शनिवार, 22 दिसंबर 2012

लकीरें और तक़दीरें


लकीरें और तक़दीरेंहाथ में कोई किताब लिए बैठा हूँ.पन्ने पलटते हुए उँगलियाँ कहीं थम जाती हैंऔर तब सबकी तरह वो पढने लग जाता हूं,जो किताब में लिखा ही नहीं.
किसी दिन हाथ की किताब में उलझा था.
लकीरें जाँचने व तक़दीरें बांचने की कोशिश कर रहा था.
शायद किसी कशिश या कशमकश में रहा होऊं .
किताब चार लकीरों से जीवन जगत का हाल बताती थी -
-जिंदगी की लकीर, जो हाथ में भी वक्त के साथ नीचे ढलती जाती है.
-दिल की लकीर, एक छोर से दिल से मिलने सी आती है, मगर बीच राह में मुड कर ऊपर चढ जाती है.
-दिमाग़ की लकीर, जो जिंदगी के साथ ही शुरू होती है, मगर जिंदगी और दिल के बीच लक्ष्मण रेखा की तरह बिछ जाती है.
-किस्मत की लकीर, जो वहाँ से शुरू होती है
जहाँ जिंदगी की लकीर खत्म होती है
मगर
दिमाग़ की लकीर को काटकर दिल को छूने की खातिर बढती जाती है.
अजीब है,
आदमी ने दिमाग़ के रास्ते तक़दीर को गढा है
और
तक़दीर है कि दिल के रास्ते गुजरना चाहती है.
सोचता हूं,
जब बचपन था, हाथ पर कितनी तस्वीरें बनाईं,
क्या उससे कोई तक़दीर बनी होगी.
युवा हुआ, तब नदी तट पर बैठ जाने कितने पत्थर उछाले
क्या उनसे घिसकर कोई लकीर मिटी होगी.
और
अब जब प्रौढ़पन में माथे पर लकीरें पडने

हाथों के खुले रहने का वक्त आया,
तब लकीरें जुटा-मिटा रहा हूं.
कहीं किसी घर के द्वार पर महावर लगे हाथों की छाप लगी है.
हाथों के शुभत्व को दीवार पर उकेरने की कोशिशकी गई है.
उस शुभत्व के पार कोई सुना सा स्वर गूँज रहा है -
"मेरे रब हर तदबीर कर देखा
मिट न सकी दूरी नजदीकियों की.
खेल खेल में उसने ही खींच दी थी,
कोई तिरछी सी गहरी लकीर कोई."
तब जाना,
सब ओर वही तस्वीरें है.
घर के बाहर खुली दीवारों पर हाथों में खिली लकीरें हैं
और
घर के भीतर घिसी लकीरों से बंदी हुई तक़दीरेंहै

लकीरें और तक़दीरें


लकीरें और तक़दीरें
हाथ में कोई किताब लिए बैठा हूँ.
पन्ने पलटते हुए उँगलियाँ कहीं थम जाती हैं
और तब सबकी तरह वो पढने लग जाता हूं,
जो किताब में लिखा ही नहीं.
किसी दिन हाथ की किताब में उलझा था.
लकीरें जाँचने व तक़दीरें बांचने की कोशिश कर रहा था.
शायद किसी कशिश या कशमकश में रहा होऊं .
किताब चार लकीरों से जीवन जगत का हाल बताती थी -
-जिंदगी की लकीर, जो हाथ में भी वक्त के साथ नीचे ढलती जाती है.
-दिल की लकीर, एक छोर से दिल से मिलने सी आती है, मगर बीच राह में मुड कर ऊपर चढ जाती है.
-दिमाग़ की लकीर, जो जिंदगी के साथ ही शुरू होती है, मगर जिंदगी और दिल के बीच लक्ष्मण रेखा की तरह बिछ जाती है.
-किस्मत की लकीर, जो वहाँ से शुरू होती है
जहाँ जिंदगी की लकीर खत्म होती है
मगर
दिमाग़ की लकीर को काटकर दिल को छूने की खातिर बढती जाती है.
अजीब है,
आदमी ने दिमाग़ के रास्ते तक़दीर को गढा है
और
तक़दीर है कि दिल के रास्ते गुजरना चाहती है.
सोचता हूं,
जब बचपन था, हाथ पर कितनी तस्वीरें बनाईं,
क्या उससे कोई तक़दीर बनी होगी.
युवा हुआ, तब नदी तट पर बैठ जाने कितने पत्थर उछाले
क्या उनसे घिसकर कोई लकीर मिटी होगी.
और
अब जब प्रौढ़पन में माथे पर लकीरें पडने

हाथों के खुले रहने का वक्त आया,
तब लकीरें जुटा-मिटा रहा हूं.
कहीं किसी घर के द्वार पर महावर लगे हाथों की छाप लगी है.
हाथों के शुभत्व को दीवार पर उकेरने की कोशिशकी गई है.
उस शुभत्व के पार कोई सुना सा स्वर गूँज रहा है -
"मेरे रब हर तदबीर कर देखा
मिट न सकी दूरी नजदीकियों की.
खेल खेल में उसने ही खींच दी थी,
कोई तिरछी सी गहरी लकीर कोई."
तब जाना,
सब ओर वही तस्वीरें है.
घर के बाहर खुली दीवारों पर हाथों में खिली लकीरें हैं
और
घर के भीतर घिसी लकीरों से बंदी हुई तक़दीरेंहै

लकीरें और तक़दीरें


लकीरें और तक़दीरें
हाथ में कोई किताब लिए बैठा हूँ.
पन्ने पलटते हुए उँगलियाँ कहीं थम जाती हैं
और तब सबकी तरह वो पढने लग जाता हूं,
जो किताब में लिखा ही नहीं.
किसी दिन हाथ की किताब में उलझा था.
लकीरें जाँचने व तक़दीरें बांचने की कोशिश कर रहा था.
शायद किसी कशिश या कशमकश में रहा होऊं .
किताब चार लकीरों से जीवन जगत का हाल बताती थी -
-जिंदगी की लकीर, जो हाथ में भी वक्त के साथ नीचे ढलती जाती है.
-दिल की लकीर, एक छोर से दिल से मिलने सी आती है, मगर बीच राह में मुड कर ऊपर चढ जाती है.
-दिमाग़ की लकीर, जो जिंदगी के साथ ही शुरू होती है, मगर जिंदगी और दिल के बीच लक्ष्मण रेखा की तरह बिछ जाती है.
-किस्मत की लकीर, जो वहाँ से शुरू होती है
जहाँ जिंदगी की लकीर खत्म होती है
मगर
दिमाग़ की लकीर को काटकर दिल को छूने की खातिर बढती जाती है.
अजीब है,
आदमी ने दिमाग़ के रास्ते तक़दीर को गढा है
और
तक़दीर है कि दिल के रास्ते गुजरना चाहती है.
सोचता हूं,
जब बचपन था, हाथ पर कितनी तस्वीरें बनाईं,
क्या उससे कोई तक़दीर बनी होगी.
युवा हुआ, तब नदी तट पर बैठ जाने कितने पत्थर उछाले
क्या उनसे घिसकर कोई लकीर मिटी होगी.
और
अब जब प्रौढ़पन में माथे पर लकीरें पडने

हाथों के खुले रहने का वक्त आया,
तब लकीरें जुटा-मिटा रहा हूं.
कहीं किसी घर के द्वार पर महावर लगे हाथों की छाप लगी है.
हाथों के शुभत्व को दीवार पर उकेरने की कोशिशकी गई है.
उस शुभत्व के पार कोई सुना सा स्वर गूँज रहा है -
"मेरे रब हर तदबीर कर देखा
मिट न सकी दूरी नजदीकियों की.
खेल खेल में उसने ही खींच दी थी,
कोई तिरछी सी गहरी लकीर कोई."
तब जाना,
सब ओर वही तस्वीरें है.
घर के बाहर खुली दीवारों पर हाथों में खिली लकीरें हैं
और
घर के भीतर घिसी लकीरों से बंदी हुई तक़दीरेंहै

लकीरें और तक़दीरें


लकीरें और तक़दीरें
हाथ में कोई किताब लिए बैठा हूँ.
पन्ने पलटते हुए उँगलियाँ कहीं थम जाती हैं
और तब सबकी तरह वो पढने लग जाता हूं,
जो किताब में लिखा ही नहीं.
किसी दिन हाथ की किताब में उलझा था.
लकीरें जाँचने व तक़दीरें बांचने की कोशिश कर रहा था.
शायद किसी कशिश या कशमकश में रहा होऊं .
किताब चार लकीरों से जीवन जगत का हाल बताती थी -
-जिंदगी की लकीर, जो हाथ में भी वक्त के साथ नीचे ढलती जाती है.
-दिल की लकीर, एक छोर से दिल से मिलने सी आती है, मगर बीच राह में मुड कर ऊपर चढ जाती है.
-दिमाग़ की लकीर, जो जिंदगी के साथ ही शुरू होती है, मगर जिंदगी और दिल के बीच लक्ष्मण रेखा की तरह बिछ जाती है.
-किस्मत की लकीर, जो वहाँ से शुरू होती है
जहाँ जिंदगी की लकीर खत्म होती है
मगर
दिमाग़ की लकीर को काटकर दिल को छूने की खातिर बढती जाती है.
अजीब है,
आदमी ने दिमाग़ के रास्ते तक़दीर को गढा है
और
तक़दीर है कि दिल के रास्ते गुजरना चाहती है.
सोचता हूं,
जब बचपन था, हाथ पर कितनी तस्वीरें बनाईं,
क्या उससे कोई तक़दीर बनी होगी.
युवा हुआ, तब नदी तट पर बैठ जाने कितने पत्थर उछाले
क्या उनसे घिसकर कोई लकीर मिटी होगी.
और
अब जब प्रौढ़पन में माथे पर लकीरें पडने

