मंगलवार, 22 मार्च 2011

कैमरे में कैद होली

ये सारा  दर्शय  वृन्दावन और मथुरा  का है | जहाँ पर मुझे श्री कृष्ण और राधे की कृपा से दूसरी बार होली खेलने का शोभागय प्राप्त  हुआ है | 
श्री कुञ्ज बिहारी के दर्शन मात्र से पाप नष्ट हो जाते है |  मेने मेरे जीवन का दूसरी बार अद्भुत दर्शय  देखा | जो श्री हरी कृपा  के बिना संभव नहीं था  बस उनकी वृन्दावन , मथुरा बरसना गोकुल गोवर्धन धाम के कुछ दर्शय  दिखाना चाहता हु  
दिनेश पारीक   
 
दिनेश पारीक   



कैमरे में कैद होली
कैमरे में रंग था 
या रंग में था कैमरा

यह पता करना कठिन था
झर रहे थे रंग हाथों सेया बस रहे थे हाथ रंगों में रंग का त्यौहार था या 
हार में गूँथे हुए थे रंग
देखकर भी जान पानाउस समय मुमकिन नहीं था

कोई हीरामन कहीं अंदर बसा था
कोई हरियल सुआ हाथों पर जमा था
कोई पियरी उड़ रही थी कैमरे मेंकोई हल्दी बस रही थी उँगलियों में

रास्तों पर रंग बिखरे थे हवा मेंहर कहीं उत्सव की धारें आसमाँ में
खुशबुओं के थाल नजरों से गुजरते
और परदे पार चूड़ी काँच की
बजती खनक सी
इक हँसी...
जाती थी दिल के पार- गहरी
उस हँसी से लिपट पियरी
नाचती थी
उस हँसी में डूब हीरामन रटा करता था-
होली...

एक पट्टा कैमरे में और वह पट्टा गले मेंकैमरे में गले से लटका हुआ वह शहर सारा
कैमरे में कैद होली
होलियों में शहर घूमा 
रंग डूबा- कैमरा यों ही आवारा
कैमरे में कैद थी होली कि या फिर
होलियों में कैद था वह कैमरा
कहना कठिन था




---दिनेश पारीक 

यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!



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शनिवार, 12 मार्च 2011

सोच रहा हैं अरुणा शानबाग का बिस्तर


सोच रहा हैं अरुणा शानबाग का बिस्तर


अरुणा
मर तो तुम उस दिन ही गयी थी
जिस दिन एक दरिन्दे ने
तुम्हारा बलात्कार किया था
और तुम्हारे गले को बाँधा था
एक जंजीर से
जो लोग अपने कुत्ते के गले मे नहीं
उसके पट्टे मे बांधते हैं

उस जंजीर ने रोक दिया
तुम्हारे जीवन को वही
उसी पल मे
कैद कर दिया तुम्हारी साँसों को
जो आज भी चल रही हैं

उस जंजीर ने बाँध दिया तुमको एक बिस्तर से
और आज भी ३७ साल से वो बिस्तर ,
मै
तुम्हारा हम सफ़र बना
देख रहा हूँ तुम्हारी जीजिविषा
और सोच रहा हूँ

क्यूँ जीवन ख़तम हो जाने के बाद भी तुम जिन्दा हो ??

तुम जिन्दा हो क्युकी तुमको
रचना हैं एक इतिहास
सबसे लम्बे समय तक
जीवित लाश बन कर
रहने वाली बलात्कार पीड़िता का
उस पीडिता का जिसको
अपनी पीड़ा का कोई
एहसास भी नहीं होता

हो सकता हैं
कल तुम्हारा नाम गिनीस बुक मे
भी आजाये

क्यूँ चल रही हैं सांसे आज भी तुम्हारी
शायद इस लिये क्युकी
रचना हैं एक इतिहास तुम्हे

जहां अधिकार मिले
लोगो को अपनी पीड़ा से मुक्ति पाने का
उस पीड़ा से जो वो महसूस भी नहीं करते



आज लोग कहते हैं
बेचारी बदकिस्मत लड़की के लिये कुछ करो
भूल जाते हैं वो कि
लड़की से वृद्धा का सफ़र
तुमने अपने बिस्तर के साथ
तय कर लिया हैं
काट लिया कहना कुछ ज्यादा बेहतर होता

कुछ लोग जीते जी इतिहास रच जाते हैं
कुछ लोग मर कर इतिहास बनाते हैं
और कुछ लोग जीते जी मार दिये जाते हैं
फिर इतिहास खुद उनसे बनता हैं



एक बिस्तर कि भी पीड़ा होती हैं
कब ख़तम होगी मेरी पीड़ा
अरुणा का बिस्तर सोच रहा हैं
और कामना कर रहा हैं
फिर किसी बिस्तर को 
बनना पडे
किसी बलात्कार पीड़िता
का हमसफ़र



लेकिन
बदकिस्मत एक बलात्कार पीड़िता नहीं होती हैं
बदकिस्मत हैं वो समाज जहां बलात्कार होता हैं

बड़ा बदकिस्मत हैं
ये भारत का समाज
जो बार बार संस्कार कि दुहाई देकर
असंस्कारी ही बना रहता हैं

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

शादी की लड़ाई: बाहर टूटा विवाह के अपराधी को तोड़ने फेर्रेट


मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, चीन उर्ध्व प्रवृत्ति में तलाक के 7 साल के लिए विशेष रूप से 2010 की पहली दो तिमाहियों में, जोड़ों की 840,000 से अधिक जोड़े का तलाक राष्ट्रीय पंजीकरण संख्या में, लगभग 5,000 जोड़ों हर दिन तलाक.

तलाक और तलाक के जटिल सामाजिक समस्याओं, कोई संदेह नहीं है, एक कठिन शादी की रक्षा की लड़ाई की एक श्रृंखला के द्वारा लाया की इतनी बड़ी संख्या के साथ रही है आसन्न है इस के लिए शादी की रक्षा की लड़ाई है, इसलिए है कि अंततः प्रेमियों बन जीतने के लिए. आश्रितों, व्यापक चिंता का विषय है इस के लिए शादी की रक्षा, हम शादी तोड़ चाहिए लड़ाई जीतने के लिए नीचे अपराधी टूटा, केवल अपराधी को खोजने के लिए के लिए समस्या का उपाय..अपराधी शादी के टूटने में तो क्या यह शादी के विशिष्ट मामले में हारे के आसपास के कुछ विश्लेषण है?, वास्तव में, के कारणों का पता लगाना है कि वहाँ कई पहलू हैं मुश्किल नहीं:

1.कम गहराई को समझने, फ़्लैश शादी कड़वा भरवां
अब सब कुछ करने के लिए, चला जाता है एक कहावत है कि नहीं दक्षता के बारे में बात लगता है "समय धन है, दक्षता जीवन है" ठीक है इतने सारे लोगों को वास्तव में शादी बम बरसाना पर खेल रहे हैं, पुरुषों और महिलाओं नहीं दिख रहा है कुछ दिन रहने के लिए लाल जोश हो! चक्कर मस्तिष्क, तो लगन, प्यार, में गहराई से समझ और आदान प्रदान भी बदतर, करने के लिए मिठाई विकल्प के बजाय कि उस प्यार और खुशी के लिए भुगतान कर सकते हैं, पैसा नहीं शादी के बाद लंबे समय से परिणाम, या हनीमून खत्म नहीं करता है भी सोचने के लिए,मुसीबत के लिए अपनी पूरी हाथ, रिश्ते टूटने, शादी के एक को समाप्त करने आने के लिए.

2.सहिष्णुता पर्याप्त नहीं, जिम्मेदारी की भावना मजबूत नहीं है
Zhongsuozhouzhi, दो लोग एक साथ आते हैं पति और पत्नी के रूप में संबंधित नहीं है, ठोस, अमर प्रेम Hunyin, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों पक्षों ने पहले एक दूसरे को मिलनसार सीखना चाहिए, जो भी सहिष्णुता एक दूसरे की कमजोरियों सहित, एक ही समय दूसरे पक्ष पर है, परिवार, जिम्मेदारी के बच्चे की भावना है, ताकि जोड़ों धीरे चला सकते हैं अप वास्तव में मैच के लिए.और अब कई युवा लोगों को बुनियादी तौर पर केवल एक ही बच्चे हैं, यह ठीक इस क्षेत्र में गुणवत्ता का अभाव है, ठेठ सुविधा दंभ है, दूसरों को सिर्फ मुझे जाने, और मैं दूसरों को, मनोवैज्ञानिक के इस तरह के, न केवल जीवन के आराम नहीं करना चाहते के पहलुओं सन्निहित युगल विवाहित जीवन में प्रचुर मात्रा में हर जगह देखा जा सकता है,दो शब्दों की भावनाएँ हल्के और तीन वाक्यों को नहीं करता है एक आम भाषा, सहनशीलता की कमी, सहिष्णुता के बारे में अधिक बात करते हैं, जो वैवाहिक जीवन टूटने में एक घातक कारक करने के लिए अग्रणी है नहीं नहीं कर रहे हैं.

3.शादी के बाद व्यस्त कैरियर, कम प्रशिक्षण प्यार
कई युवा लोगों को हमेशा सोचा है कि शादी के बाद एक सौदा किया है, काम का दबाव, सामाजिक सर्कल चौड़ा, व्यस्त सारा दिन मनोरंजन सेवाओं के साथ युग्मित, भले ही घर में एक निस्तेज, या शराब का राज्य है धुआं आकाश काला, और नव स्थापित शादी के लिए रखरखाव, जानबूझकर या अनजाने में बाहर अन्य संदेह, बाएँ की भावनाओं के रूप में उपेक्षा, शादी उन्मुख संस्कृति की परवाह नहीं की की कमी के बीच गलतफहमी और समय के साथ स्वाभाविक रूप से होती है, शादी अनिवार्य रूप से संकट और दरारें को बढ़ावा मिलेगा.लिटिल वे जानते हैं भावनाओं को विकसित करने और विशेष आवश्यकता समेकित जारी रखने के लिए शादी में, विशेष रूप से, यह पूरी तरह पहला प्यार, पहला प्यार से अलग है, कई वास्तविक, झूठे, प्रत्येक तत्व है, पुरुषों और महिलाओं के बीच शादी को कवर नहीं कर रहे हैं वास्तविक जीवन है, यह एक दूसरे के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं पूरी तरह से संपूर्ण सत्य बिखर, तब भी जब आप एक दूसरे की कमियों को नहीं देख सकता है प्यार में हैं,तो, शादी के पांच साल के भीतर, शादी एक ही बीज बोने की तरह है, ध्यान से संरक्षित किया जाना चाहिए, पूरी तरह खिलने में धीरे - धीरे उज्ज्वल फूल करने के लिए इतनी के रूप में.

