपचाप ही चलते रहे.

" उधर देखो ... उधर गलीमें' मेरी पत्नी एक गली की ओर निर्देश करते हूवे बोली.

मैने उत्सुकतावश उस गली मे देखा. जहां उस दिन वह झूठा लंगडा भिखारी मजेसे सिगार पी रहा था. आज वहां दो लोग थे. वह झूठा लंगडा अंधा भिखारी और दूसरा जिसकी मां मरी थी वह. दोनो मजे से मस्त होकर सिगार पी रहे थे. जिसकी मां मर गई थी वह एक हाथ से सिगार पी रहा था और दूसरे हाथ से किसी राजा की तरह पैसे गीन रहा था

.... शायद वह मार्केटिंग सीख गया था.
--- The end---

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मार्केटिंग को जाना एक सुखद अनुभव है

बीवी के साथ मार्केटिंग को जाना एक सुखद अनुभव है. .. मतलब अपने अपने बिबी के साथ. इस बात से कोई भी इन्कार नही कर सकता ... खासकर अगर उनके बीवी के सामने पुछा जाए तो. 

मै और मेरी बीवी मार्केटिंग के लिए गए थे. जैसे की हमेशा होता है वह आगे चल रही थी और मै पिछे चल रहा था. कुछ लेने लायक है क्या यह मै देख रहा था. एक दुकान पर लगे एक इश्तेहार ने मेरा ध्यान खिंच लिया. 

लिखा था, " लहसून छिलने का यंत्र.... सिर्फ दस रुपए में ' "यंत्र' इस शब्द ने मेरी उत्सुकता बढाई ... वैसेतो आजकल किसी भी बात का यंत्र मील जाता है... दुकानमालीक के पास गया मैने उसे वह "यंत्र' दिखाने के लिए कहा. देखता हूं तो 6 इंच लंबी और 3 इंच परिघ की एक रबड की ट्यूब थी. मै उसे उलट पुलटकर देखने लगा. असल मे मै उस यंत्र को शुरु करने का बटन ढूंढ रहा था.

"अजीब बेवकुफ है ...' इस अविर्भाव मे उस दुकानमालीक ने वह ट्यूब मेरे हाथ से छीन लिया. अब वह दुकानमालीक उस यंत्र का मुझे डेमॉस्ट्रेशन देने लगा. उसने एक लहसुन ट्यूब मे डाला और वह उस ट्यूब को जोर जोर से रगडने लगा. अगर इतने जोर से रगडो तो साला लहसून छीलने के बजाय अपना हाथ ना छील जाये और इतने जोर से उस ट्यूब को रगडने की बजाय अगर डायरेक्ट लहसून को रगडो तो इतनी देर में कम से कम आधा किलो लहसून छील जायेगा अब "अजीब बेवकुफ है ...' इस अविर्भाव मे देखने की मेरी बारी थी. 

इतनेमें " अजी देखिए तो... कान के झुमके ... कैसे लग रहे है ' बाजू के दुकानसे मेरी पत्नीने कहा. मै वहा गया. मै थोडा अलर्ट होगया क्योंकी अब उस दुकानमालीक के मार्केटिंग स्कीलसे मेरी मार्केटिंग स्कीलका सच्चा इम्तेहान था. मैने उस दुकानमालीकसे दाम पुछा 

" दो सौ रुपए... आप है इसलिए देडसोमे देंगे' उसने कहा.

" आप है इसलिए ...' मैने उसे घुरकर देखा. मै उसे नही जानता था. हो सकता है वह मुझे जानता हो...

शायद उसने मेरे मन की बात भांप ली. 

" पिछले बार भी मैने आपसे जादा पैसे नही लिए थे' उसने कहा.

वह मुझे कितना जानता है यह मै समझ गया - क्योंकी मै पहली बार उसके दुकान मे गया था. 

लेकिन उसने वह बात इतने कॉन्फीडंस से कही थी की उसे कुछ कहने की बजाय मैने ही अपने आपको को समझाया की शायद गलतीसे वह मुझे कोई और समझ रहा हो. बात झुमकोंकी बोलू तो वह झुमके खरीदने की मेरी बिलकुल इच्छा नही थी. अब तक के अनुभवसे मै अपनी बीवीकी मानसीकता अच्छी तरह से समझ चुका था. मै अगर झुमकोंको खराब कहूं तो वह उसे जरुर खरीद लेगी. इसलिए मैने कहा " बहुतअच्छे है ... कसमसे आपको बहुत जचेंगे' 

" ठीक है ... मेरी बहन के लिए भी एक पेअर पॅक कर देना' उसने मुझे पैसे चुकाने के लिए इशारा करते हूए कहा. 

अब करने लायक कुछ नही बचा था. चुपचाप पैसे निकालकर मैने दुकानमालीकको दिए. शायद मेरे बिवी की मानसीकता पहचाननेमें मैने देर लगा दी थी. उसकी मानसीकता पहचानके पहले उसनेही मेरी मानसीकता पहचान ली थी. 

... to be contd