हाथों के खुले रहने का वक्त आया,
तब लकीरें जुटा-मिटा रहा हूं.
कहीं किसी घर के द्वार पर महावर लगे हाथों की छाप लगी है.
हाथों के शुभत्व को दीवार पर उकेरने की कोशिशकी गई है.
उस शुभत्व के पार कोई सुना सा स्वर गूँज रहा है -
"मेरे रब हर तदबीर कर देखा
मिट न सकी दूरी नजदीकियों की.
खेल खेल में उसने ही खींच दी थी,
कोई तिरछी सी गहरी लकीर कोई."
तब जाना,
सब ओर वही तस्वीरें है.
घर के बाहर खुली दीवारों पर हाथों में खिली लकीरें हैं
और
घर के भीतर घिसी लकीरों से बंदी हुई तक़दीरेंहै

लकीरें और तक़दीरें


लकीरें और तक़दीरें
हाथ में कोई किताब लिए बैठा हूँ.
पन्ने पलटते हुए उँगलियाँ कहीं थम जाती हैं
और तब सबकी तरह वो पढने लग जाता हूं,
जो किताब में लिखा ही नहीं.
किसी दिन हाथ की किताब में उलझा था.
लकीरें जाँचने व तक़दीरें बांचने की कोशिश कर रहा था.
शायद किसी कशिश या कशमकश में रहा होऊं .
किताब चार लकीरों से जीवन जगत का हाल बताती थी -
-जिंदगी की लकीर, जो हाथ में भी वक्त के साथ नीचे ढलती जाती है.
-दिल की लकीर, एक छोर से दिल से मिलने सी आती है, मगर बीच राह में मुड कर ऊपर चढ जाती है.
-दिमाग़ की लकीर, जो जिंदगी के साथ ही शुरू होती है, मगर जिंदगी और दिल के बीच लक्ष्मण रेखा की तरह बिछ जाती है.
-किस्मत की लकीर, जो वहाँ से शुरू होती है
जहाँ जिंदगी की लकीर खत्म होती है
मगर
दिमाग़ की लकीर को काटकर दिल को छूने की खातिर बढती जाती है.
अजीब है,
आदमी ने दिमाग़ के रास्ते तक़दीर को गढा है
और
तक़दीर है कि दिल के रास्ते गुजरना चाहती है.
सोचता हूं,
जब बचपन था, हाथ पर कितनी तस्वीरें बनाईं,
क्या उससे कोई तक़दीर बनी होगी.
युवा हुआ, तब नदी तट पर बैठ जाने कितने पत्थर उछाले
क्या उनसे घिसकर कोई लकीर मिटी होगी.
और
अब जब प्रौढ़पन में माथे पर लकीरें पडने

हाथों के खुले रहने का वक्त आया,
तब लकीरें जुटा-मिटा रहा हूं.
कहीं किसी घर के द्वार पर महावर लगे हाथों की छाप लगी है.
हाथों के शुभत्व को दीवार पर उकेरने की कोशिशकी गई है.
उस शुभत्व के पार कोई सुना सा स्वर गूँज रहा है -
"मेरे रब हर तदबीर कर देखा
मिट न सकी दूरी नजदीकियों की.
खेल खेल में उसने ही खींच दी थी,
कोई तिरछी सी गहरी लकीर कोई."
तब जाना,
सब ओर वही तस्वीरें है.
घर के बाहर खुली दीवारों पर हाथों में खिली लकीरें हैं
और
घर के भीतर घिसी लकीरों से बंदी हुई तक़दीरेंहै

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

मेरा मन: काफी वक़त गुजर गया है

मेरा मन: काफी वक़त गुजर गया है: काफी वक़त गुजर गया  है यु ही खाट पे बैठे- बैठे  अब आवाजे आती हैं रिश्तों की  कभी रिसने की कभी  गांठ लगाने की  अब आवाजें आती है  कभी टूटने क...

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

शनिवार, 28 जुलाई 2012

रात भर...


करके वादा कोई सो गया चैन से 
करवटें बदलते रहे हम रात भर !!१!!
हसरतें दिल में घुट-घुट के मरती रही 
और जनाज़े निकलते रहे रात भर !!२!!
रात भर चांदनी से लिपटे रहे वो 
हम अपने हाथ मलते रहे रात भर !!३!!
आबरू क्या बचाते वह गुलशन कि 
खुद कलियाँ मसलते रहे रात भर !!४!!
हमको पीने को एक कतरा भी न मिला 
और दौर पर दौर चलते रहे रात भर !!५!!
रौशनी हमें दे ना पाए यह चिराग अब 
यूँ तो कहने को वो जलते रहे रात भर !!६!!
छत में लेट टटोले हमने आसमान 
अश्क इन आँखों से ढलते रहे रात भर !!७!!
.........नीलकमल वैष्णव "अनिश".........

सोमवार, 18 जून 2012

मेरा मन: मुझे लडकी बना दे

मेरा मन: मुझे लडकी बना दे: काश उपर वाला मुझे लडकी बना दे  और फिर मुझे एक लड़की की माँ बना दे | वो सकून, वो , वो दर्द, कोई मुझे भी दिला दे, कोई मुझे एक लड़की के कपडे ह...

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

शुक्रवार, 8 जून 2012

सोनिया हिन्दुओ से नफरत क्यूँ करती है ?


क्या सोनिया गाँधी को हिन्दुओ से नफरत है ??? 
मै कुछ तथ्य पेश कर रहा हूँ और आप लोग भी सोचिये कि क्या सोनिया गाँधी सच में हिन्दुओ से नफरत करती है ??

1 – सोनिया जी ने विसेंट जार्ज को अपना निजी सचिव बनाया है जो ईसाई है ..विसेंट जार्ज के पास 1500 करोड़ कि संपत्ति है 2001 में सीबीआई ने उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति रखने का मामला दर्ज किया उस वक्त सीबीआई ने विसेंट के 14 बैंक खातो को सील करते हुए कड़ी करवाई करने के संकेत दिए थे फिर सोनिया के इशारे पर मामले को दबा दिया गया .. मैंने सीबीआई को विसेंट जार्ज के मामले में 4 मेल किया था जिसमे सिर्फ एक का जबाब आया कि जार्ज के पास अमेरिका और दुसरे देशो से पैसे के स्रोत का पता लगाने के लिए अनुरोध पत्र भेज दिया गया है.. वाह रे सीबीआई १० साल तक सिर्फ अनुरोध पत्र टाइप करने में लगा दिए !!!

2 – सोनिया ने अहमद पटेल को अपना राजनीतिक सचिव बनाया है जो मुसलमान है और कट्टर सोच वाले मुसलमान है ..

3 – सोनिया ने मनमोहन सिंह कि मर्जी के खिलाफ पीजे थोमस को cvc बनाया जो ईसाई है.. और सिर्फ सोनिया की पसंद से cvc बने .जिसके लिए भारतीय इतिहास में पहली बार किसी प्रधानमंत्री को माफ़ी मागनी पड़ी ..

4 – सोनिया जी ने अपनी एकमात्र पुत्री प्रियंका गाँधी की शादी एक ईसाई राबर्ट बढेरा से की ..

5 – अजित जोगी को छतीसगढ़ का मुख्यमंत्री सिर्फ उनके ईसाई होने के कारण बनाया गया जबकि उस वक़्त कई कांग्रेसी नेता दबी जबान से इसका विरोध कर रहे थे.. अजित जोगी इतने काबिल मुख्यमंत्री साबित हुए की छतीसगढ़ में कांग्रेस का नामोनिशान मिटा दिया. अजित जोगी पर दिसम्बर 2003 से बिधायको को खरीदने का केस सीबीआई ने केस दर्ज किया है . सीबीआई ने पैसे के स्रोत को भी ढूड लिया तथा टेलीफोन पर अजित जोगी की आवाज की फोरेंसिक लैब ने प्रमडित किया इतने सुबूतो के बावजूद सीबीआई ने आजतक सोनिया के इशारे पर चार्जशीट फाइल नहीं किया ..

6 – जस्टिस ……. [मै नाम नहीं लिखूंगा क्योकि ये शायद न्यायपालिका का अपमान होगा ] को 3 जजों की बरिष्ठाता को दरकिनार करके सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनाया गया जो की एक परिवर्तित ईसाई थे …
7 – राजशेखर रेड्डी को आँध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने में उनका ईसाई होना और आँध्रप्रदेश में ईसाइयत को फ़ैलाने में उनका योगदान ही काम आया मैडम सोनिया ने उनको भी तमाम नेताओ को दरकिनार करने मुख्यमंत्री बना दिया ..