4.मज़ा बिना जीवन, नवीनता बदौलत परिवार
एक दूसरे को आकर्षित करने के लिए, जोड़ों के लिए उनकी पोशाक, शादी की सजावट जब नया घर बहुत खूबसूरत फैशन भी है पर ध्यान केंद्रित करने लगे हैं, लेकिन ठंडा शादी की गर्मी के साथ, कई जोड़ों को न केवल आसान जीवन के लिए जुनून शांत करने के लिए, और परिवार के वातावरण भी बहुत आसान है पर गिर लोकप्रिय, बहुत प्रभावशाली है कि सुश्री गायब हो गया था, और सुंदर लड़कों ठाठ चले गए हैं, या घर की सजावट, जब शादी भी समय कटाव और दृश्य थकान की वजह से बेरंग बिल्कुल रोमांटिक हो जाता है,समय बीतने के, जीवन और नए विचारों के रंग काफी शांत करने के लिए जमा उबाऊ और पुराने ढंग का, कठोर, और बेस्वाद हैं, भावनात्मक संकट में जिसके परिणामस्वरूप.

खुला अपराधी आसानी वैवाहिक संकट को जन्म, विवाह की रक्षा सही पर्चे होने के पहले दोनों एक दूसरे से बहुत, में से एक में गहराई को समझने के माध्यम से पुरुषों और महिलाओं के साथ सभी संपर्क के लिए किसी भी स्टाइलिश फ्लैश शादी मार्ग के लिए किसी भी समय लेने के लिए नहीं की कोशिश करो;. एक ही समय अपने ही साक्षरता का विकास और एक दूसरे को समायोजित करने के लिए शादी की जिम्मेदारी स्थापित करने के लिए कि शादी समझना अधिक समावेशी और जिम्मेदारियों है;शादी के बाद विशेष रूप से, दोनों पार्टियों के लिए भावनाओं का विकास जारी रखने के लिए, भावनाओं का कारण सही नहीं है, दोनों के प्यार और शादी के फूल पानी पत्नियों, लेकिन यह भी, हमेशा की तरह, पूर्व वैवाहिक प्यार के रूप में एक ही समय.

न केवल उपकरण के जीवन और अधिक ध्यान अपने कपड़ों पर होने के लिए, और घर की सजावट के अपरिवर्तनीय नहीं हैं, दृश्य थकान से बचने के लिए है, लेकिन रंगीन होना चाहिए, हर गुजरते दिन के साथ, इस शादी को एक अप्रत्याशित रोमांटिक और अतिरिक्त उपहार ले जाएगा, और यह है कि हाल ही में कई दोस्त बाड़ लाइन में भाग लेने के लिए ब्राउज़ Dulux सजावट डायरी गतिविधियों उनके अद्वितीय फैशन रंगीन घर सुधार से प्रेरणा इन डायरियों प्राप्त देखने के लिए मुश्किल नहीं हैउनके विवाहित जीवन भरा हुआ है, एक रोमांटिक है, है रंग की प्यार से भरा है, और वे मानते हैं कि सुख एक आश्चर्य से बना है, वे इस घटना में भाग लेने के आशा है एक, के लिए एक अप्रत्याशित रोमांटिक सबा जीत है जोड़े या तो के रूप में अन्य पुरस्कार, एक आश्चर्य की एक और खुश शादी जोड़ने के लिए,गृह सुधार उनकी डायरी, साथ ही उनके रोमांटिक शादी देखा वास्तव में सभी लोग ईर्ष्या करेंगे.

संक्षेप में, शादी के लिए समझ है, अधिक सहनशीलता, जिम्मेदारी, प्रशिक्षण और देखभाल की जरूरत की जरूरत है.

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सोमवार, 7 मार्च 2011

बेटी हूं मैं, कोई पाप नहीं


http://vangaydinesh.blogspot.com/बेटी हूं मैं, कोई पाप नहीं

भारत में लगातार बढ़ती जनसंख्या एक चिंता का विषय बनी हुई है विश्व में चीन के बाद भारत दूसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है जहां एक ओर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन का दवाब विकास की गति को बाधित कर रहा है वहीं दूसरी ओर भू्रण हत्या के कारण घटता लिंगानुपात समाज के संतुलन को बिगाड़ रहा है। भारत में कन्या भ्रूण हत्या का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है।सरकारी स्तर पर किए गए तमाम प्रयासों के बावजूद इसमें कमी नहीं आ रही है।
girl child 395x300 बेटी हूं मैं, कोई पाप नहींआजादी से पहले लड़किया मात पिता पर बोझ समझी जाती थी और पैदा होने के बाद ही उन्हे मार दिया जाता था लेकिन विज्ञान के बढते दायरे ने भ्रण हत्या को बढ़ावा दिया है भारत विश्व में के उन देशों में शामिल है जहां पर लिंगानुपात में भारी अंतर है लिंगानुपात से मतलब होता है प्रति हजार पुरूषों में महिलाओं की संख्या 1901 में भारत लिंगानुपात 972 जो कि गिरते गिरते 1991 में 927 हो गया1991 2001 में यह अनुपात 933 हुआ 2001 की जनगणना में लिंगानुपात की स्थिति ने इस बात पर बल दिया कि भारत में लिंग विरोधीसमाजिक व्यवस्था में परिवर्तन आ रहा है लेकिन इसी जनगणना में जब हम 0-6 वर्ष आयु के लिंग अनुपात में नज़र डालें तो सारी आशाएं चकनाचूर हो जाती है इस वर्ग में लिंगानुपात औऱ भी कम हो गया था जिससे इस बात का पता चलता है कि देश में लिंग भेद व्यवस्था कमजोर होने बजाये और फिर मुखर हो रही हैएक सर्वे के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष पांच लाख कन्या भू्रण हत्या होती है तथा पिछले दो दशक में एक करोड़ लड़कियां कम हो गई हैं।आलम यह कि लिंगानुपात का यह सामाजिक दुष्परिणाम पंजाब औऱ हरिय़ाणा जैसे राज्यों में सबसे अधिक है जहां युवकों का विवाह कठिन होता जा रहा है तो दूसरी तरफ पर्वी बिहारऔर पूर्वी उत्तर प्रदेश में लड़कियों के लिए भारी रकम खर्च कर उन्हे खरीदा तक जा रहा है खरीद कर लाई गई दुल्हनो को समाज औऱ परिवार दोनों जगहों पर ही सम्मान नहीं मिल पाता है यूनीसेफ के 2007के आंकड़ो पर यकीन करें तो लड़कियों की स्थिति को लेकर भारत का स्थान पाकिस्तान और नाइजीरिया से भी नीचे है।यूनीसेफ की इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में रोजाना 7000 लड़कियों की गर्भ में ही हत्या कर दी जाती है।देश में लिंग जांच औऱ कन्या भ्रूण हत्या एक बड़ा व्यवसाय बनकर उभरा है।विश्व की बेहतरीन तकनीकों का निर्माण करने वाली कंपनियों के लिए भारत अलट्रासाउंड़ मशीनों के व्यापार का एक बड़ा स्त्रोत बनकर उभरा है ।एक अनुमान है कि हर साल देश 300करोड से भी ज्यादा की मशीनें बाजार में बेज दी जाती हैं इन आधुनिक तकनीकों के चलते यह सुलभ हो गया है। आसानी इस बात का पता लगाया जा सकता है कि गर्भ में पल बच्चा लडका है या लडकी मध्य प्रदेश में सबसे कम लिंगानुपात वालें जिले मुरैना मे तो हर गली में इस मशीने आपको देखने में मिल जायेगी कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़ों को देखे तो यह प्रवृत्ति गरीब परिवारों के बजाए संपन्न घरों में अधिक है। महिलाएं चाहे जितनी भी शिक्षित हो जायें लेकिन परिवारिक दबाब और भावनाओं के चलते लडके औऱ लड़कियों में से उनकी पहली पसंद लड़के ही होते हैं इसके पीछे सबसे बड़ा कारण समाज में बेटे की मां होना अपनेआप में गर्व का विषय होता है जहां बेटी पैदा होने पर दिन रात के ताने सुनने पड़ते है बहीं बेटे होने पर बहूओं को सर आंखों पर बिटाया जाता है।साथ ही साथ भारतीयों के भीतर बैठी एक विकृति भी कन्या भ्रूण हत्या के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है जिसका सीधा तालुक्क मोक्ष प्राप्ति माना जाता है भारतीय रीति अनुसार ऐसा माना जाता है कि बेटा ही कुल को स्वर्ग का रास्ता दिखाताहै।
दो बच्चों की अनिवार्यता और कन्या भ्रूण हत्या
परिवार का आकर सीमित करने और छोटे परिवार की धारणा को प्रबल करने के उद्देश से सरकार द्वारा दो बच्चों के सिद्धात को लागू किया सबसे पहले यह राजस्थान में 1992 में फिर हरिय़ाणा 1993 उसके बाद मध्य प्रदेश 2000 (जिसे वापस लिया गया था और अभी इसके बारे में मुझे पता नही है कि स्थिति क्या है),उड़ीसा 1993 आदि में लागू किया गया इस नियम के चलते दो अधिक संतानों वाले माता-पिता चुनाव में उम्मीदवारी और पंचायत राज संस्थाओं की स्वायत्त शासन की आधारभूत इकाईयों यथा पंचायती राज संस्थान और स्थानीय नगरीय निकायों में किसी भी पद के लिए अयोयग्य करार दिया है( राजस्थाम में लागू है) इन राज्यों में इस फैसले ने भी कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपरोधों को प्रोसाहित ही किया हैएक सर्वे के अनुसार इन सिंद्धात की बजह से समाज में महिलाओं की स्थिति पहले से ज्यादा बदतर हुई है।इसमे जबरिया गर्भपात कन्या शिशुओं का परिस्याग लोगों राजनैतिक आकंक्षाओं की बलि चढती जा रही है। राजनैतिक महत्वकाक्षांओं की पूर्ति के लिए बालिकाओं के प्रति उपेक्षाभाव,पतियों द्वारा पत्नियों का परित्याग कलह और बेटे को ही पैदा करने का दबाब महिलाओं पर पड रहा है
निर्णय लेने की अधिकारी नहीं है महिलाएं
घर में खाना बनाने के लिए जहां84 प्रतिशत महिलाएं स्वयं निर्णय ले सकती है बहीं सामाजिक और रीतिगत मामलों में उन्हें निर्णय लेनेका अधिकार सिर्फ 40 प्रतिशत ही है।समाज में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा महिलाएं अपने पतियों की हिंसा की शिकरा होती है तो 49 प्रतिशत महिलाएं ही पुरूषों के मुकाबलें कार्यशीलहैं।समाजिक दबाब के चलते उनके कानों यह बात बार बार डाली जाती है कि बगैर बेटे को पैदा किये समाज में उन्हें सम्मानजनक स्थान नहीं मिल सकता है।हमें मिलकर इस सामाजिक बुराई से लडना होगा समय के साथ साथ लडके औऱ लड़कियों के बीच के भेद को मिटाना होगा नहीं तो कहीं लड़किया सिर्फ वेश्यालयों मे ही ना पैदा होने लगे और हमारा संभ्रात समाज अपनी ही सोच के चलते सिमट कर ना रह जाये इन हालातो में एक बात जरूर हमें समझ लेनी चाहिए कि .यदि हम बेटियां नहीं चाहेगें तो हमे बहुए भी नसीब नहीं होगीं
“यहां आने से पहले बेटी पूछती है खुदा से
संसार तूने बनाया, या बनाया है इन्सां ने
मारे वो हमको जैसे, हम उनकी संतान नहीं
डर लग रहा है कभी वापस भेज न दे वो हमें यहां से
कहा फिर उस खुदा ने कि भूल गया है इन्सां
जहां बेटी नहीं है बता वो कौन सा है जहां
वक्त एक ऐसा आएगा, ‘औरत’ शब्द रह न जाएगा
फिर पूछूंगा इन्सां से, अब तू ‘बेटा’ लाएगा कहां से”
दिनेश पारीक




