गुरुवार, 3 मार्च 2011

क्या सचिन कुत्ता है???

एक खबर है, चौंकाने वाली है, गुस्साने वाली है…यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस पहलू से इस खबर को पढ़ते और समझते हैं। मुझे तो यह खबर चुभ गई, इसलिए मैं इसका पुरजोर विरोध करता हंू। सोच रहा हंू कि अगर मेरे पास भी एक कुत्ता होता तो मैं उसका नाम किसके नाम पर रखता। आप भी सोचिए कि क्या यह सही है???

दरअसल मामला है क्रिकेट के गॉड कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर से जुड़ा हुआ। हुआ यंू कि एशिया में चल रहे वल्र्ड कप क्रिकेट टूर्नामेंट के दौरान साउथ अफ्रीका के बॉलिंग कोच विंसेंट बन्र्स ने एक बयान देकर हम सब भारतीयों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। उन्होंने कहा कि वह सचिन को सबसे ज्यादा मिस करते हैं…चौंकिए मत..यह हमारा सचिन नहीं बल्कि उनका कुत्ता है। उफ…यह क्या हो रहा है…मेरे क्रिकेट के भगवान के नाम पर ही इस कोच को कुत्ते का नाम सुझाई दिया। अरे अगर रखना ही था तो राजा के नाम पर रखा होता, कलमाडी के नाम पर रखा होता। ऐसे तमाम घोटालेबाज और भ्रष्टाचारी हैं, जिनके नाम पर वह अपने कुत्ते का नाम रख सकते थे, लेकिन…। अब इस खबर का दूसरा पहलू यह है कि एक इंडियन ही बन्र्स को क्यों मिला। अगर रखना ही था तो वह पोंटिंग के नाम पर अपने कुत्ते का नाम रखते या फिर अपने शॉन पोलाक के नाम पर रख लेते। हालांकि बन्र्स ने जब मीडिया की तरेरती आंखे देखी तो उन्होंने बात घुमा दी, बिल्कुल बॉल को स्विंग करने के स्टाइल में। उन्होंने जवाब दिया कि दरअसल वह सचिन के सबसे बड़े फैन हैं, इसलिए अपने कुत्ते का नाम सचिन रखा है। अरे साहब, फैन थे तो अपने बच्चे का नाम सचिन रखते, कुत्ते का क्यों रखा? हम बेचारे, हमारी सरकार भी बेचारी…

हर दिन हम भारतीयों को विदेशियों द्वारा अपमान अब आम हो चला है। कहीं अमेरिका हमारे युवाओं के गले में पट्टे डाल रहा है तो कहीं ऑस्ट्रेलिया में हमारे बेटे सरेआम पीटे जा रहे हैं। सरकार खामोश है…नेता चुपचाप हमारे खजाने को विदेशों में भेजने में व्यस्त हैं, जनता आवाज नहीं उठा रही…कैसे होगा बदलाव? दुनियाभर में भारत के लोकतंत्र को वाहवाही मिलती रही है, हमारे टेलेंट को अमेरिका भी जानता है और चीन भी। इसके बावजूद जिसे जब मौका मिलता है, हमारे नेताजी तक के कपड़े भी उतरवा देता है। आखिर हम कब तक ऐसा ही रुख अख्तियार करते रहेंगे? इन लातों के भूतों को अगर हम बातों से मनाने की कोशिश करते हैं तो यह हमारी सबसे बड़ी मूर्खता है। हमें चाहिए कि हम इस साउथ अफ्रीकन बॉलिंग कोच को जवाब दें ताकि जब वह अपने देश जाए तो उसे यह याद रहे कि हम इंडियंस डॉग नहीं हैं, हम इंसान हैं तो हम हैवानों से निपटना भी जानते हैं। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब एक अंग्रेज यहां आकर हमारे देश की किसी भी हस्ती को अपना फेवरेट बताकर उसके नाम पर अपने कुत्तों, बिल्लियों के नामकरण कर चला जाएगा और हम ऐसे ही मुंह ताकते रह जाएंगे।

