सोमवार, 30 अप्रैल 2012

एक दिन की सुबह ने कहा


एक दिन की सुबह ने कहा - आप कहा हो ???
दूसरी तरफ से आवाज़ आयी, इस वक़त में डूब रही हु  अपने यकीन में _ इतने में उपर से आवाज़  आई मैं वो असमान हूँ जहा तुम दोनों की दोस्ती हुई थी ,
रोज़ ये दिन आता जाता है ,इन्सान वही रह जाता  है,
कितनी सदिया बीत गयी मेरी आँखों मै
पर हर बार मै यु हु छुट गया
जब लिखा वक़त ने अपना इतिहास तो ,
उस ने मुझे रात और दिन मै   बाट दिया
दिनेश पारीक

रविवार, 22 अप्रैल 2012

मेरा बचपन

खिला एक फूल फिर इन रेगिस्तान में.
मुरझाने फिर चला दिल्ली की गलियों में.
ग्रॅजुयेट की डिग्री हाथ में थामे निकल गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......

खो गया इस भागती भीड़ में वो.
रोज़ मरा बस के धक्कों में वो.
दिन है या रात वो भूल गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........

देर से रात घर आता है पर कोई टोकता नहीं.
भूख लगती है उसे पर माँ अब आवाज लगाती नहीं.
कितने दिन केवल चाय पीकर वो सोता गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........

अब साल में चार दिन घर जाता है वो.
सारी खुशियाँ घर से समेट लाता है वो.
अपने घर में अब वो मेहमान बन गया
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........

मिलजाए कोई गाँव का तो हँसे लेता है वो.
पूरी अनजानी भीड़ में उसे अपना लगता है वो.
मैं आज फिये बचपन मैं गया तो उदास होता गया..
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......

न जाने कितने फूल पहाड के यूँ ही मुरझाते हैं..
नौकरी के बाज़ार में वो बिक जाते है.
पत्तों पर कुछ बूंदें हैं, उन बूंदों में जीवन है
कुछ आवाजें हैं गूँज रहीं है
क़दमों तले रौंदा गया जो उस सूखे पात में भी जीवन है
पानी मेरी आँखो का बिखर गया
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......

दिनेश पारीक



गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

मेरी कविताओं का संग्रह: मेरा ही नशीब था

मेरी कविताओं का संग्रह: मेरा ही नशीब था: न कमी थी कोई जहान में कमजोर मेरा ही नशीब था सब कुछ पास था उस के | मुझे देने के लिए वो गरीब था | उस ने बहुत धन दोलत दिया दुनिया को पर मे...

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

:मैं नारी हूँ नर को मैनें ही जन्म दिया

मैं नारी हूँ , नर को मैनें ही जन्म दिया
मेरे ही वक्ष-स्थल से उसने अमृत पिया
मैं स्रष्टा की सर्वोत्तम मति की प्रथम-सृष्टि
मेरे पिघले अन्तर से होती प्रेम-वृष्टि ।

जिस नर को किया सशक्त कि वह पाले समाज
मैं, उसके अकरुण अनाचार से त्रस्त आज ।


मैं वही शक्ति, जिसने शैशव में शपथ लिया
नारी-गरिमा का प्रतिनिधि बन, हुंकार किया --
'' जो करे दर्प-भंजन, जो मुझसे बलवत्तर
जो रण में करे परास्त मुझे, जो अविजित नर ।


वह पुरूष-श्रेष्ठ ही कर सकता मुझसे विवाह
अन्यथा, मुझे पाने की, नर मत करे चाह ।''

क्रमशः

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यह लम्बी कविता मेरे अब तक के जीवनानुभवों के आधार पर प्रस्तुत है । यह क्रमशः प्रस्तुत की जायेगी ब्लॉग में ।

नारी के विषय में भारतीय दृष्टि , अतिशय वैज्ञानिक, मानव-मनोविज्ञान के गूढ़ नियमों से नियंत्रित , सामाजिक-विकास को निरंतर पुष्ट करने वाली तथा स्त्री - पुरूष संबंधों को श्रेष्ठतम शिखर तक ले जाने की गारंटी देती है ।

भारत ने सदा स्त्री -पुरूष संबंधों में स्त्री को प्रधानता दी और स्त्री को यह बताया कि कैसे वह पुरूष को अपने अधीन रख सकती है । कैसे वह पुरूष के व्यक्तित्व में निहित सर्वोत्तम संभावनाओं को प्रकृति और मानव-समाज के कल्याण में नियोजित करा सकती है ।

मैं इन कविताओं में , स्त्री के अनेक स्वरूपों को प्रस्तुत करते हुए यह कहना चाहता हूँ कि यदि समाज को अपराधमुक्त , अनाचार-मुक्त बनाना है तो स्त्री-पुरूष संबंधों को भारतीय-प्रज्ञा के आलोक में परिभाषित करना अनिवार्य है अन्यथा समाज को सुव्यवस्थित रूप से चलाना कठिन से कठिनतर होता जाएगा ।

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

मैं नारी हूँ

मैं नारी हूँ

मुझे किसी ने न जाना
किसी ने न पहचाना

मैं नारी हूँ
मेरा काम है लड़ते जाना।



लड़ती हूँ मैं पुराने रीति-रिवाजों से
करती हूँ अपने बच्चों को सुरक्षित
अंधविश्वासों की आँधी से
रहती हूँ हरदम अभावों में
पर देती हूँ अभयदान।
मैं नारी हूँ ...

उलझी रहती हूँ सवालों में
जकड़ी रहती हूँ मर्यादा की बेड़ियों में
बदनामी का ठिकरा हमेशा
फोड़ा जाता है मुझ पर
मैं हँसते-हँसते हो जाती हूँ कुर्बान।
मैं नारी हूँ ...

नए रिश्तों की उलझन में
उलझी रहती हूँ मैं
पर पुराने को निभाकर
हरदम चलती हूँ मैं
रिश्तों में जीना और मरना काम है मेरा।
मैं नारी हूँ ...