रविवार, 6 मार्च 2011

कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ एक पहल


कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ एक पहल: आज इस कलयुग में कुछ लोग बेटी के जन्म को मुसीबत मानने लगे हैं और कन्या भू्रण हत्या का प्रचलन तेजी से बढ़ता चला जा रहा है। बेटी के पैदा होने पर घरों में मातम छा जाता है। सांझे चूल्हे और संयुक्त परिवार लगभग खत्म होते जा रहे हैं। हर एक रिश्ता सिर्फ और सिर्फ मतलब का रिश्ता बनता चला जा रहा है।
girl child enfanticide 300x232 कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ एक पहलवहीं आज कन्या भू्रण हत्या रोकने के लिये राम के इस देश भारत में एक जिला ऐसा भी है जिस में बसने वाले लोग खासकर युवा वर्ग आज जिस युग में जी रहे हैं, उसे रामराज कहना ही उचित होना। सोनभद्र जिले के राबर्टसगंज ब्लाक के छोटे-छोटे तीन गांव मझुवी, भवानीपुर और गइर्डगढ के 60 युवाओं ने एक मण्डली तैयार की है। मण्डली अपने गांव में होने वाली किसी धर्म और जाति की कन्या की शादी में टेंट, तम्बू से लेकर बर्तन भान्डे का काम खुद सभालती है।
इस समूह ने बड़े बड़े दानियों से दान लेकर नहीं बल्कि खुद अपने संसाधनों से शादी विवाह में काम आने वाले तमाम छोटे बडे़े साजो सामान जुटा लिये हैं। संगठन से जुड़े युवा लड़की के घर वालों को आर्थिक मदद देने के साथ-साथ मिनटों में हर सामान की व्यवस्था कर देते हैं।
इस युवा समूह के सदस्य शादी ब्याह के वक्त लड़के वालों की आव भगत और खाने पीने की व्यवस्था भी खुद ही देखते है। सन् 2002 में बने इन संगठन के द्वारा लाभान्वित कई ग्रमीणों का कहना है कि उन्हें बेटी की शादी में कोई भी परेशानी या भाग दौड़ नहीं करनी पड़ती।
यंू तो बेटी का विवाह एक सामाजिक परम्परा है लेकिन अगर ऐसी ही एक सोसायटी हम सब लोग भी मिलकर बना लें और आपस में एक दूसरे का हाथ बटाने लगें तो बेटियों की शादी हम लोग और अच्छे ढंग से कर सकते है। इन युवाओं की पहल और इन के इस जज्बे को पूरे देश को सलाम करना चाहिये और अपनाना चाहिये। आज इस दौर की जरूरत है इस अच्छी और आपसी प्रेम और भाईचारे को बढ़ाने वाली इस परम्परा की।
क्यों आज हम अपनी सभ्यता अपने आदर्शों और अपनी अपनी उन मजहबी किताबों के उन रास्तांे से भटकने लगे है जो हमें इंसान बनाती हैं और अच्छे और सच्चे रास्तों पर चलना सिखाती है। इंसान से मोहब्बत करना सिखाती है। शायद पैसे का लालच, समाज में मान सम्मान पाने का जुनून, अपने बच्चों के लिये राजसी सुख सुविधाओं का ख्वाब या फिर आज हमारे समाज में विकराल रूप धारण कर चुके दहेज के दानव के कारण हम कन्याओं को जन्म दिलाने से डरने लगे हैं जो कन्या भू्रण हत्या का मुख्य कारण हैं।
आज हम इंसान बनना क्यों भूलते जा रहे है, यह हम सब को सोचने जरूरत है क्योंकि इत्तेफाक से हम सब इंसान हैं। बेटियों से घर आंगन में रौनक है। ममता, प्रेम, त्याग, रक्षा बन्धन और न जाने कितनी परम्परायें जीवित हैं। कन्या भ्रूण हत्या पाप ही नहीं, देश और समाज के लिये अभिशाप है।

स्वच्छ सन्देश: भारत में मुस्लिम समाज ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ की लानत से सर्वथा सुरक्षित है.

स्वच्छ सन्देश: भारत में मुस्लिम समाज ‘कन्या भ्रूण-हत्या’ की लानत से सर्वथा सुरक्षित है.

शनिवार, 5 मार्च 2011

स्त्री का अस्तित्व और सवाल


एक सवाल अपने अस्तित्व पर,
मेरे होने से या न होने के दव्न्द पर,
कितनी बार मन होता है,
उस सतह को छु कर आने का,
जहाँ जन्म हुआ, परिभाषित हुई,मै,

अपने ही बनाये दायरों में कैद!
खुद ही हूँ मै सीता और बना ली है,astitva 223x300 स्त्री का अस्तित्व और सवाल
लक्ष्मण रेखा, क्यूंकि जाना नहीं
है मुझे बनवास, क्यूंकि मै
नहीं देना चाहती अग्निपरीक्षा…..
इन अंतर्द्वंद में, विचलित मै,
चीत्कार नहीं कर सकती, मेरी आवाज़
मेरी प्रतिनिधि नहीं है,
मै नहीं बता सकती ह्रदय की पीड़ा ,
क्यूंकि मै स्त्री हूँ,
कई वेदना, कई विरह ,कई सवाल,अनसुलझे?
अनकहे जवाब, सबकी प्रिय, क्या मेरा अपना अस्तित्व,
देखा है मैंने, कई मोड़ कई चौराहे,
कितने दिन कितनी रातें, और एक सवाल,
सपने देखती आँखें, रहना चाहती हूँ,
उसी दुनिया में , क्यूंकि आँख खुली और
काला अँधेरा , और फिर मैं, निःशब्द,
ध्वस्त हो जाता है पूरा चरित्र, मेरा…….
कैसे कह दूँ मैं संपूर्ण हूँ,
मुझमे बहुत कमियां है, कई पैबंद है……….
मै संपूर्ण नहीं होना चाहती,
डरती हूँ , सम्पूर्णता के बाद के शुन्य से
मै चल दूंगी उस सतह की ओर………
ढूंढ़ लाऊँगी अपने अस्तित्व का सबूत…
अपने लिए, मुझे चलना ही होगा,
मैं पार नहीं कर पाउंगी लक्ष्मण रेखा,
मैं नहीं दे पाऊँगी अग्निपरीक्षा,
मैं सीता नहीं,
मैं स्त्री हूँ,
एक स्त्री मात्र!

चौखट पर चीख, चौराहे पर चीरहरण


सदियों से महिलाओं के साथ जैसा दमन और अत्याचार हुआ है वह अकल्पनीय है.सीता और पारवती की आर में पुरषों की साज़िश अब खुलकर सामने आने लगी है.एस देश में स्त्रियों की दशा बद से बदतर होती जा रही है. यह हमारे व्यवहार में आ गया है की हमने स्त्री दमन को सामाजिक स्वरुप दे दिया है. पुरूषों की भोगवादी मानसिकता स्त्रियों को मुक्त देखना पसंद नहीं कर पाती. लेकिन यह भी सही हैकि इसी भोगवादी मानसिकता ने स्त्रियों के लिए रास्ता तैयार किया है और स्त्रियाँ चौखट से निकलकर चौराहें पर आ गयीं है.
breaking free चौखट पर चीख, चौराहे पर चीरहरण पुरुष ने शायद ही कभी इस बात पर ध्यान दिया हो की महिला वैश्याओंकी मंडी क्यूँ अस्तित्व में बनी रही है.लेकिन “मेल स्ट्रिप” का बाज़ार लगता है तो हमारे भौतिक आचरण में सडन आने लगती है.क्यूँ भाई? ऐसा क्यूँ ? क्या स्त्री वैश्या की खोज नहीं कर सकती? देखने सुनने में यह बात भले ही थोड़ी असहज लगे लेकिन यह चेतना के उस धरातल की आजादी है जहाँ सच में बराबरी का बोध होता है.जहाँ स्त्री अपने से अपने बारे में निर्णय लेने के लिया स्वतंत्र है.
यह भी सच है की तथाकथिक आज़ादी का सबसे ज्यादा फ़ायदा बाज़ार उठा रहा है , पुरुष समाज में सदियों से दमित स्त्री देह की लालसा फुटकर बहार निकल रही है. ऐसे में बाज़ार को लगता है की स्त्री देह को जितना बेच सको बेच लो. हमारे आस पास ऐसी घटनाएँ घाट रही है जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते. स्त्री खुले आम अपने देह का पर्दर्शन कर रही है. सुन्दरता का बाजारीकरण हो चूका है.लड़कियां इस पूरी व्यवस्था में यह भूल जाती है की उनका शारीर बाज़ार में रखी कोई वस्तु नहीं है जिसका उद्देश्य किसी और के आनंद और भोगने का माध्यम है.अचानक एक गाना याद आ गया” एक ऊंचा लम्बा कद दूजा सोनी भी तू हद” आगे और भी है. गाने में हीरो कारन बता रहा है की मई क्यूँ तुम पर मरता हूँ. तुम पर मरना की वजह तुम्हारा दिल; दिमाग ,चरित्र नहीं केवल तुम्हारा रूप है. एक ऑब्जेक्ट में तब्दील होती लड़कियां और उपभोक्ता होते पुरुषों की मानसिकता को बनाने में हम सभी का योगदान है.
हम स्त्रियाँ ये नहीं जानती की हम एक व्यवस्था के पंजे में जकड़ी है जो हमे गुलाम करने के नित्य नए तरीके इजाद कर रहा है.जब वे चूल्हे चौखट तक सिमित थी तब भी और अब भी जब वे देहरी के बहार कामयाब होने निकली हैं ,तब भी वे धीमी गति से गुलाम होती जा रही है.जैसा की मधुर भंडारकर की फिल्म फैशन में दिखाया गया है की मॉडल होना एक प्रोफेशन है जिसमे आप केवल एक वस्तु है. एक शारीर जिसे सोचने नहीं दिया जाता जो धीरे धीरे सोचना बंद कर देता है. स्त्री देल aaj  उत्पाद में तब्दील होती जा रही है. इस ब्रेन वश से अज अगर नहीं बचा गया तो स्त्री मुक्ति सदियों दूर हो जाएगी.बार्बी और जीरो फिगर को आदर्श मानने वाली स्त्रियाँ अगर चिन्तनशील है, विचारवान है, अपनी अस्मिता के प्रति सचेत हैं , स्वयं को इन्सान से वस्तु में तब्दील होने देना नहीं चाहती तब शायद चिंता का विषय नहीं है ……………पर क्या वाकई ऐसा है? शायद नहीं.