हम इंडियन है, हमें इस पर गर्व है…जनहित में प्रचारित…जय हिंद।

निन्दक ‘नियरे’ राखिए

निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी-साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय ….बचपन में जब टीचर ने कबीरदास जी का यह दोहा हमें डंडे के बल पर याद करवाया था, तब मैंने कभी नहीं सोचा था कि कभी सचमुच मुझे यह दोहा मन ही मन दोहराकर किसी तरह निन्दकों पर भड़ास निकालने से बचने के उपाय खोजने होंगे. अब काफी हद तक यह समझ में आने लगा है कि बेचारे कबीरदास जी को किस तरह निन्दकों की तमाम पटखनियां सह-सहकर यह दोहा लिखने को मजबूर होना पड़ा होगा. वरिष्ठ साहित्यकार हरिशंकर परसाई ने निंदारस पर केवल एक कहानी लिखकर अपनी भड़ास निकाल ली, लेकिन मेरा मानना है कि निंदारस पर अगर एक उपन्यास लिख डाला जाए तो भी शायद इस रस के माधुर्य को व्यक्त नहीं किया जा सकता. अपनी धोती बचाकर रखने के लिए निन्दक अक्सर निंदा रूपी ब्रह्मअस्त्र का उपयोग किया करते हैं. ऐसे ‘फालतू टॉकिंग एलीमेंट्स’ आपको हर जगह मिल जाएंगे. घर से निकले नहीं की पड़ोस के तिवारी जी कहने लगे ‘आपका सही है, आफिस की गाड़ी में पसरे और निकल लिए…हमारे ऐसे भाग कहां’. ऑफिसेज में तो ऐसे निंदकों की तमाम वैरायटीज अवेलेबल हैं. जो बात-बे-बात आपकी टांग खिंचने का मौका तलाशते रहते हैं, हांलांकि कई बार टांग खिंचने की कोशिश में उन्हें जोरदार लातें भी खानी पड़ती हैं, लेकिन उनका उद्देश्य उन्हें किसी भी हाल में निंदारस से ओत-प्रोत रहने पर मजबूर कर देता है. अपने साथियों की बुराईयों का ब्यौरा दूसरे लोगों को देना यह लोग अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं. कई बार तो लगता है कि यह घर पर जाकर यही प्लानिंग किया करते हैं कि किस तरह अपने तथाकथित भुक्तभोगी को ज्यादा से ज्यादा जलील किया जाए. खुद का जलीलपना यह लोग याद नहीं करना चाहते. आपकी एक सक्सेस के पीछे कितने लोगों की दुआएं हैं यह भले ही आपको पता न चल पाएं, लेकिन मन ही मन कितने लोगों ने आपको गालियां दी हैं इसका पता आपको दो-चार दिन बाद पता चल ही जाता है. अक्सर लाइफ से हारे हुए यह वो लोग होते हैं जो अपनी लाइफ में खुद कुछ नहीं कर पाते, लेकिन समाज सुधारने की बातें करवानी हों तो इनसे बड़ा वक्ता आपको ढूंढे नहीं मिलेगा. लोगों के सामने अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने का गुर कोई इनसे सीखे. समाज सुधारने की बात कहा करते हैं, लेकिन अपने मन में छुपे मैल से मुक्त नहीं हो पाते. ‘मुंह में राम, बगल में छुरी’ लिए यह निंदक बात-बेबात आपको नीचा दिखाने की जुगत भिड़ा रहे होते हैं. आपके अचीवमेंट के चर्चे आपको दूसरे लोगों के व्यंग्यबाण के साथ जब मिलते हैं तो आप झट से समझ जाते हैं कि यह आग अपने रामगोपाल वर्मा की नहीं किसी और की लगाई हुई है. पिछले दिनों एक शो के दौरान शाहरूख खाने कहा था कि ‘बुरा मत देखिए, बुरा मत कहिए, बुरा मत सुनिये….क्योंकि अगर आप ऐसा करेंगे तो कोई आपको अपनी पार्टी में नहीं बुलाएगा. खैर ऐसे लोगों को सुधारा तो नहीं जा सकता बस इतना ही कह सकती हूं कि ‘खुदा तू हमें इन ‘दोस्तों’ से बचाए रखना, दुश्मनों से हम खुद ही निपट लेंगे’

प्रेम कहानियां यूं ही नहीं बनतीं (कोमल )

