बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

काशी कथा वाया मोहल्ला अस्सी


काशी कथा वाया मोहल्ला अस्सी
Hum Tum special article
काशी की जिंदगी के महžवपूर्ण हिस्से और धर्म की धुरी कहे जाने वाले मोहल्ला अस्सी पर हिंदी के अनूठे कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' के शब्दों को पिघलाकर चलते हुए चित्रों में तब्दील किया जा रहा है।

बनारस के घाटों की गोद में अलसायी सी लेटी गंगा को सुबह सुबह देखिए। सूरज पूर्व से अपनी पहली किरण उसे जगाने को भेजता है और अनमनी सी बहती गंगा हवा की मनुहारों के साथ अंगड़ाई लेती है। नावों के इंजन घरघराते हैं, हर हर महादेव की ध्वनियां गूंजती हैं। लोग डुबकियां लगा रहे हैं। यह मैजिक ऑवर है, रोशनी के लिहाज से।

डा.चंद्रप्रकाश द्विवदी निर्देशित फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' की यूनिट नावों में सवार है। वे इसी जादुई रोशनी के बीच सुबह का शिड्यूल पूरा कर लेना चाहते हैं। काशी की जिंदगी के महžवपूर्ण हिस्से और धर्म की धुरी कहे जाने वाले मोहल्ला अस्सी पर हिंदी के अनूठे कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' के शब्दों को पिघलाकर चलते हुए चित्रों में तब्दील किया जा रहा है। यह सिनेमा और साहित्य के संगम का अनूठा अवसर है। हम घूमने बनारस गए हैं और देखा कि वहां शूटिंग भी चल रही है तो यह यात्रा अपने आप में नई हो गई।

यह बेहद दिलचस्प है कि एक प्रतिबद्ध वामपंथी लेखक काशीनाथ सिंह की कृति पर एक समृद्ध इतिहासबोध वाले लेकिन विचारधारा में दक्षिणपंथी कहलाने वाले डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी फिल्म बना रहे हैं। दो धाराओं का यह संगम हुआ कैसे?

बकौल डॉ. द्विवेदी, जब उन्होंने उपन्यास पढा तो वे इसकी कहानी और शिल्प को लेकर चकित थे। इतिहास मुझे प्रिय रहा है और है लेकिन मैं अपने ऊपर लगे इतिहासवादी लेबल से भी अलग कुछ करना चाहता था। मैंने लगातार काशीनाथ जी से संपर्क रखा और वे मेरी दृष्टि से सहमत हुए। मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि उपन्यास की आत्मा वही रहेगी। बस कोई बदलाव होगा तो वह सिनेमाई जरूरत के हिसाब से होगा।

काशीनाथ सिंह कहते हैं, मैं उनके दक्षिणपंथी रूझान से वाकिफ रहा हूं लेकिन डा. साहब की बातचीत और उपन्यास को लेकर नजरिए से मैं आश्वस्त था। फिर मैंने उनकी फिल्म पिंजर देखी और यह पुख्ता हो गया कि डा. द्विवेदी से बेहतर इस पर कोई फिल्म नहीं बना सकता। काशीनाथ सिंह यह कबूल करते हैं कि इस खबर के बाहर आते ही इंडस्ट्री के दो बड़े निर्देशकों ने उनसे संपर्क किया था लेकिन अव्वल तो मैं डा. साब को जुबान दे चुका था और दूसरे मैं आश्वस्त नहीं था कि वे लोग उस तरह विषय के साथ न्याय कर पाएंगे जैसा मुझे डा. चंद्रप्रकाश द्विवेदी पर यकीन है।

लेखक और निर्देशक के आपसी यकीन का आलम यह है कि फिल्म की पटकथा डा. द्विवेदी ने लिखी है और काशीनाथ सिंह ने उसे पढ़ना जरूरी नहीं समझा। वे कहते हैं, इससे किसी निर्देशक की मेहनत का अपमान होता कि मैं उन पर भरोसा नहीं कर रहा। मैं मानता हूं कि उपन्यास में कंकाल तो मेरा है लेकिन उसको मांस मज्जा की सिनेमाई जरूरत से भरने का हक निर्देशक का ही है और उसमें कहानी के लेखक होने के नाते मुझे दखल नहीं करनी चाहिए।