एक सदी का युद्ध : स्त्री

कई दिनों से सामान बांधे , रेल का टिकेट मेरे पास है…. जाना चाहती थी मै, ऐसी ही यात्रा पर क्यूँ नहीं निकल जाती आज पैर चौखट से निकलते ही नहीं कई बार समझाया, अपनी खुद की व्यथा पर रोई , खुद पर चीत्कार की, जाना ही नियति है, लेकिन पैर ही नहीं उठते मेरे रात का खाना टेबल पर है कपडे सारे धुले हुए अलमारी में…. जाने की सारी तैयारी, पिछली रात को कर ली थी मैंने, फिर क्यूँ खड़ी हूँ मैं , भावशून्य आशंकित, किसका इंतज़ार है, मैंने कितने फैसले सुने, और आज एक फैसला नहीं कर सकती नहीं कर पा रही हूँ, चौखट पार ….. नहीं तोड़ पा रही हूँ मोह की जंजीर, हाथ थामे, कई अनदेखे सपने सूटकेस में बंद, अन्दर आये थे इस चौखट के, बहार तो सिर्फ मुझे जाना है, सारे बीते सालों का मंज़र, मुठी में बंद किये, खड़ी हूँ , आज खुद से नाराज़, हालात से खफा इतनी देर से क्या सोच रही हूँ मै, शायद, पांच बज गए है चाय बना लेती हूँ……………… चौखट पार कर जाती तो….. जीत जाती एक सदी का युद्ध !!!!

गुरुवार, 3 मार्च 2011

क्या सचिन कुत्ता है???

एक खबर है, चौंकाने वाली है, गुस्साने वाली है…यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस पहलू से इस खबर को पढ़ते और समझते हैं। मुझे तो यह खबर चुभ गई, इसलिए मैं इसका पुरजोर विरोध करता हंू। सोच रहा हंू कि अगर मेरे पास भी एक कुत्ता होता तो मैं उसका नाम किसके नाम पर रखता। आप भी सोचिए कि क्या यह सही है???

दरअसल मामला है क्रिकेट के गॉड कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर से जुड़ा हुआ। हुआ यंू कि एशिया में चल रहे वल्र्ड कप क्रिकेट टूर्नामेंट के दौरान साउथ अफ्रीका के बॉलिंग कोच विंसेंट बन्र्स ने एक बयान देकर हम सब भारतीयों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। उन्होंने कहा कि वह सचिन को सबसे ज्यादा मिस करते हैं…चौंकिए मत..यह हमारा सचिन नहीं बल्कि उनका कुत्ता है। उफ…यह क्या हो रहा है…मेरे क्रिकेट के भगवान के नाम पर ही इस कोच को कुत्ते का नाम सुझाई दिया। अरे अगर रखना ही था तो राजा के नाम पर रखा होता, कलमाडी के नाम पर रखा होता। ऐसे तमाम घोटालेबाज और भ्रष्टाचारी हैं, जिनके नाम पर वह अपने कुत्ते का नाम रख सकते थे, लेकिन…। अब इस खबर का दूसरा पहलू यह है कि एक इंडियन ही बन्र्स को क्यों मिला। अगर रखना ही था तो वह पोंटिंग के नाम पर अपने कुत्ते का नाम रखते या फिर अपने शॉन पोलाक के नाम पर रख लेते। हालांकि बन्र्स ने जब मीडिया की तरेरती आंखे देखी तो उन्होंने बात घुमा दी, बिल्कुल बॉल को स्विंग करने के स्टाइल में। उन्होंने जवाब दिया कि दरअसल वह सचिन के सबसे बड़े फैन हैं, इसलिए अपने कुत्ते का नाम सचिन रखा है। अरे साहब, फैन थे तो अपने बच्चे का नाम सचिन रखते, कुत्ते का क्यों रखा? हम बेचारे, हमारी सरकार भी बेचारी…

हर दिन हम भारतीयों को विदेशियों द्वारा अपमान अब आम हो चला है। कहीं अमेरिका हमारे युवाओं के गले में पट्टे डाल रहा है तो कहीं ऑस्ट्रेलिया में हमारे बेटे सरेआम पीटे जा रहे हैं। सरकार खामोश है…नेता चुपचाप हमारे खजाने को विदेशों में भेजने में व्यस्त हैं, जनता आवाज नहीं उठा रही…कैसे होगा बदलाव? दुनियाभर में भारत के लोकतंत्र को वाहवाही मिलती रही है, हमारे टेलेंट को अमेरिका भी जानता है और चीन भी। इसके बावजूद जिसे जब मौका मिलता है, हमारे नेताजी तक के कपड़े भी उतरवा देता है। आखिर हम कब तक ऐसा ही रुख अख्तियार करते रहेंगे? इन लातों के भूतों को अगर हम बातों से मनाने की कोशिश करते हैं तो यह हमारी सबसे बड़ी मूर्खता है। हमें चाहिए कि हम इस साउथ अफ्रीकन बॉलिंग कोच को जवाब दें ताकि जब वह अपने देश जाए तो उसे यह याद रहे कि हम इंडियंस डॉग नहीं हैं, हम इंसान हैं तो हम हैवानों से निपटना भी जानते हैं। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब एक अंग्रेज यहां आकर हमारे देश की किसी भी हस्ती को अपना फेवरेट बताकर उसके नाम पर अपने कुत्तों, बिल्लियों के नामकरण कर चला जाएगा और हम ऐसे ही मुंह ताकते रह जाएंगे।

हम इंडियन है, हमें इस पर गर्व है…जनहित में प्रचारित…जय हिंद।

निन्दक ‘नियरे’ राखिए

निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी-साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ….बचपन में जब टीचर ने कबीरदास जी का यह दोहा हमें डंडे के बल पर याद करवाया था, तब मैंने कभी नहीं सोचा था कि कभी सचमुच मुझे यह दोहा मन ही मन दोहराकर किसी तरह निन्दकों पर भड़ास निकालने से बचने के उपाय खोजने होंगे. अब काफी हद तक यह समझ में आने लगा है कि बेचारे कबीरदास जी को किस तरह निन्दकों की तमाम पटखनियां सह-सहकर यह दोहा लिखने को मजबूर होना पड़ा होगा. वरिष्ठ साहित्यकार हरिशंकर परसाई ने निंदारस पर केवल एक कहानी लिखकर अपनी भड़ास निकाल ली, लेकिन मेरा मानना है कि निंदारस पर अगर एक उपन्यास लिख डाला जाए तो भी शायद इस रस के माधुर्य को व्यक्त नहीं किया जा सकता. अपनी धोती बचाकर रखने के लिए निन्दक अक्सर निंदा रूपी ब्रह्मअस्त्र का उपयोग किया करते हैं. ऐसे ‘फालतू टॉकिंग एलीमेंट्स’ आपको हर जगह मिल जाएंगे. घर से निकले नहीं की पड़ोस के तिवारी जी कहने लगे ‘आपका सही है, आफिस की गाड़ी में पसरे और निकल लिए…हमारे ऐसे भाग कहां’. ऑफिसेज में तो ऐसे निंदकों की तमाम वैरायटीज अवेलेबल हैं. जो बात-बे-बात आपकी टांग खिंचने का मौका तलाशते रहते हैं, हांलांकि कई बार टांग खिंचने की कोशिश में उन्हें जोरदार लातें भी खानी पड़ती हैं, लेकिन उनका उद्देश्य उन्हें किसी भी हाल में निंदारस से ओत-प्रोत रहने पर मजबूर कर देता है. अपने साथियों की बुराईयों का ब्यौरा दूसरे लोगों को देना यह लोग अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं. कई बार तो लगता है कि यह घर पर जाकर यही प्लानिंग किया करते हैं कि किस तरह अपने तथाकथित भुक्तभोगी को ज्यादा से ज्यादा जलील किया जाए. खुद का जलीलपना यह लोग याद नहीं करना चाहते. आपकी एक सक्सेस के पीछे कितने लोगों की दुआएं हैं यह भले ही आपको पता न चल पाएं, लेकिन मन ही मन कितने लोगों ने आपको गालियां दी हैं इसका पता आपको दो-चार दिन बाद पता चल ही जाता है. अक्सर लाइफ से हारे हुए यह वो लोग होते हैं जो अपनी लाइफ में खुद कुछ नहीं कर पाते, लेकिन समाज सुधारने की बातें करवानी हों तो इनसे बड़ा वक्ता आपको ढूंढे नहीं मिलेगा. लोगों के सामने अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने का गुर कोई इनसे सीखे. समाज सुधारने की बात कहा करते हैं, लेकिन अपने मन में छुपे मैल से मुक्त नहीं हो पाते. ‘मुंह में राम, बगल में छुरी’ लिए यह निंदक बात-बेबात आपको नीचा दिखाने की जुगत भिड़ा रहे होते हैं. आपके अचीवमेंट के चर्चे आपको दूसरे लोगों के व्यंग्यबाण के साथ जब मिलते हैं तो आप झट से समझ जाते हैं कि यह आग अपने रामगोपाल वर्मा की नहीं किसी और की लगाई हुई है. पिछले दिनों एक शो के दौरान शाहरूख खाने कहा था कि ‘बुरा मत देखिए, बुरा मत कहिए, बुरा मत सुनिये….क्योंकि अगर आप ऐसा करेंगे तो कोई आपको अपनी पार्टी में नहीं बुलाएगा. खैर ऐसे लोगों को सुधारा तो नहीं जा सकता बस इतना ही कह सकती हूं कि ‘खुदा तू हमें इन ‘दोस्तों’ से बचाए रखना, दुश्मनों से हम खुद ही निपट लेंगे’

प्रेम कहानियां यूं ही नहीं बनतीं (कोमल )