जब भी प्यार, इश्क की बात होती है तो हम खुद को मजनूं या रांझा का रिश्तेदार समझ लेते हैं. हर किसी की लाइफ में इन प्रेम कहानियों की खास इंपोर्टेंस होती है. किसी ने आपका दर्द पूछा नहीं कि आप तुरंत अपनी प्रेमकथा सुनाने को तैयार हो जाते हैं. हर किसी का अपना-अपना दर्द होता है, लेकिन इस दर्द को बयां करके जो सूकून इंसान को मिलता है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. आज मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. दूसरी सिटी में रहने के कारण मेरा फ्रैंड सर्किल काफी सीमित है. बस यूं ही टहलते हुए मैं एक पार्क तक चली गई. इस पार्क को दून के रिपोटर्स का अड्ढा भी कहा जाता है. यहां पर जर्नलिज्म के कुछ सीनियर्स हमेशा ही मिल जाया करते हैं. यहां पर पहुंची तो एक रीजनल न्यूजपेपर के दो रिपोर्टर यहां पहले से मौजूद थे. आमतौर पर इनसे मैं फील्ड में मिल चुकी हूं, लेकिन बातचीत कम ही होती है. मुझे लगा चलो थोड़ी देर यहीं गपशप कर ली जाए. दोनों जर्नलिस्ट बहुत सीनियर हैं. बात ही बात में चर्चा मेरी शादी तक आ पहुंची. दोनों का कहना था कि ‘कोमल हर काम समय पर होना चाहिए, तुम भी जल्दी शादी कर लो’. मैंने हामी भरी और यूं ही कह दिया कि हां भईया जी जल्द ही शादी कर लूंगी. बात यहां से मुड़ी और प्यार पर आ गई. मैंने उनमें से एक सीनियर से उनके परिवार के बारे में पूछा तो पहले तो वह चुप रहे, लेकिन उनके दूसरे साथी ने कहा कि यह इस बुढ़ापे में भी अपनी लवर का वेट कर रहे हैं. पहले तो मुझे यह मजाक लगा, लेकिन यह मजाक नहीं था. इन सीनियर की उम्र अब चालीस साल क्रास कर चुकी है. उन्होंने बताया कि वह कुमांऊ के एक गांव से बिलांग करते हैं, वहीं पर वह लड़की रहा करती है जिसे उन्होंने प्यार किया. कुमांऊनी ब्राह्म्ण होने के कारण पैरेंट्स ने दूसरी कास्ट की लड़की से शादी करने की इजाजत नहीं दी. बस फिर क्या था मैंने सोच लिया कि अब उसका इंतजार ही करूंगा. मुझे मेरे स्कूटर से बहुत प्यार था और उसकी के सहारे मैं सिटी की गलियां नापा करता था. यह स्कूटर क्योंकि मेरे पापा ने दिया था, इसीलिए मैंने अपने निर्णय के बाद इस स्कूटर को कभी नहीं छुआ. इसके बाद में देहरादून आ गया. कई साल यूं ही बीत गए हैं, लेकिन मैं अकेला ही रहा. उस लड़की को देखे हुए छह साल हो गए हैं, चार साल से उसकी आवाज नहीं सुनी. बावजूद इसके यह रिश्ता इतना गहरा है कि मैं उसकी हर खबर रखता हूं. कोई टेलीफोनिक कम्युनिकेशन नहीं है, लेकिन मुझे पता है कि उसने भी शादी नहीं की. हमेशा चुप रहने वाले इन सीनियर जर्नलिस्ट की बातें सुनकर मैं सोच में पड़ गई कि क्या सचमुच कोई किसी का इतना लंबा इंतजार कर सकता है. बावजूद इसके वह बहुत आशावान हैं और उन्होंने मुझे बताया कि कोमल इस बार मैं जब गांव जाऊंगा तो उससे जरूर मिलूंगा. तुम प्रेयर करना की सब ठीक हो जाए…..