8 – मधु कोड़ा भी निर्दलीय होते हुए अपने ईसाई होने के कारण कांग्रेस के समर्थन से झारखण्ड के मुख्यमंत्री बने …
9 – अभी केरल विधान सभा के चुनाव में कांग्रेस ने 92 % टिकट ईसाई और मुस्लिमो को दिया है
10 – जिस कांग्रेस में सोनिया की मर्जी के बिना कोई पैर नहीं हिला सकता वही दिग्विजय सिंह किसके इशारे पर 10 सालो से हिन्दू बिरोधी बयानबाजी करते है ये हम सब अच्छी तरह जानते है …

मंगलवार, 29 मई 2012

मेरा मन


इस अंतर  मन को क्या मैं पुछु और क्या  मैं इस की सुनु
ख्वाबो में तो रोज़ मुलाकात होती हैं पर ये समझता ही चला जाता है
जाने मन के किस कोने में छुप सो जाती है, सच्चाई
फिर तो दुसरे दिन ही मुलाकात हो पति है
पर तब तक तो वो इरादा बदला चूका होता है
ये सुनता तो बहुत ही कम है
चलो दोस्तों आज फिर इस से मिलने का इरादा बनाते है इस खोजते है इस नभ में , इस  उपवन मैं  उस सपनो की नगरी मैं
चलो चलो >>>>..............

गुरुवार, 3 मई 2012

प्राइवेट पार्ट के गोरेपन पर इंटरनेट पर छिड़ी बहस

हद  हो गई  अब क्या  बाकि रह गया है  हिंदुस्तान का सेंशर बोर्ड कर क्या रहा है कभी डर्टी जेसी फिल्मे  आती है और अब तो टीवी पर भी विज्ञापन एसे दिखाई पड़ते है की  देखने वालो लो भी सरम मह्सुश  होने लगती है
मौजूदा समय में एक फेयरनेस क्रिम को लेकर इंटरनेट की दुनिया में जोरदार बवाल मचा हुआ है। यह बवाल हाल ही में टीवी पर प्रसारित हाईजीन फेयरनेस क्रिम के विज्ञापन को लेकर मचा है। इस क्रीम ने यह दावा किया है कि इसके इस्‍तेमाल से महिलाएं अपने प्राइवेट पार्ट का रंग निखार सकती हैं। इस विज्ञापन के प्रसारण के बाद इंटरनेट की दुनिया में एक नई बहस छिड़ गई है और लोग इस विज्ञापन की जमकर निंदा कर रहे हैं।

आगे की बात करने से पहले आपको विज्ञापन के बारे में बताते हैं। विज्ञापन में दिखाया गया है कि एक पत्‍नी इस बात से बेहद परेशान है कि उसका पति उससे ज्‍यादा अखबारों में खोया रहता है। विज्ञापन में दिखाया गया है कि जैसे ही वह इस हाईजीन क्रीम का इस्‍तेमाल करती ह‍ै उसका पति उसकी ओर खिंचा चला आता है।

अब जरा इंटरनेट की दुनिया में मचे घमासान के बारे में चर्चा करते हैं। इस विज्ञापन को लेकर लोगों में खासा रोष है। सोशल नेटवर्किंग साइट यू ट्यूब पर तो इस विज्ञापन को सात लाख से भी ज्‍यादा लोग देख चुके हैं और इनमें ज्‍यादातर इसके खिलाफ हैं। यू ट्यूब पर एक यूजर्स ने इस विज्ञापन के बारे में प्रतिक्रिया देते हुए लिखा है कि 'महिलाओं को उपेक्षित महसूस कराने वाला एक और उत्‍पाद'। वहीं एक दूसरे यूजर्स ने लिखा है कि 'क्‍या वाकई में इस विज्ञापन में प्राइवेट पार्ट को लेकर महिलाओं की समस्‍याओं को दिखाया गया है? क्‍या वाकई में त्‍वचा का रंग एक समस्‍या है? यह पूरी तरह बकवास है।'

मालूम हो कि बॉलीवुड की कई हस्‍तियां और पूर्व आईपीएस अधिकारी किरन बेदी भी फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन करते हुए नजर आ चुकी हैं। जिनका दावा है कि उनकी क्रीम के इस्‍तेमाल से कोई भी गोरा बन सकता है और वह सबकुछ हासिल कर सकता है जिसकी उसे चाहत है। इन विज्ञापनों में दिखाया जाता है कि किस तरह सांवाले रंग वाली लड़की तब तक आगे नहीं बढ़ पाती जब त‍क कि वो इस जादूई फेयरनेस क्रीम का इस्‍तेमाल न कर ले। अब सवाल यह है कि क्‍या इस तरह के विज्ञापन महिलाओं का अपमान नहीं है? क्‍या गोरा रंग जिंदगी के हर इम्‍तहान के लिए जरूरी है?

क्या सांवाले रंग वाली लड़की की शादीया  नहीं होती  ?
क्या सांवाले रंग वाली लड़की  रंग को लेके अव्शाद में रहती है ?
आजकल तो इस गोरे रंग ने वापिस रंग भेद निति जेसी प्रथा को याद दिला दिया  

मंगलवार, 1 मई 2012

मेरा बचपन


लोटा दो वो बचपन की यादे , वो गलियों ,वो   नुकढ़ की बाते
लोटा दो मेरे जीते कंचे जो बाकि है | वो रंगबिंगी पत्नगे
वो सपनो की राजकुमारी लोटा दो वो दादा जी की कहानी
वो ऊंट की सवारी , वो १० पेसे की पेन्सिल ,
वो चुपके गुटके कहने की आदत , लोटा दो वो बचपन की बाते  मेरी बचपन की यादे ,
वो मासूम चेहरा , वो मासूमियत की लाली
क्यों नहीं लोटा ते वो बचपन की शेतानी  
ना ज़मीन, ना सितारे, ना चाँद, ना रात चाहिए,
माँ जो बचपन में करती वो प्यार चाहिए
लोटा दो वो मेरा बचपन की बाते वो वो आँखों के आंसू
काश कोई लोटा दे वो बचपन का गुजरा जमाना

माँ पिता का वो प्यार वो मनुहार,
वो डांट फटकार, वो रोना मचलना,
वो रोती आँखों से मुस्कुराना याद आ गया,
बस रह गई एक कसक इतनी,
वो गुजरा जमाना जिसे छोड़ आये थे राह में कहीं,
अब भी खड़ा ताकता होगा राह उसी राहगुजर में,
पर बेबस हूँ मैं जा नहीं सकता वापिस,
उसकी यादो संग हसना रोना अब किस्मत मेरी,
वो गुजरा जमाना याद आ गया,
कोई तो लोटा दो वो बचपन की यादे , वो गलियों ,वो   नुकढ़ की बाते

दिनेश पारीक

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

एक दिन की सुबह ने कहा


एक दिन की सुबह ने कहा - आप कहा हो ???
दूसरी तरफ से आवाज़ आयी, इस वक़त में डूब रही हु  अपने यकीन में _ इतने में उपर से आवाज़  आई मैं वो असमान हूँ जहा तुम दोनों की दोस्ती हुई थी ,
रोज़ ये दिन आता जाता है ,इन्सान वही रह जाता  है,
कितनी सदिया बीत गयी मेरी आँखों मै
पर हर बार मै यु हु छुट गया
जब लिखा वक़त ने अपना इतिहास तो ,
उस ने मुझे रात और दिन मै   बाट दिया
दिनेश पारीक

रविवार, 22 अप्रैल 2012

मेरा बचपन

खिला एक फूल फिर इन रेगिस्तान में.
मुरझाने फिर चला दिल्ली की गलियों में.
ग्रॅजुयेट की डिग्री हाथ में थामे निकल गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......

खो गया इस भागती भीड़ में वो.
रोज़ मरा बस के धक्कों में वो.
दिन है या रात वो भूल गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........

देर से रात घर आता है पर कोई टोकता नहीं.
भूख लगती है उसे पर माँ अब आवाज लगाती नहीं.
कितने दिन केवल चाय पीकर वो सोता गया.
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........

अब साल में चार दिन घर जाता है वो.
सारी खुशियाँ घर से समेट लाता है वो.
अपने घर में अब वो मेहमान बन गया
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.........

मिलजाए कोई गाँव का तो हँसे लेता है वो.
पूरी अनजानी भीड़ में उसे अपना लगता है वो.
मैं आज फिये बचपन मैं गया तो उदास होता गया..
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......

न जाने कितने फूल पहाड के यूँ ही मुरझाते हैं..
नौकरी के बाज़ार में वो बिक जाते है.
पत्तों पर कुछ बूंदें हैं, उन बूंदों में जीवन है
कुछ आवाजें हैं गूँज रहीं है
क़दमों तले रौंदा गया जो उस सूखे पात में भी जीवन है
पानी मेरी आँखो का बिखर गया
इस उम्र मैं ही मैं , जिंदा लांश बन गया.......

