राजनीति भी अजीबोगरीब चीज है। नेता झूठ बोले तो बवाल और सच बोल जाए तो हंगामा। इधर कुआं, उधर खाई। नेता बेचारा जाए कहां? तभी तो बुजुर्गों ने कहा है कि बोलने से पहले तोलना चाहिए, मगर जुबान है कि दातों से बचने-बचाने के चक्कर में फिसल ही जाती है। और जुबान फिसल जाए तो राजनीति भी पसर जाती है। अपने पूरे रंग दिखाती है। हाल ही उच्चा शिक्षा मंत्री बने दयाराम परमार के साथ ऐसा ही हुआ। उन्होंने इतना भर कहा कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अच्छे नेता तो हैं ही, अच्छे जादूगर भी हैं। नेता लोगों की मति भ्रमित करने में माहिर होता है तो जादूगर नजरों को। गहलोत में दोनों ही गुण हैं। इसी कारण चालीस साल से राजनीति में जमे हुए हैं और दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने में सफल हुए हैं। अब भला इसमें परमार ने गलत क्या कह दिया। वे खुद भी यही सवाल कर रहे हैं कि उन्होंने कुछ गलत कहा क्या? सब जानते हैं कि गहलोत जादूगर घराने से हैं और कांग्रेस हाईकमान पर जादू किए हुए हैं, वरना दुनियाभर के विवादों के बाद भी मुख्यमंत्री पद पर कैसे बने रह सकते थे? कदाचित ऐसा भी हो कि कुछ तुतला कर बोलने के कारण हाईकमान उनमें बच्चे जैसी मासूमियत और सच्चाई समझ कर माफ करता रहा हो। वे पूरे दो-ढ़ाई साल तक शातिर और खांटी नेता सी. पी. जोशी के हर वार को खारिज करते रहे, तो जरूर में उनमें कोई कला ही होगी। और कोई होता तो कब का धराशायी हो जाता।
खैर, बात चल रही थी परमार की। असल में वे बूंदी में कन्या महाविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष के शपथ ग्रहण समारोह में नेताओं के अच्छे गुण बता रहे थे। लगे हाथ गहलोत के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने को उनको भी आदर्श नेता बताने के चक्कर में ऐसा कह बैठे, मगर उनके इस बयान को लेकर हंगामा हो गया। इसे इस अर्थ में लिया गया कि गहलोत धोखा देने में माहिर हैं। हालांकि दयाराम परमार दिल के बड़े साफ आदमी हैं और उन्होंने नेताओं के सर्वोपरि गुण मति भ्रमित करने को ही गिनाया था, मगर यदि उनका मतलब धोखा देने में माहिर होना भी निकाला जाए तो इसमें गलत क्या है? वैसे भी मति भ्रमित करने और धोखा देने में फर्क ही क्या है? मति भ्रमित करने के मतलब भी यही है कि जो है, उससे ध्यान हटा कर कुछ और दिखाना और धोखा देने का मतलब भी यही है। फर्क सिर्फ इतना है कि मति भ्रमित करना कुछ साफ-सुथरा तो धोखा देना कुछ घटिया शब्द है। यानि मूल तत्व वही है, मगर चेहरा अलग-अलग है। कॉलेज की छात्राओं को वे यही सिखा रहे थे कि यदि अच्छा नेता बनना है तो गहलोत की तरह लोगों की मति भ्रमित करना सीख लें। इसमें उन्होंने गलत क्या कह दिया? यह एक सच्चाई ही है। नेता वही कामयाब है जो जनता को वैसा ही दृश्य दिखाए जो उसके अनुकूल होता हो। क्या यह कम बात है कि गहलोत ने पूरे तीन साल तक कांग्रेसियों की मति भ्रमित करके रखी और राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर लॉलीपोप देते रहे। और मजे की बात है कि कोई चूं तक नहीं बोला। भले ही परमार का मकसद गहलोत को धोखेबाज कहना न हो, मगर चूंकि इन दिनों नेताओं पर शनि की महादशा है, इस कारण अर्थ का अनर्थ निकाला जाता है। अल्पसंख्यक विभाग और वक्फ राज्य मंत्री अमीन खान के साथ भी तो यही हुआ था। उन्होंने राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील की तारीफ करने के चक्कर में वह सब कह दिया जो संभांत समाज में नहीं कहा जाता। नतीजतन उन्हें पद गंवाना पड़ा था। माफी भी मांगनी पड़ी। वो तो उनकी शराफत देखते हुए और मुसलमानों की नाराजगी को दूर करने के लिए उन्हें फिर से मौका मिला गया।