मंजिल मुश्किल तो क्या…धुंधला साहिल तो क्या

गोधरा कांड के जख्म अभी तक नहीं भरे हैं. इस एक कांड ने जहां हमारी अखंडता पर कई सवाल पैदा किए, वहीं हमें यह भी बता दिया की राजनीति की कीचड़ किस तरह इंसानियत पर कालिख पोत रही है. मामले में विशेष कोर्ट का फैसला आ चुका है. जिसमें 11 लोगों को फांसी और 20 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है. इन सबसे इतर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो वैमन्स्यता की इस दीवार को तोड़ देने के लिए दिल से कोशिशों में जुटे हुए हैं. यह लोग भले ही मुट्ठी भर लोग हैं, लेकिन किसी तरह नफरत को खत्म करने की अपनी कोशिशों में कामयाब होने की चाह रखते हैं. अहमदाबाद में वह जगह जहां साबरमती एक्सप्रेस पर हमला हुआ था, वहां हारून नाम का मुस्लिम युवक पिछले आठ महिनों से हिन्दू बस्ती में जाकर बच्चों को पढ़ा रहा है. यह वही जगह है जहां सन् 2002 में साबरमती एक्सप्रेस पर हमला किया गया गया था. यही नहीं इस युवक के साथ एक अन्य मुस्लिम युवक है जो हिंदू बच्चों को पढ़ा रहा है. मंदिर के एक ओर जहां हारून बच्चों को मैथ्स जैसे सब्जेक्ट पढ़ा रहा होता है, वहीं दूसरा युवक इमरान दूसरे सब्जेक्ट्स पढ़ाता है. गोधरा केस से छूटने वाले अपने एक रिश्तेदार की खबर सुनकर हारून फिर से अपने काम में तल्लीन हो गया है. राम मंदिर के आस-पास स्लम एरिया के हिंदू बच्चों को एजुकेटेड करने का बीड़ा उठाए हारून ने बीए और बीएड किया है. राम मंदिर में शाम को छह बजे से नौ बजे तक क्लासेज चलती हैं और यह क्लासेज यहां पर गोधरा के डॉ. शुजात वली ने शुरु करवाई हैं. इन टीचर्स का कहना है कि यहां पर ट्रस्टियों ने मुस्लिम युवकों द्वारा पढ़ाए जाने की व्यवस्था कबूल कर ली है. इन युवकों को यहां पर पढ़ाने में कोई परेशानी नहीं होती. यही नहीं स्लम एरिया के इन बच्चों को एजुकेटेड बनाने के मिशन से जुड़े इन युवकों ने कई अच्छी नौकरियों को भी एक्सेप्ट नहीं किया. एक ओर जहां गोधरा कांड का फैसला सुनाया जा रहा था और इस कांड को कोर्ट ने साजिश के तहत हुए कांड के रूप में स्वीकारा. वहीं इमरान और हारून जैसे युवक बस किसी तरह हालात को सुधारना चाहते हैं. इनका मानना है कि इनके द्वारा पढ़ाए गए बच्चे कभी मुसलमानों को घृणा की नजर से नहीं देखेंगे. यह युवक दंगों के दिए गए जख्मों को किसी तरह भरने की कोशिश में जुटे हुए हैं.

मंजिल मुश्किल तो क्या…धुंधला साहिल तो क्या

गोधरा कांड के जख्म अभी तक नहीं भरे हैं. इस एक कांड ने जहां हमारी अखंडता पर कई सवाल पैदा किए, वहीं हमें यह भी बता दिया की राजनीति की कीचड़ किस तरह इंसानियत पर कालिख पोत रही है. मामले में विशेष कोर्ट का फैसला आ चुका है. जिसमें 11 लोगों को फांसी और 20 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है. इन सबसे इतर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो वैमन्स्यता की इस दीवार को तोड़ देने के लिए दिल से कोशिशों में जुटे हुए हैं. यह लोग भले ही मुट्ठी भर लोग हैं, लेकिन किसी तरह नफरत को खत्म करने की अपनी कोशिशों में कामयाब होने की चाह रखते हैं. अहमदाबाद में वह जगह जहां साबरमती एक्सप्रेस पर हमला हुआ था, वहां हारून नाम का मुस्लिम युवक पिछले आठ महिनों से हिन्दू बस्ती में जाकर बच्चों को पढ़ा रहा है. यह वही जगह है जहां सन् 2002 में साबरमती एक्सप्रेस पर हमला किया गया गया था. यही नहीं इस युवक के साथ एक अन्य मुस्लिम युवक है जो हिंदू बच्चों को पढ़ा रहा है. मंदिर के एक ओर जहां हारून बच्चों को मैथ्स जैसे सब्जेक्ट पढ़ा रहा होता है, वहीं दूसरा युवक इमरान दूसरे सब्जेक्ट्स पढ़ाता है. गोधरा केस से छूटने वाले अपने एक रिश्तेदार की खबर सुनकर हारून फिर से अपने काम में तल्लीन हो गया है. राम मंदिर के आस-पास स्लम एरिया के हिंदू बच्चों को एजुकेटेड करने का बीड़ा उठाए हारून ने बीए और बीएड किया है. राम मंदिर में शाम को छह बजे से नौ बजे तक क्लासेज चलती हैं और यह क्लासेज यहां पर गोधरा के डॉ. शुजात वली ने शुरु करवाई हैं. इन टीचर्स का कहना है कि यहां पर ट्रस्टियों ने मुस्लिम युवकों द्वारा पढ़ाए जाने की व्यवस्था कबूल कर ली है. इन युवकों को यहां पर पढ़ाने में कोई परेशानी नहीं होती. यही नहीं स्लम एरिया के इन बच्चों को एजुकेटेड बनाने के मिशन से जुड़े इन युवकों ने कई अच्छी नौकरियों को भी एक्सेप्ट नहीं किया. एक ओर जहां गोधरा कांड का फैसला सुनाया जा रहा था और इस कांड को कोर्ट ने साजिश के तहत हुए कांड के रूप में स्वीकारा. वहीं इमरान और हारून जैसे युवक बस किसी तरह हालात को सुधारना चाहते हैं. इनका मानना है कि इनके द्वारा पढ़ाए गए बच्चे कभी मुसलमानों को घृणा की नजर से नहीं देखेंगे. यह युवक दंगों के दिए गए जख्मों को किसी तरह भरने की कोशिश में जुटे हुए हैं.