जब भी प्यार, इश्क की बात होती है तो हम खुद को मजनूं या रांझा का रिश्तेदार समझ लेते हैं. हर किसी की लाइफ में इन प्रेम कहानियों की खास इंपोर्टेंस होती है. किसी ने आपका दर्द पूछा नहीं कि आप तुरंत अपनी प्रेमकथा सुनाने को तैयार हो जाते हैं. हर किसी का अपना-अपना दर्द होता है, लेकिन इस दर्द को बयां करके जो सूकून इंसान को मिलता है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. आज मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. दूसरी सिटी में रहने के कारण मेरा फ्रैंड सर्किल काफी सीमित है. बस यूं ही टहलते हुए मैं एक पार्क तक चली गई. इस पार्क को दून के रिपोटर्स का अड्ढा भी कहा जाता है. यहां पर जर्नलिज्म के कुछ सीनियर्स हमेशा ही मिल जाया करते हैं. यहां पर पहुंची तो एक रीजनल न्यूजपेपर के दो रिपोर्टर यहां पहले से मौजूद थे. आमतौर पर इनसे मैं फील्ड में मिल चुकी हूं, लेकिन बातचीत कम ही होती है. मुझे लगा चलो थोड़ी देर यहीं गपशप कर ली जाए. दोनों जर्नलिस्ट बहुत सीनियर हैं. बात ही बात में चर्चा मेरी शादी तक आ पहुंची. दोनों का कहना था कि ‘कोमल हर काम समय पर होना चाहिए, तुम भी जल्दी शादी कर लो’. मैंने हामी भरी और यूं ही कह दिया कि हां भईया जी जल्द ही शादी कर लूंगी. बात यहां से मुड़ी और प्यार पर आ गई. मैंने उनमें से एक सीनियर से उनके परिवार के बारे में पूछा तो पहले तो वह चुप रहे, लेकिन उनके दूसरे साथी ने कहा कि यह इस बुढ़ापे में भी अपनी लवर का वेट कर रहे हैं. पहले तो मुझे यह मजाक लगा, लेकिन यह मजाक नहीं था. इन सीनियर की उम्र अब चालीस साल क्रास कर चुकी है. उन्होंने बताया कि वह कुमांऊ के एक गांव से बिलांग करते हैं, वहीं पर वह लड़की रहा करती है जिसे उन्होंने प्यार किया. कुमांऊनी ब्राह्म्ण होने के कारण पैरेंट्स ने दूसरी कास्ट की लड़की से शादी करने की इजाजत नहीं दी. बस फिर क्या था मैंने सोच लिया कि अब उसका इंतजार ही करूंगा. मुझे मेरे स्कूटर से बहुत प्यार था और उसकी के सहारे मैं सिटी की गलियां नापा करता था. यह स्कूटर क्योंकि मेरे पापा ने दिया था, इसीलिए मैंने अपने निर्णय के बाद इस स्कूटर को कभी नहीं छुआ. इसके बाद में देहरादून आ गया. कई साल यूं ही बीत गए हैं, लेकिन मैं अकेला ही रहा. उस लड़की को देखे हुए छह साल हो गए हैं, चार साल से उसकी आवाज नहीं सुनी. बावजूद इसके यह रिश्ता इतना गहरा है कि मैं उसकी हर खबर रखता हूं. कोई टेलीफोनिक कम्युनिकेशन नहीं है, लेकिन मुझे पता है कि उसने भी शादी नहीं की. हमेशा चुप रहने वाले इन सीनियर जर्नलिस्ट की बातें सुनकर मैं सोच में पड़ गई कि क्या सचमुच कोई किसी का इतना लंबा इंतजार कर सकता है. बावजूद इसके वह बहुत आशावान हैं और उन्होंने मुझे बताया कि कोमल इस बार मैं जब गांव जाऊंगा तो उससे जरूर मिलूंगा. तुम प्रेयर करना की सब ठीक हो जाए…..

मंजिल मुश्किल तो क्या…धुंधला साहिल तो क्या

गोधरा कांड के जख्म अभी तक नहीं भरे हैं. इस एक कांड ने जहां हमारी अखंडता पर कई सवाल पैदा किए, वहीं हमें यह भी बता दिया की राजनीति की कीचड़ किस तरह इंसानियत पर कालिख पोत रही है. मामले में विशेष कोर्ट का फैसला आ चुका है. जिसमें 11 लोगों को फांसी और 20 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है. इन सबसे इतर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो वैमन्स्यता की इस दीवार को तोड़ देने के लिए दिल से कोशिशों में जुटे हुए हैं. यह लोग भले ही मुट्ठी भर लोग हैं, लेकिन किसी तरह नफरत को खत्म करने की अपनी कोशिशों में कामयाब होने की चाह रखते हैं. अहमदाबाद में वह जगह जहां साबरमती एक्सप्रेस पर हमला हुआ था, वहां हारून नाम का मुस्लिम युवक पिछले आठ महिनों से हिन्दू बस्ती में जाकर बच्चों को पढ़ा रहा है. यह वही जगह है जहां सन् 2002 में साबरमती एक्सप्रेस पर हमला किया गया गया था. यही नहीं इस युवक के साथ एक अन्य मुस्लिम युवक है जो हिंदू बच्चों को पढ़ा रहा है. मंदिर के एक ओर जहां हारून बच्चों को मैथ्स जैसे सब्जेक्ट पढ़ा रहा होता है, वहीं दूसरा युवक इमरान दूसरे सब्जेक्ट्स पढ़ाता है. गोधरा केस से छूटने वाले अपने एक रिश्तेदार की खबर सुनकर हारून फिर से अपने काम में तल्लीन हो गया है. राम मंदिर के आस-पास स्लम एरिया के हिंदू बच्चों को एजुकेटेड करने का बीड़ा उठाए हारून ने बीए और बीएड किया है. राम मंदिर में शाम को छह बजे से नौ बजे तक क्लासेज चलती हैं और यह क्लासेज यहां पर गोधरा के डॉ. शुजात वली ने शुरु करवाई हैं. इन टीचर्स का कहना है कि यहां पर ट्रस्टियों ने मुस्लिम युवकों द्वारा पढ़ाए जाने की व्यवस्था कबूल कर ली है. इन युवकों को यहां पर पढ़ाने में कोई परेशानी नहीं होती. यही नहीं स्लम एरिया के इन बच्चों को एजुकेटेड बनाने के मिशन से जुड़े इन युवकों ने कई अच्छी नौकरियों को भी एक्सेप्ट नहीं किया. एक ओर जहां गोधरा कांड का फैसला सुनाया जा रहा था और इस कांड को कोर्ट ने साजिश के तहत हुए कांड के रूप में स्वीकारा. वहीं इमरान और हारून जैसे युवक बस किसी तरह हालात को सुधारना चाहते हैं. इनका मानना है कि इनके द्वारा पढ़ाए गए बच्चे कभी मुसलमानों को घृणा की नजर से नहीं देखेंगे. यह युवक दंगों के दिए गए जख्मों को किसी तरह भरने की कोशिश में जुटे हुए हैं.

मंजिल मुश्किल तो क्या…धुंधला साहिल तो क्या

गोधरा कांड के जख्म अभी तक नहीं भरे हैं. इस एक कांड ने जहां हमारी अखंडता पर कई सवाल पैदा किए, वहीं हमें यह भी बता दिया की राजनीति की कीचड़ किस तरह इंसानियत पर कालिख पोत रही है. मामले में विशेष कोर्ट का फैसला आ चुका है. जिसमें 11 लोगों को फांसी और 20 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है. इन सबसे इतर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो वैमन्स्यता की इस दीवार को तोड़ देने के लिए दिल से कोशिशों में जुटे हुए हैं. यह लोग भले ही मुट्ठी भर लोग हैं, लेकिन किसी तरह नफरत को खत्म करने की अपनी कोशिशों में कामयाब होने की चाह रखते हैं. अहमदाबाद में वह जगह जहां साबरमती एक्सप्रेस पर हमला हुआ था, वहां हारून नाम का मुस्लिम युवक पिछले आठ महिनों से हिन्दू बस्ती में जाकर बच्चों को पढ़ा रहा है. यह वही जगह है जहां सन् 2002 में साबरमती एक्सप्रेस पर हमला किया गया गया था. यही नहीं इस युवक के साथ एक अन्य मुस्लिम युवक है जो हिंदू बच्चों को पढ़ा रहा है. मंदिर के एक ओर जहां हारून बच्चों को मैथ्स जैसे सब्जेक्ट पढ़ा रहा होता है, वहीं दूसरा युवक इमरान दूसरे सब्जेक्ट्स पढ़ाता है. गोधरा केस से छूटने वाले अपने एक रिश्तेदार की खबर सुनकर हारून फिर से अपने काम में तल्लीन हो गया है. राम मंदिर के आस-पास स्लम एरिया के हिंदू बच्चों को एजुकेटेड करने का बीड़ा उठाए हारून ने बीए और बीएड किया है. राम मंदिर में शाम को छह बजे से नौ बजे तक क्लासेज चलती हैं और यह क्लासेज यहां पर गोधरा के डॉ. शुजात वली ने शुरु करवाई हैं. इन टीचर्स का कहना है कि यहां पर ट्रस्टियों ने मुस्लिम युवकों द्वारा पढ़ाए जाने की व्यवस्था कबूल कर ली है. इन युवकों को यहां पर पढ़ाने में कोई परेशानी नहीं होती. यही नहीं स्लम एरिया के इन बच्चों को एजुकेटेड बनाने के मिशन से जुड़े इन युवकों ने कई अच्छी नौकरियों को भी एक्सेप्ट नहीं किया. एक ओर जहां गोधरा कांड का फैसला सुनाया जा रहा था और इस कांड को कोर्ट ने साजिश के तहत हुए कांड के रूप में स्वीकारा. वहीं इमरान और हारून जैसे युवक बस किसी तरह हालात को सुधारना चाहते हैं. इनका मानना है कि इनके द्वारा पढ़ाए गए बच्चे कभी मुसलमानों को घृणा की नजर से नहीं देखेंगे. यह युवक दंगों के दिए गए जख्मों को किसी तरह भरने की कोशिश में जुटे हुए हैं.