वैसे एक बात है, राजनीति में बड़बोलापन तकलीफ ही देता है। पूर्व शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल को भी यही बीमारी थी। बड़बोलेपन के कारण उन्हें कई बार विवाद से गुजरना पड़ा था। वे इतने विवादित हो गए कि आखिर पर से हटा दिए गए। यह एक संयोग ही है कि नए शिक्षा मंत्री परमार भी इसी बड़बोलेपन से ग्रसित हो गए। ये तो पता नहीं कि इस पद के साथ ही कोई चक्कर है, या दोनो वाकई बड़बोले हैं, मगर शिक्षा, ज्ञान और समझदारी देने वाले महकमे के मंत्री ही नासमझी क्यों कर रहे हैं, ये समझ में नहीं आ रहा।
-tejwanig@gmail.com
खैर, बात चल रही थी परमार की। असल में वे बूंदी में कन्या महाविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष के शपथ ग्रहण समारोह में नेताओं के अच्छे गुण बता रहे थे। लगे हाथ गहलोत के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने को उनको भी आदर्श नेता बताने के चक्कर में ऐसा कह बैठे, मगर उनके इस बयान को लेकर हंगामा हो गया। इसे इस अर्थ में लिया गया कि गहलोत धोखा देने में माहिर हैं। हालांकि दयाराम परमार दिल के बड़े साफ आदमी हैं और उन्होंने नेताओं के सर्वोपरि गुण मति भ्रमित करने को ही गिनाया था, मगर यदि उनका मतलब धोखा देने में माहिर होना भी निकाला जाए तो इसमें गलत क्या है? वैसे भी मति भ्रमित करने और धोखा देने में फर्क ही क्या है? मति भ्रमित करने के मतलब भी यही है कि जो है, उससे ध्यान हटा कर कुछ और दिखाना और धोखा देने का मतलब भी यही है। फर्क सिर्फ इतना है कि मति भ्रमित करना कुछ साफ-सुथरा तो धोखा देना कुछ घटिया शब्द है। यानि मूल तत्व वही है, मगर चेहरा अलग-अलग है। कॉलेज की छात्राओं को वे यही सिखा रहे थे कि यदि अच्छा नेता बनना है तो गहलोत की तरह लोगों की मति भ्रमित करना सीख लें। इसमें उन्होंने गलत क्या कह दिया? यह एक सच्चाई ही है। नेता वही कामयाब है जो जनता को वैसा ही दृश्य दिखाए जो उसके अनुकूल होता हो। क्या यह कम बात है कि गहलोत ने पूरे तीन साल तक कांग्रेसियों की मति भ्रमित करके रखी और राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर लॉलीपोप देते रहे। और मजे की बात है कि कोई चूं तक नहीं बोला। भले ही परमार का मकसद गहलोत को धोखेबाज कहना न हो, मगर चूंकि इन दिनों नेताओं पर शनि की महादशा है, इस कारण अर्थ का अनर्थ निकाला जाता है। अल्पसंख्यक विभाग और वक्फ राज्य मंत्री अमीन खान के साथ भी तो यही हुआ था। उन्होंने राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटील की तारीफ करने के चक्कर में वह सब कह दिया जो संभांत समाज में नहीं कहा जाता। नतीजतन उन्हें पद गंवाना पड़ा था। माफी भी मांगनी पड़ी। वो तो उनकी शराफत देखते हुए और मुसलमानों की नाराजगी को दूर करने के लिए उन्हें फिर से मौका मिला गया।
वैसे एक बात है, राजनीति में बड़बोलापन तकलीफ ही देता है। पूर्व शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल को भी यही बीमारी थी। बड़बोलेपन के कारण उन्हें कई बार विवाद से गुजरना पड़ा था। वे इतने विवादित हो गए कि आखिर पर से हटा दिए गए। यह एक संयोग ही है कि नए शिक्षा मंत्री परमार भी इसी बड़बोलेपन से ग्रसित हो गए। ये तो पता नहीं कि इस पद के साथ ही कोई चक्कर है, या दोनो वाकई बड़बोले हैं, मगर शिक्षा, ज्ञान और समझदारी देने वाले महकमे के मंत्री ही नासमझी क्यों कर रहे हैं, ये समझ में नहीं आ रहा।
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