आप शूटिंग के दौरान देख सकते हैं कि मुंह में पान दबाए धोती कुर्ते में काशीनाथ सिंह, रामबचन पांडे, गया सिंह सब के सब बेतकल्लुफी से किसी भी वैनिटी वैन में आ जा रहे हैं। अपनी ही भूमिका निभा रहे चरित्रों से मिल रहे हैं और उन्हीं संवादों को सुनते हुए अभिभूत हैं जो उनके मुंह से उपन्यास में कहे गए हैं। बनारस के लोगों के बीच अचानक से ये सब लोग महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।

पहले वे इन्हें नाम से जानते ही थे लेकिन अब यह भी देखा है कि किस तरह उनकी इज्जत की जा रही है। बहरहाल, जिन लोगों ने उपन्यास पढा है, वे जानते हैं कि इसमें काशी में प्रचलित गालियां जुबान का हिस्सा हैं और जैसा कि निर्देशक और लेखक दोनों की मानते हैं कि गालियां फिल्म में रहेंगी ही क्योंकि वे अश्लील होने से कहीं ज्यादा उस भाषायी संस्कृति का बोध कराती हैं जो बनारस और अस्सी घाट की परंपरा रही है। काशीनाथ सिंह हंसते हुए कहते हैं, 'डा. साब ने मुझे आश्वस्त किया है कि कहानी में इस्तेमाल 53 गालियां ज्यों की त्यों फिल्म के संवादों में हैं।'

पप्पू की दुकान के रूपक के माध्यम से पूरी कहानी समकालीन परिदृश्य में घटित होती है, जिसके अपने राजनीतिक मायने हैं और बकौल निर्देशक इसे कला फिल्म समझने की कोई गलती नहीं करनी चाहिए। हमारे समय के बदलाव को लेकर नए और पुराने के संघर्ष को लेकर यह एक जबरदस्त कहानी है, जिसमें मनोरंजन घुला हुआ है।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि कहानी में आने वाले पात्रों के असली किरदार भी शूटिंग स्थल पर मौजूद रहे हैं जिनमें खुद काशीनाथ सिंह के अलावा रामबचन पांडे, गया सिंह, पप्पू चाय वाला और तन्नी गुरू के परिवार के लोग। फिल्म के मुख्य कलाकार सन्नी देओल कहते हैं, 'डा. द्विवेदी ने कमाल कर रहे है, खासकर मैं समझता हूं यह मेरे लिए सबसे चुनौतीपूर्ण और सुख देने वाली भूमिका रही है। वे परफेक्शनिस्ट हैं। अपने संवादों के साथ छेड़छाड़ करने की इजाजत कलाकार को नहीं देते।' फिल्म के दूसरे कलाकार रवि किशन कहते हैं, 'सच कहूं तो मैं सैट पर कई बार संवाद इप्रोवाइज करता हंू लेकिन डॉ. साब ने हमें स्क्रिप्ट पढने के लिए बाध्य किया। हमें डॉयलॉग्स याद करने पड़े ताकि उन्हें बोलते समय हमारे भाव अपनी भूमिका के मुताबिक बने रहें।'

एक साहित्यिक कहानी पर दांव खेलने वाले निर्माता विनय तिवारी कहते हैं, 'मैंने उपन्यास पहले से ही पढा था। बनारस के मोहल्ला अस्सी के बहाने यह हमारे समय की सबसे जादुई कहानी मुझे लगती है और संयोग देखिए कि डा. द्विवेदी यह फिल्म निर्देेशित करना चाहते थे और मैं चाहता था कि अपनी कंपनी की पहली फिल्म की शुरूआत इसी कहानी से करूं।'

काशीनाथ सिंह कहते हैं, 'हिंदी लेखकों में बहुत लोगों ने मुंबई जाकर सिनेमा में लिखने की कोशिश की, जिनमें प्रेमचंद भी शामिल हैं, लेकिन शायद ही कोई हो, जो अपमानित होकर ना लौटा हो, या कड़वे अनुभव लेकर नही आया हो। ऎसे में इन लोगों को लेखक के प्रति आदर बेहतर है।' काशीनाथ सिंह यह भी कहते हैं कि उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि इस उपन्यास पर फिल्म बनेगी। लिखते समय उनकी मंशा यह रही कि वे उपन्यास के परंपरागत ढांचे को तोड़े जिसमें संस्मरण, यथार्थ और कल्पना के साथ कथा तžव रखा।