समाज सुधार का ठेका

(तथाकथित) समाज सुधारकों को भला कौन नहीं जानता….इनकी अलग-अलग वैरावटी वाले लोग कभी न कभी आपसे भी जरूर टकराए होंगे. दूसरों को बिना मतलब सुधरने की राय देना इनकी फितरत में शुमार होता है. चलिए आपको भी इनकी अलग-अलग वैरायटी से रूबरू करा दूं. इनकी जो सबसे बड़ी क्वालिटी होती है वह है मामला भांपकर तुरंत रंग बदल लेना. जिस रौ में हवा बह रही होती है, यह तुरंत संग हो लेते हैं. आप जितना चाहें बच लें, घर-बाहर हर जगह से यह आपको खोज-खोजकर निकाल ही लेते हैं. ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाक्य को यह खुद में उतार लेते हैं. तभी तो खुद में चाहे तमाम बुराईयां हों, लेकिन इनके अंदर बैठा जानवर इन्हें खुद की बुराई करने की कतई इजाजत नहीं देता. सबसे मजेदार बात यह है कि समाज के सुधरने से ज्यादा इनके खुद के सुधरने की जरूरत होती है, लेकिन नहीं जी ये कोई ऐंवे ही हार थोड़े ही मानेंगे तथाकथित बुद्धिजीवी जो ठहरे. अब यह नहीं रहेंगे तो समाज की तो इज्जत लुट जाएगी न…..अपनी ढपली पर अपना राग सुनाने के साथ ही दूसरों की वाहवाही बटोरने लूटने की चाह इनकी नस-नस में समाई होती है. आप एक बार इनके (तथाकथित) समाज सुधार प्रोग्राम की पोल भर खोल दीजिए फिर देखिये ये किस तरह हाथ धोकर (नहा धोकर) आपके पीछे पड़ जाएंगे. अपने व्यंग्य बाणों से यूं बताएंगे कि ‘हीरो बात को जितनी जल्दी समझ ले अच्छा है, नहीं तो यही बात हम थप्पड़ मार कर भी समझा सकते हैं’. व्यंग्य के इतने तीर आप पर छोड़े जाएंगे और कुछ यूं घायल किया जाएगा कि आप तुरंत अपने हथियार फेंककर इनके शागिर्दी करने को तैयार हो जाएंगे.
ऐसा बिल्कुल मत सोचिए कि यह आपसे बहुत ‘कुछ’ चाहते हैं. आप तो बस इनकी हां में हां मिलाते रहिए, फिर देखिए इनकी भी वाह-वाह और आपकी भी. आप इनकी तारीफ में दो पंक्तियां लिख दें, यह आठ लिखेंगे और (स्व) समाज सुधार की राह में आपको भी अपने साथ ले लेंगे. फिर तो बस दुनिया में दो ही समाज सुधारक रह जाएंगे…एक यह महानुभाव और एक आप. अपने दोहरे चेहरे और डबल स्टैंडर्ड मैंटेलिटी को चालाकी से छिपा जाना कोई इनसे सीखे. मुंह में राम, बगल में छुरी रखे अपने यह (तथाकथित) समाजसुधारक साथी सुधार का नाम लेकर समाज का बैंड बजाने से भी पीछे नहीं हटते. इनका जितना गुणगान करते हुए शब्द खत्म हो जाएंगे, लेकिन समाज सुधारकों और सुधार की संभावनाएं नहीं
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मंगलवार, 1 मार्च 2011

क्या समाज में लड़की का जन्म लेना ही अपराध है? (विज्ञान कथा।)

क्या समाज में लड़की का जन्म लेना ही अपराध है? क्या लड़की पैदा होने के लिए सिर्फ स्त्री ही जिम्मेदार है? और क्या लड़की के जन्म को नियंत्रित किया जा सकता है? इन्हीं सवालों से जूझती एक सामाजिक विज्ञान कथा।
'निर्णय'
‘‘देखिए जरीना जी, आप एक बार फिर इस वैक्सीन (एक्स क्रोमोसोम डिजेनेरेटिंग फैक्टर आफ ह्यूमन) के बारे में सोचिए।’’ प्रभाकरन ने स्वयं पर गम्भीरता का नकाब डालते हुए कहा, ‘‘क्योंकि यह आपकी वर्षों की मेहनत और महती आकांक्षाओं का प्रश्न है। .......और फिर क्या जवाब देंगी आप अपनी उस बहन को, जिसे मरने के बाद भी शान्ति नहीं मिल सकी है। क्या आप यह चाहेंगी कि आपकी शेष बहनें भी....?’’

जरीना की वर्षों पुरानी दुखती रग पर हाथ रख दिया था प्रभाकरन ने। जरीना को लगा जैसे किसी ने गर्म लोहे की सलाख उसके दिल के आर-पार कर दी हो। पर बजाय घबराने के उसके शरीर में दृढ़ता आ गयी। उसका चेहरा चट्टान की तरह सख्त हो गया और आंखें इलेक्ट्रिक हीटर की दहक उठीं।

कांप सा गया प्रभाकरन। उसे अपनी गल्ती का एहसास हो आया। उसने सोचा कि अगर अब मैंने एक शब्द भी कहा, तो काम बनने की जगह बिगड़ ही जाएगा। अपने थुलथुल पेट के दाईं ओर सरक गयी टाई को ठीक करते हुए वह चुपचाप खड़ा हो गया और हिम्मत बटोर कर धीरे से बोला, ‘‘अच्छा, तो अब मुझे आज्ञा दीजिए। कल फिर मैं आपकी सेवा में उपस्थित होऊंगा। और आशा करता हूं कि तब तक आप वैक्सीन से सम्बंधित कोई ठोस निर्णय, जो व्यवहारिकता के धरातल पर खरा उतरता हो, ले चुकी होंगी।’’

कहने के साथ ही प्रभाकरन ने अभिवादन किया और नोटों से भरे ब्रीफकेस को वहीं पर छोड़कर कमरे से बाहर निकल गया। साथ ही छोड़ गया वह एक हाहाकारी तूफान, जिसमें से होकर जरीना को बाहर निकलना था और लेना था उसे एक ऐतिहासिक निर्णय, जो किसी महान क्रान्ति के संवहन का गौरव प्राप्त करने वाला था।

काफी देर तक जरीना उसी प्रकार बैठी रही। एकदम मूर्तिवत। यदि पलकों का उठना-गिरना बंद हो जाता, तो शायद यह पहचानना भी मुश्‍किल हो जाता कि वह किसी मूर्तिकार का परिश्रम है अथवा शुक्राणु और अण्डाणु के महामिलन का क्रान्तिकारी सुफल?

विचारों की सरिता में उठने वाले चक्रवातों ने कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि जरीना किसी निष्कर्ष तक पहुंचने में स्वयं को अस्मर्थ महसूस करने लगी। बिच्छू के जहर से बचने के लिए उसने अन्जाने में ही सांप को भी उत्तेजित कर दिया था। और अब उन दोनों के बीच वह निरूपाय सी खड़ी थी। आखिर जाए तो किधर? बस यही एक प्रष्न था, जिसका हल उसे खोजना था।

मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी जरीना को अपने मां-बाप की पहली सन्तान होने का गौरव प्राप्त था। जरीना के जन्म से भले ही उसके मां-बाप के अरमान पूरे न हो पाए हों, पर उसकी नानी की खुशी का पारावार न रहा। उसकी छट्ठी के दिन ही उन्होंने अपनी लाखों की दौलत जरीना के नाम कर दी। उन्हें तो जैसे जरीना के जन्म का ही इन्तजार था। तभी तो अपनी जायदाद के बोझ से मुक्त होते ही उन्होंने इस दुनिया से अपना बोझ भी कम कर दिया। लेकिन जरीना पर इससे कोई विशेष फर्क न पड़ा, सिवाए इसके कि वह नानी की गोद में खेलने के सुख से महरूम रह गयी थी।

अपनी वंश परम्परा बनाए रखने और कम से कम एक पुत्र का पिता कहलाने की चाह में फंसे जरीना के पिता हाकिम प्रतिवर्ष एक सन्तान को दावत देते रहे। लेकिन आश्चर्य कि उनके घर जन्म लेने वाली प्रत्येक सन्तान लड़की ही होती। प्रकृति के इस क्रूरतम (?) मजाक को हाकिम सहन न कर सके और उनका स्वभाव दिन-प्रतिदिन चिड़चिड़ा होता चला गया।

इसके बावजूद उन्होंने आशा का दामन नहीं छोड़ा। यह सोचकर कि शायद अगली बार उनकी मुराद पूरी हो जाए। पीरों-फकीरों की दुआएं काम कर ही जाएं। सो वे दांव पर दांव लगाते गये। लेकिन परिणाम वही ढ़ाक के तीन पात। और अन्त में एक दिन अपनी आठवीं पुत्री को जन्म देते समय जरीना की मां संसार को अलविदा कह गयीं।

मां की मौत का बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़ा। घर की सारी व्यवस्थाएं चरमरा गयीं। हाकिम ने उन्हें संभालने का प्रयत्न किया और असफल होने पर अपनी मां की शरण में जा पहुंचे। दादी ने घर में आते ही मां की कमी पूरी कर दी। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा। लेकिन लाख कोशिश के बावजूद भी वे सबसे छोटी लड़की को संभाल न पाईं। मां की कमी उसे बर्दाश्त नहीं हुयी और निमोनिया के बहाने वह इस संसार के कूच कर गयी।

नानी ने अपनी वसीयत में यह व्यवस्था कर दी थी कि जब तक जरीना बालिग नहीं हो जाती, उसके पिता को जरीना के खर्च के लिए पूरा पैसा मिलता रहेगा। इस व्यवस्था का सुफल यह निकला कि अपने पिता की कोई बहुत अच्छी आर्थिक स्थिति न होने के बावजूद जरीना का लालन-पालन राज परिवार में जन्मी राजकुमारियों की तरह से हुआ। भले ही उसकी छोटी बहनें पर्याप्त मात्रा में दूध तक न पा सकीं, पर उसे कभी किसी चीज की कमी न हुयी। जब भी उसके मुंह से जो भी निकला, वह तुरन्त हाजिर हो गया।

हाकिम एक फैक्ट्री में बाबू थे। निश्चित तनख्वाह थी। आय का कोई ऊपरी श्रोत था नहीं, इसलिए धीरे-धीरे तंगई ने अपन शिकंजा कसना शुरू कर दिया। बच्चों को पढ़ाना तो दूर उनको सही ढ़ंग से खाना मिलना भी दूभर हो गया। और कोई रास्ता न देखकर हाकिम ने जरीना का नाम बोर्डिंग स्कूल में लिखवा दिया, जिससे कम से कम वह तो ढ़ंग से पढ़-लिख जाए। वैसे भी जरीना को घर में विशेष सुविधाएं मिलने की वजह से उसे अपनी बहनों से अलग रहने की आदत सी पड़ गयी थी, इसलिए हास्टल में उसे कोई विषेश परेशानी नहीं हुयी। वहां के माहौल में उसने जल्दी ही अपने आप को ऐडजेस्ट कर लिया और अपना सारा ध्यान अपनी पढ़ाई पर केन्द्रित कर दिया।

स्कूल के बाद कालेज और कालेज के बाद यूनीवर्सिटी। हाईस्कूल से लेकर एम0एस0सी0 तक की उसने सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। जीव विज्ञान में पी0एच0डी0 का भी इरादा था उसका, पर घर वाले उस पर शादी करने के लिए दबाव डालने लगे। चूंकि शुरू से ही उसे अपनी मर्जी के मुताबिक कार्य करने की आदत सी पड़ गयी थी, इसलिए उसे यह फैसला स्वीकार्य न हो सका। बात जब काफी आगे बढ़ने लगी, तो एक दिन उसने स्पष्ट षब्दों में कह ही दिया, ‘‘शादी करना कोई बच्चों का खेल तो नहीं कि जब मां-बाप ने चाहा, डोली पर लाद दिया। जब तक मैं पी0एच0डी0 न कर लूं, शादी करना तो दूर, उसके बारे में सोच भी नहीं सकती।’’

जरीना भले ही कुछ भी हो, पर थी तो वह हाकिम की बेटी ही। और हाकिम को अपनी बेटी से ऐसी उम्मीद कतई न थी। हाकिम को लगा, जैसे किसी ने सीने पर हथौड़ा चला दिया हो। पर वे कर भी क्या सकते थे? एक के लिए वे छः-छः को बैठा कर नहीं रख सकते? सामाजिक मर्यादाओं और अपनी परिस्थितियों के दबाव में उन्होंने फैसला कर लिया कि जरीना चाहे शादी करे या न करे, वे अपनी दूसरी लड़कियों को तो निपटा ही देंगे।