दिनेश पारीक



गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

मेरी कविताओं का संग्रह: मेरा ही नशीब था

मेरी कविताओं का संग्रह: मेरा ही नशीब था: न कमी थी कोई जहान में कमजोर मेरा ही नशीब था सब कुछ पास था उस के | मुझे देने के लिए वो गरीब था | उस ने बहुत धन दोलत दिया दुनिया को पर मे...

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

:मैं नारी हूँ नर को मैनें ही जन्म दिया

मैं नारी हूँ , नर को मैनें ही जन्म दिया
मेरे ही वक्ष-स्थल से उसने अमृत पिया
मैं स्रष्टा की सर्वोत्तम मति की प्रथम-सृष्टि
मेरे पिघले अन्तर से होती प्रेम-वृष्टि ।

जिस नर को किया सशक्त कि वह पाले समाज
मैं, उसके अकरुण अनाचार से त्रस्त आज ।


मैं वही शक्ति, जिसने शैशव में शपथ लिया
नारी-गरिमा का प्रतिनिधि बन, हुंकार किया --
'' जो करे दर्प-भंजन, जो मुझसे बलवत्तर
जो रण में करे परास्त मुझे, जो अविजित नर ।


वह पुरूष-श्रेष्ठ ही कर सकता मुझसे विवाह
अन्यथा, मुझे पाने की, नर मत करे चाह ।''

क्रमशः

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यह लम्बी कविता मेरे अब तक के जीवनानुभवों के आधार पर प्रस्तुत है । यह क्रमशः प्रस्तुत की जायेगी ब्लॉग में ।

नारी के विषय में भारतीय दृष्टि , अतिशय वैज्ञानिक, मानव-मनोविज्ञान के गूढ़ नियमों से नियंत्रित , सामाजिक-विकास को निरंतर पुष्ट करने वाली तथा स्त्री - पुरूष संबंधों को श्रेष्ठतम शिखर तक ले जाने की गारंटी देती है ।

भारत ने सदा स्त्री -पुरूष संबंधों में स्त्री को प्रधानता दी और स्त्री को यह बताया कि कैसे वह पुरूष को अपने अधीन रख सकती है । कैसे वह पुरूष के व्यक्तित्व में निहित सर्वोत्तम संभावनाओं को प्रकृति और मानव-समाज के कल्याण में नियोजित करा सकती है ।

मैं इन कविताओं में , स्त्री के अनेक स्वरूपों को प्रस्तुत करते हुए यह कहना चाहता हूँ कि यदि समाज को अपराधमुक्त , अनाचार-मुक्त बनाना है तो स्त्री-पुरूष संबंधों को भारतीय-प्रज्ञा के आलोक में परिभाषित करना अनिवार्य है अन्यथा समाज को सुव्यवस्थित रूप से चलाना कठिन से कठिनतर होता जाएगा ।

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

मैं नारी हूँ

मैं नारी हूँ

मुझे किसी ने न जाना
किसी ने न पहचाना

मैं नारी हूँ
मेरा काम है लड़ते जाना।



लड़ती हूँ मैं पुराने रीति-रिवाजों से
करती हूँ अपने बच्चों को सुरक्षित
अंधविश्वासों की आँधी से
रहती हूँ हरदम अभावों में
पर देती हूँ अभयदान।
मैं नारी हूँ ...

उलझी रहती हूँ सवालों में
जकड़ी रहती हूँ मर्यादा की बेड़ियों में
बदनामी का ठिकरा हमेशा
फोड़ा जाता है मुझ पर
मैं हँसते-हँसते हो जाती हूँ कुर्बान।
मैं नारी हूँ ...

नए रिश्तों की उलझन में
उलझी रहती हूँ मैं
पर पुराने को निभाकर
हरदम चलती हूँ मैं
रिश्तों में जीना और मरना काम है मेरा।
मैं नारी हूँ ...

बुधवार, 21 मार्च 2012

मेरी धड़कन


मेरी धड़कन, मॉं

लौट रही थी खाली घड़ा लेकर
मैं पलट रहा था थी भूगोल के पृष्ट... और
खोज था
देश के मानचित्र पर
नदियों का बहाव
मॉं
सामना कर रही थी भूखमरी से
वे चखना चाहते
अनाज के बदले उसकी देह
मैं उसकी कोख में
तलाश रहा था भट्टी
हथियार बनाने के लिए
मॉं
जर्जर कमरे में , हाथ की फटी साड़ी में
ढ़ॉंप रही थी देह और दुविधा
मैं उसकी कोख में
बुन रही थी वस्त्र आकार के क्षेत्रफल-सा
मॉं
दंगे में भीड़ से घिरी चीख रही है
संभाल नहीं पा रही है अपने कटे हुए पेट को
एक अकेले हाथ से
दूसरा हाथ कटकर दूर जा गिरा है
मैं, गर्भस्थ शिशु
पेट से बाहर टुकड़े-टुकड़े बिखरा हूँ
मैं ठीक उसी समय हलाल हुआ
जब कोख में लिख रहा था धर्म का अर्थ ।
दिनेश पारीक

मंगलवार, 20 मार्च 2012

गीता ने बर्बाद किया भारत को:ओरिसन :

आज सुबह सुबह मैं कुछ खोज रहा था गूगल में की कुछ दिन उपरांत ही माँ दुर्गा के नव रात्रि का आगमन होने वाला है तो कुछ पूजा की विधि अपने देश में किन किन प्रकार से की जाती है ये ही खोज ने का मन बना के गूगल खोला और कुछ लिखा और देखा की नव भारत times के पेपर में २१/१२/२०११ के दिन कोई एक ओरिसन नामक लेखक के विचार गीता के उपर कुछ इस तरह से है मेने ध्यान पूरवक पढ़ा तो पहले तो सोचा की इस लेखक ने या तो गीता को कभी देखा और पढ़ा भी नहीं होगा फिर उन के लेख से आगे बड़ा तो पाया की उस ने पढ़ा तो जरुर है वर्ना उस के पास इतना गीता के विरुद्ध इतने कड़े विचार धरा बनती केसे
पर कुछ बातो का तो समर्थन मेरा दिल भी कर रहा है की
दुर्योधन ने असा क्या पाप और अधर्म किया जिसे से वो अपने भाइयो के हाथो से ही मारा गया उसका ये पाप था क्या की उसे भगवान ने पांडव पुत्र से पहले जन्म ने ही नहीं दिया दुर्योधन को गांधारी के गर्भ में ९ महीनो की जगह ११ महीनो तक रखा ये अन्याय नहीं तो क्या था भगवान का
शायद उसे ये कहानी ही लिखनी थी दुर्योधन जिसने कुछ भी नहीं किया वह अधर्म है ?
दुर्योधन ने ऐसा क्या किया जो अधर्म था

१ पिछले एक हज़ार साल से तो गुलाम हैं,
कोई धर्म वाला कृष्ण अवतार लेने नहीं आया,
अभी तक,
गीता में भगवान् प्राप्ति के साधन हैं,
तो आज तक किसी को गीता से भगवान् क्यूँ नहीं मिला ?

गीता के बाद यहाँ पर किसी ग्रन्थ को टिकने ही नहीं दिया गया, गीता को ही हर चीज़ का हल माना गया की गीता से हर समस्या का हल निकल सकता है, और किसी के ग्रन्थ को जगह ही नहीं मिली, तो बर्बादी का जो नाम है वह गीता के ही नाम है, और अगर आबाद की बात है तो आबादी के लिए किसी ग्रन्थ की जरूरत नहीं है, क्यूंकि फिर आदमी किताबों से नहीं अपने हृदय से जीवन व्यतीत करता है, हृदय की बात को हृदय सुनता, फिर गीता के दिमाग की जरूरत नहीं होती, आबादी के लिए दिमाग की जरूरत नहीं, हृदय की जरूरत है,