'यथार्थ को रचनात्मक बनाना पड़ता है। मैंने असली लोगों के पात्र रचे और वे जिधर जा रहे थे, उन्हें जाने दिया। इस तरह आप कह सकते हैं मैं किसी एक पात्र में नहीं हूं, थोड़ा थोड़ा सब में हूं।' लेखन में विचारधारा के आरोपण पर वे कहते हैं, 'मैं अकसर समाज को बदलने की इच्छा रखने वाले विद्रोही लेखक के रूप में अपनी कहानियों में रहा लेकिन रूसी समाजवाद के विघटन के बाद जो भरोसा था, वह हिला और उसका पूरा दबाव भी काशी का अस्सी के पात्रों पर आया। हालांकि लिखने के दौरान मैं मार्क्सवादी बना रहा और मुझे यह भी लगता रहा कि सारी राजनीतिक पार्टियां अब एक जैसी हो गई हैं।' डा. द्विवेदी कहते हैं, लेखक की यह दुविधा हमारे नायक में भी है। नए-पुराने के द्वंद्व हैं। आस्था का संकट है। दुनिया बदल रही है। उपन्यास की मूल आत्मा फिल्म में है।

फिल्म को एक हिस्सा मुंबई में सैट लगाकर किया गया। पप्पू की दुकान से सारा सामान खरीदकर उसे असली लुक देने की कोशिश की गई। नामवर सिंह ओर काशीनाथ सिंह ने जब मुंबई जाकर सैट देखा था तो वे अवाक थे कि किस तरह बनारस की गलियां हूबहू वहां खड़ी कर दी गई हैं। और बाकी हिस्सा बनारस में शूट हुआ। निर्देशक कहते हैं, आप ही सोचिए क्या गंगा और बनारस के घाटों को कोई भी विकल्प हो सकता है। हमें पता था कि एक तो विषय ऎसा है और दूसरा हमारा राजनीतिक माहौल ऎसा हो गया है कि आप सोच नहीं सकते कि कब क्या हो जाए लेकिन अच्छा यह है कि बनारस के लोगों ने हमें पूरी मदद की।

और इस पूरे फिल्मी माहौल के बीच बनारस के सब लोग मस्त हैं। घाट पर बच्चे कुछ फिरंगी महिलाओं को अपने दीपक बेचने की फिराक में पीछे लगे हैं। वे मुस्कराते हुए उन्हें पीछे कर रही हैं। वे सब दोस्त हो गए हैं। वे बच्चे लपकों की तरह नहीं हैं। तत्काल समझ में आ जाता है कि वे विलायती बालाएं ओर देसी बच्चे आपस में एक दूसरे को पहले से ही जानते हैं, वे हिंदी बोलते हुए उन्हें आश्वस्त करती हैं, 'आज नहीं, कल खरीदेंगी।' और बच्चे फुदकते हुए नए ग्राहक को ढूंढने लगते हैं। सिगरेट के सुट्टे लगाती लड़कियों की ओर हमारा मोबाइल कैमरा देखकर एक लोकल गाइड कहता है,

'वाई आर यू टेकिंग पिक्स।' और हम कहते हैं, 'अपना काम करो भाई।' उसने हमारी शिकायत की है उन्हीं लड़कियों और लड़कों से, 'गायज, दे आर टेकिंग योर स्नैप्स।' लड़कियां हमें अपने फोटो दिखाने को और डिलीट करने को कहती हैं और कारण पूछा तो बताया गया कि वे फिल्म की यूनिट का हिस्सा हैं। उन्हें डायरेक्टर ने मना किया है कि वे उनकी अनुमति के बिना किसी को फोटो नहीं खींचने देंगी।

अस्सी घाट पर चाट वाले ने हमारे लिए चाट बनाई है। उससे पानी मांगा तो उसने यह काम अपने वेटर को बोला है। वेटर टाल गया है। तीन चार बार याद दिलाने पर उसने खुद जग उठाया है। पानी भरा है और यह क्या? गटागट खुद पी गया है। हमारी हंसी नहीं थम रही है, 'ये बनारस है, ग्राहक बैठा है और तुम खुद पानी पिए जा रहे हो।' और उसने मुस्कराकर जबाब दिया है, 'तो क्या हो गया भइया, हमको भी तो प्यास लगी है। आप अब पी लीजिए।' और उसने जग हमें थमा दिया।
दिनेश पारीक