हालांकि हाकिम की आर्थिक स्थिति कोई बहुत अच्छी न थी और न ही उन्होंने कोई बहुत बड़ी सम्पत्ति संजो कर रखी थी। लेकिन फिर भी किसी तरह से उन्होंने अपनी कोशिशों को अन्जाम देना षुरू कर दिया। जैसा भी हाकिम से बन पड़ा, आश्चर्यजनक ढ़ंग से उन्होंने अपनी बेटियों की जिम्मेदारी का निर्वहन किया। तीसरे साल जरीना की पी0एच0डी0 पूरी होते-होते उन्होंने अपनी छठवीं बेटी की भी नैया पार लगा दी।

जेनेटिक इंजीनियरिंग में डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त करने के बाद जरीना को सुकून मिला। हालांकि इसके लिए उसे अपने कीमती चार वर्ष होम कर देने पड़े। फिर भी वह पारिवारिक टेंशन, सामाजिक दबाव और मन के अन्तर्द्वन्द्व को झेलकर विजय श्री का मुकुट धारण करने में कामयाब हो ही गयी।

अपनी उपलब्धियों का जखीरा एकत्रित करने के बाद जब जरीना अपने परिवार की स्थिति का जायजा लेने बैठी, तो उसका मन बड़ा खिन्न हुआ। मरजीना और तहमीना की तथाकथित रूप से उम्र ज्यादा हो जाने के कारण उनकी शादियां ऐसे व्यक्तियों से हुयी थीं, जोकि उम्र में उनसे पन्द्रह-पन्द्रह साल बड़े थे और सिर पर विधुर का ताज लगाए हुए थे।

सफीना ने तो प्रेम विवाह किया था, पर शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब उसका पति पिटाई न करता हो। कारण वही पुराना, दहेज और सिर्फ दहेज। सकीना और शबीना की शादियां ऐसे घरों में हुयी थीं, जहां साल के बारहों महीने फाकाजनी का आलम रहता था। उनके पति चार दिन काम करते, तो सात दिन आराम। जब भूखों मरने की नौबत आ जाती, तो वे अपना होश संभालते। हां, सबसे छोटी आमिना की शादी जरूर अच्छे घर में हुयी थी। पर फिर भी उसे वह सब कुछ नहीं मिल पाया था, जिसकी वह हकदार थी।

एक दिन जरीना दोपहर के समय अपने कमरे में बैठी हुयी अखबार पढ़ रही थी। तभी उसे लगा कि मरजीना घर में मौजूद है। वह अपने कमरे से निकल कर बैठक में पहुंची, तो देखा कि वास्तव में मरजीना अपनी तीन छोटी-छोटी लड़कियों के साथ वहां उपस्थित है। उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसके साथ कोई बहुत बड़ी दुर्घटना हो चुकी है।

सलाम दुआ के बाद जैसे ही जरीना ने मरजीना के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा, वह फफक कर रो पडी, ‘‘मैं कहीं की नहीं रही आपा। उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया और दूसरी......’’ बाकी के शब्द उसकी सिसकियों के बीच ही कहीं गुम हो गये।

जरीना पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। उसने कांपते स्वरों में पूछा, ‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘क्योंकि मैं, मैं उनके खानदान का वारिस, एक लड़का नहीं पैदा कर सकी। मेरी कोख इस लायक नहीं हो सकी कि.....।’’

‘‘लेकिन इसमें तुम्हारा क्या कुसूर? इसके लिए तो वो जिम्मेदार है।’’ जरीना लगभग चीखी, ‘‘मैं तुम्हारे साथ यह नाइन्साफी नहीं होने दूंगी। आज ही मैं....।’’

मरजीना ने उसकी बात बीच में ही काट दी, ‘‘नहीं आपा, अब मैं वहां नहीं जा सकती। मैं इस घर के किसी कोने में पड़ी रहूंगी, पर उस दोजख में कभी नहीं जाऊंगी।’’

‘‘... ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी।’’ जरीना ने भी अपने हथियार डाल दिये और अपने कमरे में लौट गयी।

काफी देर तक जरीना बैठी हुयी यह सोचती रही कि आखिर मरजीना लड़का पैदा नहीं कर सकती, तो इसमें उसका क्या दोष? सन्तान के लिंग निर्धारण की सारी जिम्मेदारी पुरूषों के शुक्राणुओं पर निर्भर करती है। यह बात तो आज सभी जानते हैं कि स्त्री में सिर्फ एक्स प्रकार के अण्डाणु (ओवा) पाए जाते हैं। लेकिन पुरूषों के शुक्राणु (स्पर्म) एक्स और वाई दो प्रकार के होते हैं।

गर्भाधान की क्रिया के दौरान जब पुरूष का एक्स शुक्राणु स्त्री के किसी अण्डाणु से निशेचन क्रिया करता है, तो लड़की पैदा होती है। लेकिन इस क्रिया में यदि वाई शुक्राणु कामयाबी का सेहरा पहनने में कामयाब हो जाए, तो पैदा होने वाली सन्तान लड़का होता है। चूंकि सामान्यतः पुरूष के एक्स शुक्राणु वाई की अपेक्षा कुछ हल्के होते हैं, इसलिए वे इस काम को सम्पन्न करने में कुछ ज्यादा सफल होते हैं। ....लेकिन रूढ़िवादिता से क्रस्त पुरूषों को यह बात समझाए तो कौन?

इस सवाल के जाल में जरीना कुछ ऐसी उलझी कि उसे शादी जैसे उपक्रम से ही घ्रणा हो गयी। उसने यह फैसला किया कि वह जीवन भर शादी नहीं करेगी। क्योंकि दलदल से बचने का सबसे अच्छा उपाय तो यही है कि उस ओर जाया ही न जाए।

हाकिम ने जब बेटी का फैसला सुना, तो अवाक रह गये। लेकिन अब उनमें इतनी हिम्मत न बची थी कि वे जरीना को समझाकर और तथाकथित रीतिरिवाजों का वास्ता देकर उसे शादी के लिए राजी करवा सकें। अतः इस समस्या के हल के लिए वे अपनी मां की शरण में पहुंचे। उन्हें उम्मीद थी कि शायद वे जरीना को उसके औरत होने का एहसास करा सकें और लाद सकें उस पर शादी का बोझ, जिसकी परम्परा सदियों से चली आ रही है।

लेकिन दादी भी जरीना के तर्कों के आगे टिक न सकीं। उसकी बातों को सुनकर वे एकदम सन्न रह गयीं। आजकल की लड़कियों की हिम्मत तो देखो, शादी से ही इनकार? ये कयामत के आसान नहीं तो और क्या है? लड़की का दिमाग फिर गया है। और दो उसे इतनी छूट? दिन भर घर के बाहर मंडराएगी, गैर मर्दों के साथ घूमती फिरेगी, तो और क्या होगा? अब तो इस घर की इज्जत को रब्बुलपाक ही बचाए!

बड़बड़ाते हुए दादी जैसे ही जीने से नीचे उतरने लगीं, हड़बड़ाहट में उनका पैर फिसल गया और वे धड़ाम के साथ नीचे आ गयीं। खण्डहर से जर्जर शरीर में इतनी ताब न बची थी कि वह सिर पर लगी मामूली से चोट को बर्दाश्त कर पाता। अतएव अत्यधिक खून बह जाने के नाम पर उनकी वहीं पर मौत हो गयी।

जरीना और हाकिम के बीच जो दूरी जरीना की नानी की जायदाद ने पैदा की थी, दादी की मौत ने उसे और बढ़ा दिया। हाकिम ने सीधे-सीधे जरीना को अपनी मां की मौत का जिम्मेदार मानते हुए उससे एक तरह से किनारा ही कर लिया। रहते तो वे एक छत के नीचे जरूर थे, पर बिलकुल अजनबी की तरह। न बाप को बेटी से कोई मतलब और न बेटी को बाप से कोई सरोकार।

धीरे-धीरे समय का पहिया एक वर्ष आगे खिसक गया। अचानक एक दिन सूचना मिली कि सफीना ने अपनी दो बेटियों के साथ आग लगाकर आत्महत्या कर ली है। सफीना उनकी सबसे लाडली बेटी थी। उन्हें पूरा विश्वास था कि वह ऐसा नहीं कर सकती। जरूर उसे उसकी ससुराल वालों ने जला दिया होगा। यही सोच-सोच कर वे एकदम विछिप्त हो गये।

अक्सर वे चीख पड़ते, ‘‘नहीं-नहीं, उन लोगों ने मेरी बेटी को जिंदा जला डाला। वह उनके लिए एक लड़का नहीं पैदा कर पाई न, इसलिए उन कमीनों ने मेरी बच्ची ...... सफीना को ...... जला दिया। खून कर दिया उन लोगों ने सफीना और उसकी मासूम बच्चियों का। वे खूनी हैं। मैं उन्हें जिन्दा नहीं छोडूंगा। एक-एक को फांसी दिलवाऊंगा।’’

जरीना को भी पूर विश्वास था कि सफीना और उसकी बेटियों की आग लगाकर हत्या की गयी है। उसने सफीना की ससुराल वालों के विस्द्ध अदालत में हत्या का मुकदमा दायर कर दिया। पानी की तरह पैसा बहा, अदालत के सैकड़ों चक्कर लगे, लेकिन इसके बावजूद जरीना ऐसा कोई सबूत न पेश कर सकी, जिससे साबित होता कि सफीना की ससुराल वालों ने उसकी व उसकी बेटियों की हत्या की है। और अन्ततः वही हुआ, जो होना था। सफीना की ससुराल के सभी लोग बाइज्जत बरी कर दिये गये।

इस अनचाहे दर्द से जरीना तड़प कर रह गयी। क्रोध आने लगा उसे अपनी विवशता पर। कितना सड़ गया है हमारा यह समाज, जहां कातिलों को सजा तक नहीं दिलाई जा सकती। वाकई कितना विकृत है इस दुनिया का यथार्थ?

इस सदमें ने जरीना को एकदम तोड़ दिया। खीझ कर उसने स्वयं को अपने आप में कैद कर लिया। न खाने की चिन्ता, न पीने से मतलब। रात-रात भर वह जागती रहती। जब कभी घड़ दो घड़ी के आंख लगती भी, तो उसे सपने में सफीना ही नजर आती। आग से घिरी सफीना, अपनी बच्चियों को गोद में चिपटाए, बेबस।

हमेशा की तरह आधी रात बीत जाने के बाद जब जरीना की आंखें लगीं, तो उस रोज भी सफीना वहां मौजूद थी। झुलसा हुआ चेहरा, एकदम काला, बेहद डरावना। जरीना स्तब्ध रह गयी। धीरे-धीरे चेहरे में हरकत हुयी। उसके होंठ कांपे, ‘‘जानती हो आपा, हमारा ये हाल क्यों किया गया?’’