दिनेश पारीक

गीता ने बरबाद किया भारत को, भारत में भावनाओं के अथाह समंदर को गीता ने बरबाद कर दिया, लोग ने लोगों पर विश्वास करना छोड़ दिया, और लोग आपस में नातें-रिश्ते भूलकर, जमीन-जायदाद और धन के लिए अपने ही अपनों के गले काटने लगे, क्यूंकि गीता में ऐसा लिखा है, जिसमे इंसानी भावनाओं से ऊपर जमीन-जायदाद और धन-संम्पत्ति को बड़ा माना गया, और उसके पीछे यह मिसाल दी गयी की जो अपना है, वह अगर किसी के पास भी है तो छीन लो, भले ही वह भाई-हो, नातेदार हो, रिश्तेदार हो, उस भावना को दबा दो, और जमीन और धन के लिए अपने से बड़ों से भी लड़ पड़ो, यह गीता ने सिखाया, जिससे भारत बरबाद हो गया, और भारत में जमीन-जायदाद और धन संम्पति को ज्यादा महत्त्व दिया गया, जबकि भावनाओं और हृदय की बातों को कमजोरी समझा गया, और इसका फायदा उठाया गया, तो इस तरह तो गीता ने एक तरफ कहाँ की जो तुम्हारा है अर्जुन वह किसी भी प्रकार लड़कर छीन लो, फिर दूसरी तरफ गीता ने कहा की तुम क्या लाये तो जो तुम्हारा है, तुम क्या ले जाओगे, इस तरह की विरोधाभाषी वक्तव्य ने भारत के लोगों को भ्रमित कर दिया, तो जो लोग, ताकतवर थे, चालाक थे, उन्होंने दूसरों की भावनाओं का फायदा उठाकर, उन्हें उसी में उलझाये रखा और अपने पास धन-दौलत और जमीन-जायदाद अपने पास रखी, बस यही पारी पाटि भारत में चलती रही, और उसने कमजोर को वैरागी बना दिया, और ताकतवर को अय्याश बना दिया, कमजोर होकर वह वैराग का बाना ओढ़ लिया की अब उसे तो यह जामीन मिलने से रही तो उसने कहाँ की संसार मिथ्या है, और जो ताकतवर था उसने अय्याशी अपना ली | इस तरह से गीता ने पूरे भारत को दो भागों में बाँट दिया, एक जो उस जमीन-जायदाद के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे, उसके लिए किसी के साथ भी लड़ सकते थे, कोई भी पैंतरा अपना सकते थे, और अपने हाथ में दौलत काबू में रखते थे, और दूसरे वो जों भावनाओं के आगे जमीन-जायदाद को भी ठोकर मार देते थे, और अपने ईमान को कभी गन्दा नहीं करते थे, और अपने नाते-रिश्तों और बड़ों का सम्मान करते थे, आज भी भारत इसी ढर्रे पर चल रहा है, जों लोग पैसे वाले होते हैं वह भावुक नहीं होते हैं, और जों गरीब होते हैं वह भावुक होते हैं, और पैसे वाले किसी के सामने दिखावा तो करते हैं की हम सम्मान करते हैं, पर पीठ पीछे छुरा भी घोंप देते हैं, और उनकी भावना झूठी होती है, उस भावना में भी वह उससे गरीब के पास जों होता है, वह हथियाना चाहते हैं, और उसे और गरीब ही रहने देना चाहते हैं, बात तो बड़ी-बड़ी करते हैं की सब माया है, पर भारत वाले जितनी माया इक्कठी करते हैं उतना संसार का कोई आदमी नहीं करता है |


तो आज भी यह गीता किसी भी नाते और रिश्ते को तोड़कर जमीन और जायदाद को महत्त्व देने को कहती है, और गीता के बल पर वह किसी की परवाह नहीं करता है, और बड़े-बूढें की भावनाओं को देखता तक नहीं है, उसके लिए अपना अहंकार ही सबसे बड़ा होता है, और उसका अहंकार किसी भी प्रकार से जमीन और जायदाद हथियाना चाहता है | चाहे उसके लिए किसी को भी मारना पड़े, चाहे वह कोई भी हो, नाते में रिश्ते में।
ओरिसन :
इस लेख को सिर्फ कॉपी किया गह है नवभारत times न्यूज़ पेपर से ये विचार एक ओरिसन नामक लेखक के है

गुरुवार, 15 मार्च 2012

माँ की वजह से ही है आपका वजूद

एक विधवा माँ ने अपने बेटे को बहुत मुसीबतें उठाकर पाला। दोनों एक-दूसरे को बहुत प्यार करते थे। बड़ा होने पर बेटा एक लड़की को दिल दे बैठा। लाख कोशिशों के बावजूद वह लड़की का दिल नहीं जीत पाया।

एक दिन वह लड़की से बोला- यदि तुम मुझसे शादी नहीं करोगी तो मैं अपनी जान दे दूँगा। उसकी हरकतों से परेशान हो चुकी लड़की ने सोचा कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे लड़के से पीछा छूट जाए। वह बोली- मैं तुम्हारे प्यार की परीक्षा लेना चाहती हूँ। बोलो तुम मेरे लिए क्या कर सकते हो? लड़का बोला- बताओ, मुझे अपने प्यार को साबित करने के लिए क्या करना होगा?

लड़की बोली- क्या तुम मुझे अपनी माँ का दिल लाकर दे सकते हो? लड़का सोच में पड़ गया, लेकिन उस पर तो लड़की को पाने का जुनून सवार था। वह बिना कुछ कहे वहाँ से चल दिया। लड़की खुश हो गई कि अब शायद वह उसका पीछा नहीं करेगा। उधर लड़का घर पहुँचा तो उसने देखा कि उसकी माँ सो रही है। उसने माँ की हत्या कर उसका दिल निकाल लिया और उसे कपड़े में छुपाकर लड़की के घर की तरफ चल पड़ा।
एक विधवा माँ ने अपने बेटे को बहुत मुसीबतें उठाकर पाला। दोनों एक-दूसरे को बहुत प्यार करते थे। बड़ा होने पर बेटा एक लड़की को दिल दे बैठा। लाख कोशिशों के बावजूद वह लड़की का दिल नहीं जीत पाया।


रास्ते में अँधेरा होने के कारण ठोकर खाकर वह जमीन पर गिर पड़ा और उसकी माँ का दिल उसके हाथ से छिटककर दूर जा गिरा। गिरने पर वह कराहा। तभी माँ के दिल से आवाज आई- बेटा, तुझे चोट तो नहीं लगी? लेकिन इस बात का भी लड़के पर कोई असर नहीं हुआ और वह माँ का दिल लेकर लड़की के घर पहुँच गया। लड़के को अपनी माँ के दिल के साथ आया देख लड़की हतप्रभ रह गई।

उसे बिलकुल भी विश्वास नहीं हो रहा था कि एक बेटा इतना निर्दयी भी हो सकता है। उसे लड़के पर बहुत गुस्सा आया और वह बोली- जो व्यक्ति एक लड़की की खातिर अपनी माँ के निःस्वार्थ प्यार को भूलकर उसका दिल निकाल सकता है, वह किसी दूसरे से क्या प्रेम करेगा।

दोस्तो, यह कहानी भले ही आपको अविश्वसनीय लगे, लेकिन यह सही है कि दुनिया में एक माँ ही होती है, जो खुद लाख दुःख उठा ले, लेकिन अपने बच्चे की छोटी-सी तकलीफ भी सह नहीं पाती। माँ तो इंसान को खुदा से मिली अनुपम सौगात है। वह जननी है। वही सृष्टिकर्ता है, क्योंकि उसके बिना तो सृष्टि आगे बढ़ ही नहीं सकती।
एक विधवा माँ ने अपने बेटे को बहुत मुसीबतें उठाकर पाला। दोनों एक-दूसरे को बहुत प्यार करते थे। बड़ा होने पर बेटा एक लड़की को दिल दे बैठा। लाख कोशिशों के बावजूद वह लड़की का दिल नहीं जीत पाया।

एक दिन वह लड़की से बोला- यदि तुम मुझसे शादी नहीं करोगी तो मैं अपनी जान दे दूँगा। उसकी हरकतों से परेशान हो चुकी लड़की ने सोचा कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे लड़के से पीछा छूट जाए। वह बोली- मैं तुम्हारे प्यार की परीक्षा लेना चाहती हूँ। बोलो तुम मेरे लिए क्या कर सकते हो? लड़का बोला- बताओ, मुझे अपने प्यार को साबित करने के लिए क्या करना होगा?

लड़की बोली- क्या तुम मुझे अपनी माँ का दिल लाकर दे सकते हो? लड़का सोच में पड़ गया, लेकिन उस पर तो लड़की को पाने का जुनून सवार था। वह बिना कुछ कहे वहाँ से चल दिया। लड़की खुश हो गई कि अब शायद वह उसका पीछा नहीं करेगा। उधर लड़का घर पहुँचा तो उसने देखा कि उसकी माँ सो रही है। उसने माँ की हत्या कर उसका दिल निकाल लिया और उसे कपड़े में छुपाकर लड़की के घर की तरफ चल पड़ा।
एक विधवा माँ ने अपने बेटे को बहुत मुसीबतें उठाकर पाला। दोनों एक-दूसरे को बहुत प्यार करते थे। बड़ा होने पर बेटा एक लड़की को दिल दे बैठा। लाख कोशिशों के बावजूद वह लड़की का दिल नहीं जीत पाया।


रास्ते में अँधेरा होने के कारण ठोकर खाकर वह जमीन पर गिर पड़ा और उसकी माँ का दिल उसके हाथ से छिटककर दूर जा गिरा। गिरने पर वह कराहा। तभी माँ के दिल से आवाज आई- बेटा, तुझे चोट तो नहीं लगी? लेकिन इस बात का भी लड़के पर कोई असर नहीं हुआ और वह माँ का दिल लेकर लड़की के घर पहुँच गया। लड़के को अपनी माँ के दिल के साथ आया देख लड़की हतप्रभ रह गई।

उसे बिलकुल भी विश्वास नहीं हो रहा था कि एक बेटा इतना निर्दयी भी हो सकता है। उसे लड़के पर बहुत गुस्सा आया और वह बोली- जो व्यक्ति एक लड़की की खातिर अपनी माँ के निःस्वार्थ प्यार को भूलकर उसका दिल निकाल सकता है, वह किसी दूसरे से क्या प्रेम करेगा।

