शनिवार, 5 मार्च 2011

स्त्री का अस्तित्व और सवाल


एक सवाल अपने अस्तित्व पर,
मेरे होने से या न होने के दव्न्द पर,
कितनी बार मन होता है,
उस सतह को छु कर आने का,
जहाँ जन्म हुआ, परिभाषित हुई,मै,

अपने ही बनाये दायरों में कैद!
खुद ही हूँ मै सीता और बना ली है,astitva 223x300 स्त्री का अस्तित्व और सवाल
लक्ष्मण रेखा, क्यूंकि जाना नहीं
है मुझे बनवास, क्यूंकि मै
नहीं देना चाहती अग्निपरीक्षा…..
इन अंतर्द्वंद में, विचलित मै,
चीत्कार नहीं कर सकती, मेरी आवाज़
मेरी प्रतिनिधि नहीं है,
मै नहीं बता सकती ह्रदय की पीड़ा ,
क्यूंकि मै स्त्री हूँ,
कई वेदना, कई विरह ,कई सवाल,अनसुलझे?
अनकहे जवाब, सबकी प्रिय, क्या मेरा अपना अस्तित्व,
देखा है मैंने, कई मोड़ कई चौराहे,
कितने दिन कितनी रातें, और एक सवाल,
सपने देखती आँखें, रहना चाहती हूँ,
उसी दुनिया में , क्यूंकि आँख खुली और
काला अँधेरा , और फिर मैं, निःशब्द,
ध्वस्त हो जाता है पूरा चरित्र, मेरा…….
कैसे कह दूँ मैं संपूर्ण हूँ,
मुझमे बहुत कमियां है, कई पैबंद है……….
मै संपूर्ण नहीं होना चाहती,
डरती हूँ , सम्पूर्णता के बाद के शुन्य से
मै चल दूंगी उस सतह की ओर………
ढूंढ़ लाऊँगी अपने अस्तित्व का सबूत…
अपने लिए, मुझे चलना ही होगा,
मैं पार नहीं कर पाउंगी लक्ष्मण रेखा,
मैं नहीं दे पाऊँगी अग्निपरीक्षा,
मैं सीता नहीं,
मैं स्त्री हूँ,
एक स्त्री मात्र!