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

माँ , तुमने महिषासुर का संहार किया

माँ , तुमने महिषासुर का संहार किया
नौ रूपों में अपने
नारी की शक्ति को समाहित किया !
अल्प बुध्धि - सी काया दी
वक्त की मांग पर तेज़
जब-जब अत्याचार बढ़ा
तुमने काया कल्प किया !
रक्त में ज्वाला
आँख में अग्नि
मस्तिष्क में त्रिशूल बन धधकी !
कमज़ोर नहीं है नारी
जाने है दुनिया सारी
माँ तेरी कृपा है हर उस घर में
जहाँ जन्म ले नारी !!!
पहले पहल किसने छुई?
किया किसने अविष्कार धागे के साथ
तेरा रिश्ता? तुम पहले पहल
कैसी थी और अब से कितनी अलग?
कोई औरत सी रही होगी अलाव के पास चमड़े और पत्ते
इसके पहले कि हो बंर्फबारी
हो जाए हालत बद से बदतर
मर्द जबकि लड़ते थे
पत्थरों के हथियारों से जंगलों की लड़ाई
एक औरत
लड़ रही थी सुई से
बुरे मौसमों के विरुध्द
उस औरत को भी
नहीं मालूम
कि सी दी थी
उसने कितनी बड़ी
आदिम सभ्यता की
चादर
वह इसलिए
नहीं सोई
कि उसके मर्द
बच्चों के लिए
गुफा में
सिमटी रहे
थोड़ी-सी गर्मी
नींदों में भी
सुनाई न पड़े
दु:खों की गुर्राहट
फिर पीले पत्ते उड़े
जंगल
अग्रि-पर्वतों में तब्दील हुए पत्ते झुलसे
स्वप् राख हुए तब भी औरत
बना रही थी एक नक्षत्राकार तंबू
बिन थके
बिन थके
आखिरकार उसने बुन ही डाला
संसार का ताना-बाना टांक दिए
आकाश में खरबों सलमे-सितारे
उससे इसको जोड़ा इससे उसको
और पूरी पृथ्वी को ही
उसने बना डाला उष्णऊनों का
धड़कता हुआ गोला शुरु से
जो पास रही औरत के वह थी यही एक
नन्हीं सुई ऊंगलियों के
पोरों में असंख्य बार चुभी, छलकी आंखें
पर न औरत रुकी न ही पृथ्वी...

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मेरी बिटिया

उसके होने से ही
पावन है घर-आँगन,
उसकी चंचल चितवन
मोह लेती हम सबका मन,

वो रूठती
तो रुक जाते हैं
घर के काम सभी,
वो हँसती

तो झर उठते हैं
हरसिंगार के फूल,
महक उठता है
घर का कोना-कोना,
जाने कैसे हैं वे लोग
जो बेटियों को
जन्मने ही नहीं देते
हम तो सह नहीं सकते
अपनी बेटी का
एक पल भी घर में न होना .

बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

एक स्त्री के बारे में....?

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न एक स्त्री का एकांत?

घर प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी
जमीन के बारे में बता सकते हो तुम?

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को उसके घर का पता?

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित करती है एक स्त्री?

सपनों में भागती एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में अपने-आपसे लड़ते?

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के मन की गाँठ खोलकर
कभी पढ़ा है तुमने उसके भीतर का खेलता इतिहास?
पढ़ा है कभी उसकी चुप्पी की दहलीज पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को?

उसके अंदर वंशबीज बोते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर?

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण?

बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा?

अगर नहीं!
तो फिर क्या जानते हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में....?

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

मेरी कविताओं का संग्रह: ब्लॉग पे सेक्स की जानकारी नहीं बल्कि सेक्स केस कि...

मेरी कविताओं का संग्रह: ब्लॉग पे सेक्स की जानकारी नहीं बल्कि सेक्स केस कि...: मेरे प्यारे मित्रो और साथियों पहले तो मैं आप सब से माफ़ी चाहता हु की मैं काफी दिनों के बाद ब्लॉग जगत में आया हु किसी अन्य जरुरी काम की वजह ...