समाज सुधार का ठेका

(तथाकथित) समाज सुधारकों को भला कौन नहीं जानता….इनकी अलग-अलग वैरावटी वाले लोग कभी न कभी आपसे भी जरूर टकराए होंगे. दूसरों को बिना मतलब सुधरने की राय देना इनकी फितरत में शुमार होता है. चलिए आपको भी इनकी अलग-अलग वैरायटी से रूबरू करा दूं. इनकी जो सबसे बड़ी क्वालिटी होती है वह है मामला भांपकर तुरंत रंग बदल लेना. जिस रौ में हवा बह रही होती है, यह तुरंत संग हो लेते हैं. आप जितना चाहें बच लें, घर-बाहर हर जगह से यह आपको खोज-खोजकर निकाल ही लेते हैं. ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाक्य को यह खुद में उतार लेते हैं. तभी तो खुद में चाहे तमाम बुराईयां हों, लेकिन इनके अंदर बैठा जानवर इन्हें खुद की बुराई करने की कतई इजाजत नहीं देता. सबसे मजेदार बात यह है कि समाज के सुधरने से ज्यादा इनके खुद के सुधरने की जरूरत होती है, लेकिन नहीं जी ये कोई ऐंवे ही हार थोड़े ही मानेंगे तथाकथित बुद्धिजीवी जो ठहरे. अब यह नहीं रहेंगे तो समाज की तो इज्जत लुट जाएगी न…..अपनी ढपली पर अपना राग सुनाने के साथ ही दूसरों की वाहवाही बटोरने लूटने की चाह इनकी नस-नस में समाई होती है. आप एक बार इनके (तथाकथित) समाज सुधार प्रोग्राम की पोल भर खोल दीजिए फिर देखिये ये किस तरह हाथ धोकर (नहा धोकर) आपके पीछे पड़ जाएंगे. अपने व्यंग्य बाणों से यूं बताएंगे कि ‘हीरो बात को जितनी जल्दी समझ ले अच्छा है, नहीं तो यही बात हम थप्पड़ मार कर भी समझा सकते हैं’. व्यंग्य के इतने तीर आप पर छोड़े जाएंगे और कुछ यूं घायल किया जाएगा कि आप तुरंत अपने हथियार फेंककर इनके शागिर्दी करने को तैयार हो जाएंगे.
ऐसा बिल्कुल मत सोचिए कि यह आपसे बहुत ‘कुछ’ चाहते हैं. आप तो बस इनकी हां में हां मिलाते रहिए, फिर देखिए इनकी भी वाह-वाह और आपकी भी. आप इनकी तारीफ में दो पंक्तियां लिख दें, यह आठ लिखेंगे और (स्व) समाज सुधार की राह में आपको भी अपने साथ ले लेंगे. फिर तो बस दुनिया में दो ही समाज सुधारक रह जाएंगे…एक यह महानुभाव और एक आप. अपने दोहरे चेहरे और डबल स्टैंडर्ड मैंटेलिटी को चालाकी से छिपा जाना कोई इनसे सीखे. मुंह में राम, बगल में छुरी रखे अपने यह (तथाकथित) समाजसुधारक साथी सुधार का नाम लेकर समाज का बैंड बजाने से भी पीछे नहीं हटते. इनका जितना गुणगान करते हुए शब्द खत्म हो जाएंगे, लेकिन समाज सुधारकों और सुधार की संभावनाएं नहीं
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