दोस्तो, यह कहानी भले ही आपको अविश्वसनीय लगे, लेकिन यह सही है कि दुनिया में एक माँ ही होती है, जो खुद लाख दुःख उठा ले, लेकिन अपने बच्चे की छोटी-सी तकलीफ भी सह नहीं पाती। माँ तो इंसान को खुदा से मिली अनुपम सौगात है। वह जननी है। वही सृष्टिकर्ता है, क्योंकि उसके बिना तो सृष्टि आगे बढ़ ही नहीं सकती।

सोमवार, 12 मार्च 2012

सोमवार, 5 मार्च 2012

मैं नारी हूँ



मैं साकार कल्पना हूँ
मैं जीवंत प्रतिमा हूँ
मैं अखंड अविनाशी शक्तिस्वरूपा हूँ

मैं जननी हूँ,श्रष्टि का आरम्भ है मुझसे
मैं अलंकार हूँ,साहित्य सुसज्जित है मुझसे
मैं अलौकिक उपमा हूँ
मैं भक्ति हूँ,आराधना हूँ
मैं शाश्वत,सत्य और संवेदना हूँ

मैं निराकार हूँ,जीवन का आकार है मुझसे
मैं प्राण हूँ,सृजन का आधार है मुझसे
मैं नीति की संज्ञा हूँ
मैं उन्मुक्त आकांक्षा हूँ
मैं मनोज्ञा मंदाकिनी मधुरिमा हूँ

मैं अनर्थ को अर्थ देती परिकल्पना हूँ
मैं असत्य अधर्म अन्धकार की आलोचना हूँ
मैं अनंत आकाश की अभिव्यक्ति हूँ
मैं सहनशील हूँ समर्थ हूँ,मैं शक्ति हूँ

मेरा कोई रूप नहीं दूसरा
मैं स्वयं का प्रतिबिम्ब हूँ
मेरा कोई अर्थ नही दूसरा
मैं शब्द मुक्त हूँ मैं पूर्ण हूँ
मैं नारी हूँ

शनिवार, 3 मार्च 2012

मेरी ब्रिज भूमि की होली




























जय श्री कृष्णा
फिर से दो दिन बचे है होली के फिर वही जाना है श्री कृष्ण के दरबार मे मा को फिर फोन पे दीवाली पे आने की दिलषा दे दी वही प्रेम रश मे डूबने जा रहा हू वाहा के तो वातावरण मे ही १ प्रेम रस है वाहा की भूमि पे पेर रखते ही १ अनूठी खुशी ओर मन शीतल होने का अहसास होने लगता है फिर वही जाना है इस बार भी

ये मेरी ब्रिज भूमि की दूसरी यात्रा थी ये बात गुरुवार १७/०३/२०१० होली के दो दिन पहले की है | मेने तो सोचा भी नहीं था ! की मुझे अचानक होली पे घर जाने के बदले ब्रिज की पवित्र भूमि पे जाना है शायद उपर वाले के खाते में सब कुछ पहले से ही तय था तो मैं कों न था ! जो उपर वाले का प्रोग्राम बदल देता !!!!! मुझे लग-भग ४ साल होगये कोई होली दिवाली मानने मे घर जा नही पाता हर होली दीवाली पे मे कही पे भी हो रामेश्वर, वृंदावन , साई नाथ, श्याम दरबार सालसर असी असे ही स्थानो पे जाता रहता हू पर जो भी हो हर समय वो कोई न कोई बहाना करके मुझे अपने पास बुला ही लेता है तभी शायद मैं भी आजकल कुछ जयादा ही भरोसा करने लगा हु मुझे भी घर जाना चाहिए ओर ये अपनी जगह सही है माँ तो वेसे भ नाराज़ चल रही है ६ महीनो से घर जो नही गया हू मेने २-४ लोगो को तो छुटी देदी और कुछ को ताल मटोल कर रहा था ! सब को समझा रहा था जो कुछ करना है दिली मे करो मस्ती या कुछ धमाल करना है यही पे करेंगे क्यूं की मुझे भी अपना दिल जो यही पे लगाना था पर कुछ देर अपने चेमर में बिल वगेर को देख रहा था की | फिर अचानक पिछले साल की बातो ने दिमाग पे घेरा ड़ाल दिया पता ही नहीं चला की कब सायं के ५.३० बज चुके है ?फिर मैं अपने दफ्तर से निकल के अपने कैंटीन में आया और अपने कुछ राजस्थानी भाइयो को बुलाया और पिछले साल की होली के बारे में बताया तो हम लोग ८-९ आदमी होली मानाने के लिए वृन्दावन मथुरा गोकुल , नन्द गोवं बृज भूमि जाने के लिए राज़ी होगये मेरी दूसरी यात्रा थी

कैमरे में कैद होली

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

होली आई रे

                                होली आई  रे  

फागुनी बयार चलने लगी है 
फागुन ऋतू आई है 
मोसम सुहाना होने लगा है 

डेसू के फूलों की लालिमा छाई है         



आगे पढ़ने के लिए  नीचे के लिंक पर जाइये /और अपने सन्देश जरुर दीजिये /आभार /

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

जब इस्लाम मूर्ति पूजा के विरुद्ध है तो मुसलमान काबा की तरफ़ मुहं करके नमाज़ क्यूँ पढ़ते हैं?

काबा मतलब किबला होता है जिसका मतलब है- वह दिशा जिधर मुखातिब होकर मुसलमान नमाज़ पढने के लिए खडे होते है, वह काबा की पूजा नही करते. मुसलमान किसी के आगे नही झुकते, न ही पूजा करते हैं सिवाय अल्लाह के.
सुरह बकरा में अल्लाह सुबहान व तआला फरमाते हैं -
“ऐ रसूल, किबला बदलने के वास्ते बेशक तुम्हारा बार बार आसमान की तरफ़ मुहं करना हम देख रहे हैं तो हम ज़रूर तुमको ऐसे किबले की तरफ़ फेर देंगे कि तुम निहाल हो जाओ अच्छा तो नमाज़ ही में तुम मस्जिदे मोहतरम काबे की तरफ़ मुहं कर लो और ऐ मुसलमानों तुम जहाँ कहीं भी हो उसी की तरफ़ अपना मुहं कर लिया करो और जिन लोगों को किताब तौरेत वगैरह दी गई है वह बखूबी जानते है कि ये तब्दील किबले बहुत बजा व दुरुस्त हैं और उसके परवरदिगार की तरफ़ से है और जो कुछ वो लोग करते हैं उससे खुदा बेखबर नहीं.” (अल-कुरान 2: 144)
इस्लाम एकता के साथ रहने का निर्देश देता है:
चुकि इस्लाम एक सच्चे ईश्वर यानि अल्लाह को मानता है और मुस्लमान जो कि एक ईश्वर यानि अल्लाह को मानते है इसलिए उनकी इबादत में भी एकता होना चाहिए और अगर ऐसा निर्देश कुरान में नही आता तो सम्भव था वो ऐसा नही करते और अगर किसी को नमाज़ पढने के लिए कहा जाता तो कोई उत्तर की तरफ़, कोई दक्षिण की तरफ़ अपना चेहरा करके नमाज़ अदा करना चाहता इसलिए उन्हें एक ही दिशा यानि काबा कि दिशा की तरफ़ मुहं करके नमाज़ अदा करने का हुक्म कुरान में आया. तो इस तरह से अगर कोई मुसलमान काबा के पूरब की तरफ़ रहता है तो वह पश्चिम यानि काबा की तरफ़ हो कर नमाज़ अदा करता है इसी तरह मुसलमान काबा के पश्चिम की तरफ़ रहता है तो वह पूरब यानि काबा की तरफ़ हो कर नमाज़ अदा करता है.

काबा दुनिया के नक्शे में बिल्कुल बीचो-बीच (मध्य- Center) स्थित है:
दुनिया में मुसलमान ही प्रथम थे जिन्होंने विश्व का नक्शा बनाया. उन्होंने दक्षिण (south facing) को upwards और उत्तर (north facing) को downwards करके नक्शा बनाया तो देखा कि काबा center में था. बाद में पश्चिमी भूगोलविद्दों ने दुनिया का नक्शा उत्तर (north facing) को upwards और दक्षिण (south facing) को downwards करके नक्शा बनाया. फ़िर भी अल्हम्दुलिल्लाह नए नक्शे में काबा दुनिया के center में था/है.

काबा का तवाफ़ (चक्कर लगाना) करना इस बात का सूचक है कि ईश्वर (अल्लाह) एक है:
जब मुसलमान मक्का में जाते है तो वो काबा (दुनिया के मध्य) के चारो और चक्कर लगते हैं (तवाफ़ करते हैं) यही क्रिया इस बात की सूचक है कि ईश्वर (अल्लाह) एक है.