एक क्षण के लिए जरीना जुर्म साबित हो चुके अपराधी की भांति शान्त रही। फिर धीरे-धीरे उसने अपनी शक्ति को एकत्रित किया और कांपते स्वरों में बोली, ‘‘जानती हूं, तुमसे अच्छी तरह से।’’

‘‘फिर आप कुछ करती क्यों नहीं?’’ सफीना का स्वर तेज हो गया, ‘‘इससे पहले कि यह घटना किसी और के साथ दोहरायी जाए, आपको कुछ करना ही होगा।’’

‘‘लेकिन क्या कर सकती हूं मैं ?’’

‘‘क्यों, आप तो पढ़ी-लिखी हैं। डाक्टरी पास की है आपने।’’

‘‘ ...............’’

‘‘क्या आप ऐसी कोई दवा नहीं बना सकतीं, जिससे लड़का पैदा किया जा सके ?’’

‘‘नहीं सफीना, ऐसा नहीं हो सकता। वो तो सब प्राकृतिक.........’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता आपा? क्यों नहीं? इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता? सिर्फ हौसला और लगन होनी चाहिए। .....और फिर आपको ऐसा करना ही होगा। अपनी दूसरी बहनों को दर्दनाक मौत से बचाने के लिए आपको ऐसी दवा बनानी ही हागी। नहीं तो आपकी सारी बहनें इसी तरह एक-एक करके मौत के घाट उतार दी जाएंगी और आप कुछ भी नहीं कर पाएंगी।’’

सफीना का स्वर गूंजता चला गया। और जब शोर हद से ज्यादा बढ़ गया, तो उसकी निद्रा भंग हो गयी। वह हड़बड़ा कर बिस्तर पर उठ बैठी। उसके बाद फिर उसे नींद नहीं आयी। सारी रात उसके कानों में सफीना की बातें गूंजती रहीं।

उस स्वप्न ने जरीना की सोच को एकदम बदल दिया। हमेशा गुमसुम सी रहने वाली जरीना के पास अब एक उद्देश्य था। उसे एक ऐसी दवा का निर्माण करना था, जो पुरूषों के वाई शुक्राणुओं को अधिक क्रियाशील बना सके। और अगर वह इस काम में सफल हो गयी, तो एक पुत्र के लिए अपने घरों में लड़कियों की लाइन लगा देने वाले और लड़का पैदा न होने की दषा में अपनी पत्नी के घर निकाला दे देने वाले लोग इस पाप से मुक्ति पा सकेंगे।

जेनेटिक इंजीनियरिंग में पी0एच0डी0 की डिग्री प्राप्त करने वाली जरीना ने अपना सारा ध्यान इसी पर केन्द्रित कर दिया। क्योंकि अगर इस दिशा में कुछ हो सकता था, तो उसकी सारी सम्भावनाएं जेनेटिक इंजीनियरिंग की रिकाम्बिनैन्ट पद्धति में ही निहित थीं।

लगातार दस वर्षों तक पुस्तकों और अपनी निजी प्रयोगशाला में सिर खपाने के बाद जरीना को मंजिल तक पहुंचने का सूत्र मिल ही गया। और वह सूत्र था लैम्डा फेज वाइरस। इस वाइरस की सहायता से जरीना ने एक्स क्रोमोसोम डिजेनेरेटिंग फैक्टर आफ ह्यूमन वैक्सीन तैयार की, जोकि एक प्रकार की क्लोन्ड जीन थी।

लेकिन जब इस वैक्सीन के परिणाम सामने आए, तो जरीना कांप उठी। जिस व्यक्ति के शरीर में यह वैक्सीन एक बार पहुंच जाती, उसके शरीर के समस्त एक्स प्रकार के शुक्राणुओं को नष्ट कर देती। इसके साथ ही साथ भविष्य में भी उस व्यक्ति के शरीर में बनने वाले एक्स शुक्राणु निश्क्रिय ही रहते। यानी कि जिस व्यक्ति ने एक बार इस वैक्सीन का प्रयोग कर लिया, तो फिर वह व्यक्ति जिंदगी भर किसी लड़की का पिता नहीं बन सकता था।

खन्दक से बचने के प्रयास में अन्जाने में ही खाई का निर्माण हो चुका था। यदि यह वैक्सीन बाजार में आ जाती, तो पुत्र-मोहान्ध पुरूषों की बदौलत बिक्री के सारे रिकार्ड तोड़ डालती। चूंकि समाज में लड़कियों का पैदा होना ही आमतौर पर एक बोझ मान लिया जाता है, इसलिए कोई भी पुरूष इससे दूर न रहना चाहता और परिणाम की चिन्ता किए बिना ही वैक्सीन का उपयोग कर डालता। ऐसी दशा में समाज की बनावट में भारी उलटफेर हो जाता और उसका सारा ढ़ाँचा ताश के पत्तों की तरह बिखर जाता।

वैक्सीन के सहारे जन्मी लड़कों की खेप भले ही विशेष प्रभावों के कारण वर्णान्धता रोग से दूर रहती, पर जब वह अपनी युवावस्था में पहुंचती, तो उनके जीवन साथी की तलाष आकाश के तारे तोड़ लाने से भी दूभर प्रक्रिया बन जाती। ऐसी स्थिति में उन लोगों के घर जन्मी लड़कियां, जिन्होंने वैक्सीन का प्रयोग नहीं किया था या जिनके हिस्से नकली वैक्सीन आई थी, परमाणु बम से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जातीं। शायद लड़के वाले अपनी बहू लाने के लिए उल्टे लड़की वालों को दहेज देना प्रारम्भ कर देते। तब शायद लोग पांडव स्टाइल में पांच-पांच ही नहीं बीस-बीस या पचास-पचास मिलकर एक पत्नी रखते। स्थिति यहां तक बिगड़ती कि लड़कियों का व्यापार होने लगता और उनका घर से निकलना तक मुश्‍किल हो जाता।

...और तब ऐसी भयानक स्थिति में शायद किसी वैज्ञानिक को वाई0सी0डी0एफ0एच0 वैक्सीन का निर्माण करना पड़ता, जिसको प्रयोग कर पुरूष सिर्फ लड़कियों को जन्म देते। ऐसी दशा में समाज दो ध्वंसात्मक वर्गों में बंट जाता, जिसके शैतानी पंजों से निकल पाना बिलकुल असंभव सा हो जाता।

कट्टरता कभी भी किसी भी समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकती, चाहे वह विचारों की हो या फिर वैक्सीन की। लेकिन वैक्सीन तो बन चुकी थी। और न जाने कैसे यह खबर भारत के सबसे बड़े दवा निर्माता प्रभाकरन तक जा पहुंची। प्रभाकरन एक सफल व्यवसायी के साथ-साथ एक कुशल मनोविज्ञानी भी था। जरीना का पूरा इतिहास जानने के बाद वह उससे मिलने के लिए उसके घर जा पहुंचा। अपना परिचय देने के साथ प्रभाकरन ने जरीना के उन सभी मर्म स्थलों पर चोट पहुंचानी शुरू कर दी, जिनकी वजह से वह वैक्सीन निर्माण की ओर उन्मुख हुयी थी।

..और जब लोहा पूरी तरह से गर्म हो गया, तो उसने चोट करने में देर नहीं की। आकर्षक कमीशन के प्रस्ताव के साथ पेशगी के तौर पर सौ-सौ की नोटों से भरा 21 इंची सूटकेश जरीना की खिदमत में पेश किया गया।

प्रभाकरन को विश्वास था कि जरीना को तोहफे में पेश किया गया सूटकेश वैक्सीन के सूत्र को उस तक लाने में कामयाब हो जाएगा। वह वैक्सीन वास्तव में उसके लिए कुबेर के खजाने की चाबी साबित होने वाली थी। और एक बार जहां उसे वह चाबी मिल गयी, फिर उसे भारत का सबसे बड़ा अमीर बनने से कोई नहीं रोक सकता।

दूसरे दिन जब प्रभाकरन जरीना के घर पहुंचा, तो वह प्रतीक्षारत मिली। कुर्सी पर बैठते ही प्रभाकरन मुस्कराया, ‘‘मैं समझता हूं कि आपने वैक्सीन के सम्बंध में अपना निर्णय ले लिया होगा।’’

कहने के साथ ही उसने जरीना की ओर एक चेक बढ़ाया, ‘‘ये रहे मेरी तरफ से एडवांस, मात्र बीस लाख रूपयों का चेक। बाकी के अस्सी लाख आपको कांट्रैक्ट पर साइन करने के साथ ही दे दिए जाएंगे। इसके अलावा बिक्री प्रारम्भ होने पर प्राफिट पर पच्चीस प्रतिशत कमीशन आपको हर माह मिलता रहेगा।’’

जरीना चुपचाप बैठी रही। उसके भीतर अन्तर्द्धन्द्ध छिड़ा हुआ था। एक तरफ सफीना की दर्दनाक मौत, दस साल की कड़ी मेहनत, नोटों का अम्बार, और दूसरी तरफ इंसानियत और समाज। चुनना तो उसे एक ही था। उसके एक फैसले पर समाज की गति निर्भर करने वाली था। सिर्फ एक ‘हां’ से पूरे समाज का ढ़ांचा ही बदल जाता और छिड़ जातीी एक महान क्रान्ति, जो किन्ही अर्थों में द्वितीय विश्व युद्ध से भी भयानक होती।

जरीना की स्थिति सम्मोहित व्यक्ति की सी हो गयी थी। जैसे उसकी सोचने-समझने की शक्ति ही समाप्त हो गयी हो। बस जो सामने वाला चाहे, वह होता चला जाए। मौके की नजाकत के विशेषज्ञ प्रभाकरन ने एक पतली सी मुस्कान बिखेरते हुए कांट्रैक्ट फार्म आगे कर दिया, ‘‘लीजिए जरीना जी, प्लीज आप यहां पर साइन कर दीजिए।’’

बिना किसी प्रतिवाद के जरीना ने फार्म उठा लिया। प्रभाकरन का दिल खुशी के मारे बल्लियों उछलने लगा। उसे लगा कि अब दिल्ली दूर नहीं। अब उसके पास होगी अरबों की दौलत। और वह होगा हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा उद्योगपति।

पर तभी जरीना को अचानक न जाने क्या हुआ? देखते ही देखते उसने कान्ट्रैक्ट फार्म के चार टुकड़े कर दिए। उसका चेहरा चट्टान की तरह सख्त हो चुका था। इससे पहले कि प्रभाकरन कुछ समझ पाए, जरीना के होंठ हिले, ‘‘माफ कीजिएगा प्रभाकरन जी, चंद नोटों के लिए मैं अपने समाज की खुशियाँ नहीं बेंच सकती।’’ कहते हुए जरीना ने सूटकेश को मेज पर पटका और कमरे से बाहर निकल गयी।