चौखट पर चीख, चौराहे पर चीरहरण


सदियों से महिलाओं के साथ जैसा दमन और अत्याचार हुआ है वह अकल्पनीय है.सीता और पारवती की आर में पुरषों की साज़िश अब खुलकर सामने आने लगी है.एस देश में स्त्रियों की दशा बद से बदतर होती जा रही है. यह हमारे व्यवहार में आ गया है की हमने स्त्री दमन को सामाजिक स्वरुप दे दिया है. पुरूषों की भोगवादी मानसिकता स्त्रियों को मुक्त देखना पसंद नहीं कर पाती. लेकिन यह भी सही हैकि इसी भोगवादी मानसिकता ने स्त्रियों के लिए रास्ता तैयार किया है और स्त्रियाँ चौखट से निकलकर चौराहें पर आ गयीं है.
breaking free चौखट पर चीख, चौराहे पर चीरहरण पुरुष ने शायद ही कभी इस बात पर ध्यान दिया हो की महिला वैश्याओंकी मंडी क्यूँ अस्तित्व में बनी रही है.लेकिन “मेल स्ट्रिप” का बाज़ार लगता है तो हमारे भौतिक आचरण में सडन आने लगती है.क्यूँ भाई? ऐसा क्यूँ ? क्या स्त्री वैश्या की खोज नहीं कर सकती? देखने सुनने में यह बात भले ही थोड़ी असहज लगे लेकिन यह चेतना के उस धरातल की आजादी है जहाँ सच में बराबरी का बोध होता है.जहाँ स्त्री अपने से अपने बारे में निर्णय लेने के लिया स्वतंत्र है.
यह भी सच है की तथाकथिक आज़ादी का सबसे ज्यादा फ़ायदा बाज़ार उठा रहा है , पुरुष समाज में सदियों से दमित स्त्री देह की लालसा फुटकर बहार निकल रही है. ऐसे में बाज़ार को लगता है की स्त्री देह को जितना बेच सको बेच लो. हमारे आस पास ऐसी घटनाएँ घाट रही है जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते. स्त्री खुले आम अपने देह का पर्दर्शन कर रही है. सुन्दरता का बाजारीकरण हो चूका है.लड़कियां इस पूरी व्यवस्था में यह भूल जाती है की उनका शारीर बाज़ार में रखी कोई वस्तु नहीं है जिसका उद्देश्य किसी और के आनंद और भोगने का माध्यम है.अचानक एक गाना याद आ गया” एक ऊंचा लम्बा कद दूजा सोनी भी तू हद” आगे और भी है. गाने में हीरो कारन बता रहा है की मई क्यूँ तुम पर मरता हूँ. तुम पर मरना की वजह तुम्हारा दिल; दिमाग ,चरित्र नहीं केवल तुम्हारा रूप है. एक ऑब्जेक्ट में तब्दील होती लड़कियां और उपभोक्ता होते पुरुषों की मानसिकता को बनाने में हम सभी का योगदान है.
हम स्त्रियाँ ये नहीं जानती की हम एक व्यवस्था के पंजे में जकड़ी है जो हमे गुलाम करने के नित्य नए तरीके इजाद कर रहा है.जब वे चूल्हे चौखट तक सिमित थी तब भी और अब भी जब वे देहरी के बहार कामयाब होने निकली हैं ,तब भी वे धीमी गति से गुलाम होती जा रही है.जैसा की मधुर भंडारकर की फिल्म फैशन में दिखाया गया है की मॉडल होना एक प्रोफेशन है जिसमे आप केवल एक वस्तु है. एक शारीर जिसे सोचने नहीं दिया जाता जो धीरे धीरे सोचना बंद कर देता है. स्त्री देल aaj  उत्पाद में तब्दील होती जा रही है. इस ब्रेन वश से अज अगर नहीं बचा गया तो स्त्री मुक्ति सदियों दूर हो जाएगी.बार्बी और जीरो फिगर को आदर्श मानने वाली स्त्रियाँ अगर चिन्तनशील है, विचारवान है, अपनी अस्मिता के प्रति सचेत हैं , स्वयं को इन्सान से वस्तु में तब्दील होने देना नहीं चाहती तब शायद चिंता का विषय नहीं है ……………पर क्या वाकई ऐसा है? शायद नहीं.

एक सदी का युद्ध : स्त्री

कई दिनों से सामान बांधे , रेल का टिकेट मेरे पास है…. जाना चाहती थी मै, ऐसी ही यात्रा पर क्यूँ नहीं निकल जाती आज पैर चौखट से निकलते ही नहीं कई बार समझाया, अपनी खुद की व्यथा पर रोई , खुद पर चीत्कार की, जाना ही नियति है, लेकिन पैर ही नहीं उठते मेरे रात का खाना टेबल पर है कपडे सारे धुले हुए अलमारी में…. जाने की सारी तैयारी, पिछली रात को कर ली थी मैंने, फिर क्यूँ खड़ी हूँ मैं , भावशून्य आशंकित, किसका इंतज़ार है, मैंने कितने फैसले सुने, और आज एक फैसला नहीं कर सकती नहीं कर पा रही हूँ, चौखट पार ….. नहीं तोड़ पा रही हूँ मोह की जंजीर, हाथ थामे, कई अनदेखे सपने सूटकेस में बंद, अन्दर आये थे इस चौखट के, बहार तो सिर्फ मुझे जाना है, सारे बीते सालों का मंज़र, मुठी में बंद किये, खड़ी हूँ , आज खुद से नाराज़, हालात से खफा इतनी देर से क्या सोच रही हूँ मै, शायद, पांच बज गए है चाय बना लेती हूँ……………… चौखट पार कर जाती तो….. जीत जाती एक सदी का युद्ध !!!!