काबा पर खड़े हो कर अजान दी जाती थी:
हज़रत मुहम्मद सल्ल. के ज़माने में लोग काबे पर खड़े हो कर लोगों को नमाज़ के लिए बुलाने वास्ते अजान देते थे. उनसे जो ये इल्जाम लगाते हैं कि मुस्लिम काबा कि पूजा करते है, से एक सवाल है कि कौन मूर्तिपूजक होगा जो अपनी आराध्य मूर्ति के ऊपर खडे हो उसकी पूजा करेगा. जवाब दीजिये

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

भविष्य का सपना


भविष्य का सपना 

मन पखेरू उड़ने लगा है 
नए नए सपने संजोने लगा है 
दिल में एक नया एहसास उमंगें ले रहा है 
नई पीढ़ी का भविष्य भी अब सुनहरा हो रहा है 
आगे पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाइये और अपने सन्देश जरुर दीजिये /आभार/

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

हाँ मैं नारी हूँ !

सदियों से इस जगत में
पुनीता , पूजिता औ' तिरस्कृता
बनी और सब शिरोधार्य किया
कभी उन्हें दी सीख
औ' कभी मौत भी टारी हूँ ,
हाँ मैं नारी हूँ.
सदियाँ गुजरी ,
बहुरूप मिले
विदुषी भी बनी
औ बनी नगरवधू
धैर्य कभी न हारी हूँ,
हाँ मैं नारी हूँ.
वनकन्या सी रही कभी,
कभी बंद कर दिया मुझे
सांस चले बस इतना सा
जीने को खुला था मुख मेरा
जीवित थी फिर भी
सौ उन पर मैं भारी हूँ,
हाँ मैं नारी हूँ.
जीने की ललक मुझ में भी थी
जीवन मेरा सब जैसा था,
जुबान मेरे मुख में भी थी
पर बेजुबान बना दिया मुझे
बस उस वक्त की मारी हूँ,
हाँ मैं नारी हूँ.
आज चली हूँ मर्जी से
आधी दुनिया में तूफान मचा
कैसे नकेल डालें इसको
जुगत कुछ ऐसी खोज रहे
कहीं बगावत बनी मौत
औ कहीं जीती मैं पारी हूँ,
हाँ मैं नारी हूँ.
अब छोडो मुझे
जीने भी दो
तुम सा जीवन मेरा भी है
अपने अपने घर में झांको
मैं ही दुनियाँ सारी हूँ,
हाँ मैं नारी हूँ.

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

एक छलावा-सा

एक छलावा-सा
4 जुलाई 1942 को जन्मे कन्हैयालाल भाटी की अनुवादक के रूप में विशेष ख्याति रही है, मगर उनकी कहानियां भी कथ्य व शिल्प की दृष्टि से अनूठी हैं. साहित्य अकादमी व गुजरात सरकार से अनुवाद के लिए पुरस्कृत भाटी की एक राजस्थानी कहानी हमलोग के पाठकों के लिए...

जोधपुर स्टेशन पर एक-दूसरे को आमने-सामने देख कर अचरज में दोनों बोल उठे तुम? जेठ की तपती दोपहर का वक्त था। सपना को मुंबई जाना था, जबकि त्रिलोक हावड़ा से आई गाड़ी से उतरा था। स्टेशन पर भीड़ के बीच दोनों सुध -बुध खोकर खड़े थे। आसपास शोर-शराबे से अनजान स्टेशन के बीचोबीच इस तरह खड़े रहने से आने-जाने वाले मुसाफिरों क ो दिक्कत हो रही थी, पर उनको सुनने का वक्त कहां था।

सपना की गाड़ी के रवानगी का वक्त हो चुका था। दोनों चुपचाप एक-दूसरे को देखते रहे। आखिर त्रिलोक सपना को हाथ पकड़कर उसे स्टेशन के बाहर एक रेस्टोरेंट में ले गया। चाय मंगवाई और दोनों चाय की चुस्कियां लेने लगे। त्रिलोक चाय की चुस्की लेते बोला, "तुम ठीक तो हो ना? मैं तो तुम्हें देखकर बावरा ही हो गया। कितना वक्त बीत गया उन बातों को, पर स्टेशन पर मुझे देखकर तुम गले आ पडी...।" "नहीं, नहीं, तुम गले पड़े हो मेरे।" सपना ने मुस्कराते हुए त्रिलोक को बीच में टोका, "लग तो ऎसे रहा है जैसे कल ही हम मिले हो, वैसे तो हमें मिले बहुत साल हो गए।"

"हां, लगभग पन्द्रह वर्ष हो गए होंगे।" सपना बोली।
"तुम्हें कितनी अच्छी तरह याद है-पन्द्रह वर्ष। एक युग बीत गया, है ना सपना?" त्रिलोक बोला, "तुमने विवाह कर लिया क्या? बाल बच्चे भी होंगे? आज यहां कैसे? कहां जा रही हो?" "थोड़ा धीरज रखो, जल्दबाजी मत करो, बारी-बारी से पूछो। तुम्हारी जल्दबाजी वाली आदत अभी तक पहले जैसी ही है। तुम्हें रतौंधी हुई है क्या? तुम्हारी आंखों के सामने बैठी हूं। तुम्हें मेरी गोद में दीख रहे है बच्चे। जो पूछ रहे हो, तुम्हारे बच्चे-बच्चे हैं क्या? बेतुकी बातें मत किया करो। तुम्हें पता होना चाहिए कि मैंने अभी तक विवाह नहीं किया है।

तुम तो जानते ही हो रोजमर्रा के काम में आदमी के सामने कितनी कठिनाईयां आती है। जीव एक और जंजाल बहुत। आदमी जीवन में आगे बढ़ना चाहता है, पर उसे वक्त कहां मिलता है? और वक्त भी कितना चंचल है, इधर-उधर देखते है तब तक कितना आगे निकल जाता है। जो वक्त की कीमत समझता है, वही दिनोंदिन आगे बढ़ सकता है। "खैर छोड़ो इस बात को। अब तू बता कि काम क्या करती है? मतलब ऎसा कौनसा काम है जिससे तुम्हें वक्त ही नहीं मिलता? त्रिलोक बड़ी उत्सुकता से उसे देख रहा था, पर सपना खिड़की से बाहर वृक्ष की डाली पर बैठे तोता- मैना के जोड़े को एकटक निहार रही थी।

"मैं यहां एक कॉलेज में व्याख्याता हूं। अब तुम खुद अंदाज लगा लो कि बड़े शहरों की दौड़-भाग की जिन्दगी में वक्त कैसे बीत जाता है।"
"क्या बात करती हो।" त्रिलोक उतावला सा बोला, "बधायजै।" सपना अब त्रिलोक को बड़े गौर से देख रही थी। उसका चेहरा लाल हो गया, बधाई की बात सुनकर।

"तुमने तो खूब तरक्की कर..." त्रिलोक बोला, "मैं तुम्हारी सारी बात समझ गया। पर अब बता कि तुम छुटि्टयां मनाने कहां जा रही हो?"
"मैं मुंबई जा रही हूं। मेरा वहां जाना बहुत जरूरी हो गया है क्योंकि एक ही कॉलेज में पढ़ाते-पढ़ाते बोर हो गई हूं। त्रिलोक, तुम क्या कर रहे हो आजकल? मैंने तो बस सेहत सुधारने का ही काम किया है।" त्रिलोक मन ही मन सोच रहा था कि यदि इसे इतना आसान काम नहीं मिला होता तो ठीक रहता। फिर तो मैं उसे पूछ लेता कि तुम अभी भी मुझे चाहती हो क्या? पर अब, ना भई ना, अब यह बात पूछनी ठीक नहीं। यह मेरी बात को अभी हंसी में टाल देगी पर बाद मैं जरूर मखौल उड़ाएगी। सपना उसकी बात को अनसुना करती बोली, "तुम क्या काम कर रहे हो अभी?"

"मैँ", त्रिलोक धीरे से बोला, "अभी मेरे भाग भी जगे हुए हैं। मैं पहले जो काम करता था उसे छोड़ दिया है। अब मैं एक मिल में मैंनेजर हूं। मुझे यह काम करते लगभग चार साल हो गए।" सपना उसकी बात को ध्यान से सुन रही थी पर इसके साथ उसकी नजरें त्रिलोक की अंगुली में विवाह की अंगूठी ढंूढ रही थी। मगर उसकी अंगुली में अंगूठी नहीं थी। अब सपना का मन गुजरे वक्त की खिड़कियों में झांक रहा था। आज से पन्द्रह वर्ष पहले दोनों के बीच "ब्रेक-अप" हो गया था। एक छोटी-सी बात पर दोनों के मन में खटास आ गया और अचानक दोनों की प्रीत का हार टूट गया। उसके बाद दोनों अब तक मिल नहीं सके थे। वह उस वक्त मोटर मिस्त्री का काम सीख रहा था।

उसकी ओछी कमाई, कपड़ो में तेल की बदबू पर सपना खूब कटाक्ष करती कि जीवन में कुछ अच्छा काम कर के दिखा। पहले सफल आदमी तो बन, फिर मैं दूसरी बात पर विचार करूंगी। वो कितनी नादानी का वक्त था। बात खिंचती गई और दोनों उलझ पड़े। वैसे उन दोनों का झगड़ा करने का कोई मन नहीं था। पर इस झगड़े से आई खटास को वे मिठास में नहीं बदल सके और आपस में मिलने-जुलने के अभाव में कुछ नहीं कर पाए। इन हालातों में भी सपना सोचती रहती कि त्रिलोक कुछ बन कर दिखाए।