प्रेम कहानियां यूं ही नहीं बनतीं (कोमल )

जब भी प्यार, इश्क की बात होती है तो हम खुद को मजनूं या रांझा का रिश्तेदार समझ लेते हैं. हर किसी की लाइफ में इन प्रेम कहानियों की खास इंपोर्टेंस होती है. किसी ने आपका दर्द पूछा नहीं कि आप तुरंत अपनी प्रेमकथा सुनाने को तैयार हो जाते हैं. हर किसी का अपना-अपना दर्द होता है, लेकिन इस दर्द को बयां करके जो सूकून इंसान को मिलता है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. आज मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. दूसरी सिटी में रहने के कारण मेरा फ्रैंड सर्किल काफी सीमित है. बस यूं ही टहलते हुए मैं एक पार्क तक चली गई. इस पार्क को दून के रिपोटर्स का अड्ढा भी कहा जाता है. यहां पर जर्नलिज्म के कुछ सीनियर्स हमेशा ही मिल जाया करते हैं. यहां पर पहुंची तो एक रीजनल न्यूजपेपर के दो रिपोर्टर यहां पहले से मौजूद थे. आमतौर पर इनसे मैं फील्ड में मिल चुकी हूं, लेकिन बातचीत कम ही होती है. मुझे लगा चलो थोड़ी देर यहीं गपशप कर ली जाए. दोनों जर्नलिस्ट बहुत सीनियर हैं. बात ही बात में चर्चा मेरी शादी तक आ पहुंची. दोनों का कहना था कि ‘कोमल हर काम समय पर होना चाहिए, तुम भी जल्दी शादी कर लो’. मैंने हामी भरी और यूं ही कह दिया कि हां भईया जी जल्द ही शादी कर लूंगी. बात यहां से मुड़ी और प्यार पर आ गई. मैंने उनमें से एक सीनियर से उनके परिवार के बारे में पूछा तो पहले तो वह चुप रहे, लेकिन उनके दूसरे साथी ने कहा कि यह इस बुढ़ापे में भी अपनी लवर का वेट कर रहे हैं. पहले तो मुझे यह मजाक लगा, लेकिन यह मजाक नहीं था. इन सीनियर की उम्र अब चालीस साल क्रास कर चुकी है. उन्होंने बताया कि वह कुमांऊ के एक गांव से बिलांग करते हैं, वहीं पर वह लड़की रहा करती है जिसे उन्होंने प्यार किया. कुमांऊनी ब्राह्म्ण होने के कारण पैरेंट्स ने दूसरी कास्ट की लड़की से शादी करने की इजाजत नहीं दी. बस फिर क्या था मैंने सोच लिया कि अब उसका इंतजार ही करूंगा. मुझे मेरे स्कूटर से बहुत प्यार था और उसकी के सहारे मैं सिटी की गलियां नापा करता था. यह स्कूटर क्योंकि मेरे पापा ने दिया था, इसीलिए मैंने अपने निर्णय के बाद इस स्कूटर को कभी नहीं छुआ. इसके बाद में देहरादून आ गया. कई साल यूं ही बीत गए हैं, लेकिन मैं अकेला ही रहा. उस लड़की को देखे हुए छह साल हो गए हैं, चार साल से उसकी आवाज नहीं सुनी. बावजूद इसके यह रिश्ता इतना गहरा है कि मैं उसकी हर खबर रखता हूं. कोई टेलीफोनिक कम्युनिकेशन नहीं है, लेकिन मुझे पता है कि उसने भी शादी नहीं की. हमेशा चुप रहने वाले इन सीनियर जर्नलिस्ट की बातें सुनकर मैं सोच में पड़ गई कि क्या सचमुच कोई किसी का इतना लंबा इंतजार कर सकता है. बावजूद इसके वह बहुत आशावान हैं और उन्होंने मुझे बताया कि कोमल इस बार मैं जब गांव जाऊंगा तो उससे जरूर मिलूंगा. तुम प्रेयर करना की सब ठीक हो जाए…..

नारी किसी से न हारी

नारी किसी से न हारी 

Pariwar Special articleईश्वर की रची सर्वाधिक सुंदर कृति है 'स्त्री'। प्रकृति ने उसे कोमल अवश्य बनाया है , पर उसने  परंपराओं से बाहर  निकलकर मील के पत्थर कायम किए हैं। लेकिन अपनी खास पहचान बनाने के बाद भी कदम-कदम पर उसके लिए चुनौतियां हैं। कभी वह इनसे उबरकर पंख लगाकर उड़ती है तो कभी संघर्ष में उलझ जाती है। आइए, उन्हीं से जानते हैं कि मुश्किलों से भरा यह सफर उन्होंने कैसे तय किया।

पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में सामंजस्य
एक कामकाजी महिला के नजरिए से मेरा मानना है औरतों के सामने सबसे बड़ी चुनौती  अपनी पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में बैलेंस बनाकर चलना है। अकेली औरत घर को संभालें या ऑफिस को। ऎसे में प्राथमिकताएं तय करना मुश्किल हो जाता है। महंगाई के मौजूदा दौर में घर-गृहस्थी को चलाने के लिए पति-पत्नी दोनों का कमाना जरूरी हो गया है। महिलाएं भाग्यशाली हैं कि कई काम जैसे टीचर, रिसेपशनिस्ट आदि के लिए उन्हें उपयुक्त माना जाता है पर चूंकि पुरूषों की भांति उनकी जिम्मेदारी केवल दफ्तर तक सीमित नहीं है इसीलिए योग्य होते हुए भी वे कॅ रियर के क्षेत्र मे दोहरी जिम्मेदारी के चलते पिछड़ जाती हैं। घर और बाहर के काम में सामंजस्य बैठाना ही बहुत बड़ी चुनौती है।      

अमरप्रीत सब्बरवाल
नेशनल ट्रेनर

खूबसूरती है पैमाना
स्त्री को हमेशा सौंदर्य के मापदंडों पर तोला जाता है। वह कितनी भी अक्लमंद या टैलंटेड क्यों न हो, पुरूष उसके दैहिक सौंदर्य से ही उसे परखते हैं। एक लड़की का खूबसूरत होना उसके विवाह की पक्की गारंटी समझा जाता है। लड़का चाहे कैसा भी हो, पर पत्नी उसे सुंदर ही चाहिए। ऎसे में कितनी लड़कियों के ब्याह नहीं होते या उनमें से ज्यादातर मन मे कंुठाएं पाल लेती हैं या हीनभावना से ग्रसित हो जाती हैं। जबकि बेहद खूबसूरत çस्त्रयों के पति अक्सर असुरक्षित महसूस करते है,ं आत्मकुंठित हो जाते हैं। कार्यस्थलों पर, जहां मापदंड आकर्षक व्यक्तित्व का होता है, वहां अक्सर छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न, अनैतिक संबंध भी इसी मनोदशा के परिचायक हंै। 


महंगाई डायन खाए जात है
एक महिला के समक्ष आज सबसे 
बड़ी चुनौती घर का खर्च चलाने की है। बढ़ती महंगाई ने मध्यमवर्गीय परिवारों की कमर तोड़ कर रख दी है। महीने के आखिर तक आते-आते तो एक-एक रूपया सोच समझकर खर्च करना पड़ता है। महीने के आखिरी दिन इसी जद्दोजहद में गुजर जाते हैं कि सीमित आय में घर का खर्च कैसे चलाएं। जरूरतें तो दिन-ब-दिन बढ़ती ही हैं पर कीमतों में इजाफ ा होने से बजट गड़बड़ा रहा है। लिविंग स्टैंडर्ड मेनटेन करना मध्यम वर्ग के लिए मुश्किल हो 
गया है।

शिवांगी जैन
गृहिणी

एक परिघि है
मेरा मानना है कि एक औरत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है अपना कॅरियर बनाना। कॅरियर के लिहाज से आज भी महिला के पास बहुत सीमित विकल्प हैं। कामकाज के सिलसिले में कई बार घर से बाहर आने-जाने और रहने वाली लड़कियों के चरित्र पर उंगली उठाई जाती है। चूंकि स्त्री हर कहीं रह नहीं सकती, जा नहीं सकती, ठहर नहीं सकती, ये सीमाएं उसे कमजोर बना देती हैं और वो अपनी काबिलियत सिद्ध नहीं कर पाती। जब वह पुरूष प्रधान समाज के मापदंडों पर खरा उतरने का प्रयास करती है तो उसे कई समझौतेे करने पड़ते हैं। बराबरी का हक देना तो दूर, समाज के कर्णधार लोग उसे हर क्षेत्र में दबाना चाहते हैं

रविवार, 2 अक्टूबर 2011

हिन्दी ब्लौगिंग को समृद्ध कीजिये

मसला कोई भी और कितना भी बिगड़ा हुआ क्यों न हो लेकिन वह जब भी सुलझेगा , बातचीत से ही सुलझेगा .
यह एक अहम सूत्र है.
ब्लॉगर्स मीट वीकली का मकसद यही है कि फासले कम हों और गलतफहमियां दूर हों .
आप सभी के विचार अमूल्य हैं , हिन्दी ब्लौगिंग को समृद्ध करने में इनका उपयोग करें.

 ब्लॉगर्स मीट वीकली (11)