वह बोली, "वक्त ने हमारा साथ दिया और हम दोनों ने सफलता हासिल की। यह हमारे लिए खुशी की बात है।" यह कहने के साथ- साथ सपना मन में सोचती रही कि त्रिलोक की उम्र तो पक गई मगर अभी तक कितना खूबसूरत व आकर्षक लग रहा है। यह इतनी तरक्की नहीं करता तो ठीक रहता। तभी तो मैं उसे पूछ सकती कि हमारे बीच हुए झगड़े को तुम अभी तक भूले नहीं क्या? क्या तुम अब भी मुझे चाहते हो? पर अब किस मुंह से पूछूं। तभी त्रिलोक बोला, "अरे, मैं तो बिना मतलब तुम्हारा वक्त खराब कर रहा हूं। तुम्हारी सैर-सपाटे की छूियां शुरू हो गई है।" वह इसी तरह की बातें करता रहा, पर सपना के चेहरे के सामने देखने की हिम्मत नहीं कर सका। पता नहीं क्यों?" "नहीं रे, मैं तो तीन वाली गाड़ी से रवाना हो जाऊंगी और वैसे देखा जाए तो मैं ही तुम्हारा कीमती वक्त बरबाद कर रही हूं। तो ठीक है, तुम्हारा कोई जरूरी काम होगा या फिर किसी से मिलना-जुलना होगा।"

"तुम इस बात की चिंता मत करो। मुझे यहां से लेने गाड़ी आ जाएगी। मैं लम्बा सफर करता हूं तब गाड़ी घर पर ही छोड़कर आता हूं। आजकल टे्रफिक की हालत तो तुम्हे पता ही है। घर पहुंचे तब तक आदमी थक कर अधमरा हो जाता है। "तुम्हारा कहना सोलह आना सही है। मैं भी यही कहना चाहती हूं।" फिर सपना त्रिलोक की आंखों में झांक कर बोली, "तुमने विवाह कर लिया या फिर अंगूठी और घरवाली को घर छोड़कर मुसाफरी करके आए हो?" यह बात कहते ही दोनों जोर-जोर से हंसने लगे, तो रेस्टोरेंट के लोगों को बड़ा अटपटा लगा।

त्रिलोक बोला, "नहीं, मैंने अभी तक विवाह नहीं किया है। इसमें भी राज है, कोई अड़चन है। बात ऎसी है कि मैं जिसे चाहता हूं , वैसी तो मुझे संसार में ढूंढने पर भी मिली नहीं और जो मुझे चाहती है, वह मेरी तरफ झांकना नहीं चाहती। फिर इसके लिए समय भी तो चाहिए।" इतना कहने के बाद वह मन में सोच रहा था कि यदि मैं इसे कह दूं कि तुम्हें अभी तक भूल नहीं सका हूं और आज पन्द्रह वर्ष बीत गए हैं, पर कोई महिला मुझे नहीं डिगा सकी है। इसे ये सारी बातें कैसे कहूं? अब वक्त आगे निकल गया है। हां, अब बहुत देर हो गई है। यह मेरी बात की हंसी उडाएगी।

इसकी वह हंसी आज तक मेरे कानों में गूंज रही है। उधर सपना के मन में भी यही भाव उठ रहे थे। उसके मन में लोर उठ रहे थे कि मुझे त्रिलोक को कह देना चाहिए कि मैं आज तुम्हारे इशारे पर चलने को तैयार हूं। मेरे जीवन में जब कोई दूसरा आदमी आया, मैंने हमेशा उसकी तुलना त्रिलोक से करती रहती। मैंने यह पक्का इरादा कर रखा था कि जीवन साथी हो तो त्रिलोक सरीखा, पर मुझे इस जैसा कहीं नजर नहीं आया। पर अब उसे यह बात कहने का कुछ मतलब नहीं है। आज यह अच्छी इज्जतदार नौकरी कर रहा है। सब बातों से सुखी है। अब तो ये मेरी बातों का मखौल ही उडाएगा। भले ही मुंह से नहीं बोले, मगर मन में तो सोचेगा कि अब तुमसे क्या लेना-देना। छोड़ो इस बात को और भूल जाओ मुझे। अंत में दोनोे अलग-अलग शब्दों में एक ही बात सोचते रहे।

"अपना जीवन सफल हुआ। मान-सम्मान, धन-दौलत वगैरह जो हम चाहते थे वो मिल गया।" त्रिलोक सिगरेट के कश खींचता गया और ये बाते सोचता रहा। सपना धीरे-धीरे लस्सी के घूंट गले में उतारती रही। त्रिलोक बैठा बैठा सपना को देखता रहा कि उसे उसकी आंखों के पास हल्की सी सलवट दिखी, पर वह सलवट उसकी खूबसूरती में इजाफा ही कर रहा था। सपना की गाड़ी का वक्त होने वाला था। त्रिलोक सपना को साथ लेकर स्टेशन पहुंचा। दोनों एक-दूसरे के सामने नहीं देख रहे थे। थोड़ी देर वे दोनों बिना बोले खड़े रहे। केवल आने-जाने वाले यात्रियों को देखते रहे। कुछ समय बाद गाड़ी आ गई। सपना गाड़ी में बैठ गई, त्रिलोक ने उसका सामान सीट के नीचे रख दिया।

अभी तक दोनों नजरें नहीं मिला पा रहे थे। उनका बोलने का मन हुआ कि अब तो तुम मुंह से बोलो, सच कहो। पर त्रिलोक गाड़ी से उतर गया। सपना ने डब्बे में बैठे विदाई की धुन में हाथ हिलाया। जैसे ही गाड़ी स्टेशन से आगे निकली वह तुरंत दूसरे डिब्बे में जाकर बैठ गई । अब वह अखबार की ओट में मोरनी की तरह आंसू टपकाने लगी और मन में सोचा कि मैं कितनी मूर्ख हूं। जब मैं अपने भले की नहीं सोच सकी तो दूसरों के बारे में कैसे सोच सकती हूं? मैंने झूठ की ओट क्यों ली, मैं उसे सच बता देती तो क्या बिगड़ता बल्कि कुछ समाधान ही निकलता।

मैंने उसे साफ-साफ क्यों नहीं कहा कि मैं एक सेल्स गर्ल हूं। मेरी वही पुरानी नौकरी है, एक छोटी सी दुकान में, पर ये सारी बातें कैसे कहती? मेरे मन में डर बैठा हुआ है कि वह मेरी बातों को हंसी-मजाक में टाल देगा। अब तो वह बड़ा आदमी बन गया है। और नहीं तो कम से कम उसका पता तो लेना चाहिए था। ये मेरी कितनी नादानी है। इधर त्रिलोक स्टेशन से बाहर निकलकर बस-अaे की तरफ गया। बस की टिकट खिड़की के आगे कतार में खड़ा हो गया । मकानोें का काम चल रहा था। वहां पहुंच गया। अपना परिचय दिया, "मैं क्रेन का ड्राइवर हूं।"

"हूं.. कल कहा रह गए थे तुम?" खैर। सुपरवाइजर, इसे काम बता दो और सोने-उठने का कमरा दिखा दो। कल से काम पर लगना है।" त्रिलोक को सपना की याद सताने लगी। सपना की गाड़ी दौड़ती जा रही होगी।"

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

महँगाई से मोहब्बत

आज हर तरफ है छाई महँगाई,
हर एक के उपर आज आफत है आई,
महँगाई में ही सर्वोच्चता का दीदार हो गया,
ये सोच के महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

हर किसी के होठों पे बस इसका नाम है,
महँगाई खाश है बाकि सब आम है,
महँगाई के बिना चल पाना दुस्वार हो गया,
ये देख के महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

सरकार के नीति का ही कुछ गोलमाल है,
लफड़ा करुँ तो ये अपने ईज्जत का सवाल है,
हाथ खड़े करके ही अपना जीवन साकार हो गया,
इसलिए तो महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

परेशान तो हैं क्योंकि सबके बढ़ते दाम हैं,
पर क्या करें हम तो एक इंसान आम हैं,
सी नहीं सकता इसलिए जख्मों पे निसार हो गया,
ये सोच के महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

सबके लिए मेरे पास एक राय है,
अगर आपके खर्च है ज्यादा और कम आय है,
आप भी कहो महँगाई का सबको खुमार हो गया,
आज से महँगाई से मुझे प्यार हो गया ।

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

बेटी है गर्भ में, गिरायें क्या?

अँधेरे का जश्न मनाएँ क्या
उजालों में मिल जाएँ क्या

अनगिनत पेड़ कट रहे हैं
कहीं एक पौधा लगाएं क्या

आज बेचना है ज़मीर हमें
तो खादी खरीद लाएं क्या

बामुश्किल है पीने को पानी
धोएँ तो बताओ नहाएं क्या

बहु के गर्भ में बेटी है आई
पेट पर छुरी चलवायें क्या

बेबस हैं बिकती मजबूरियाँ
भूखे बदन ज़हर खाएं क्या

अंधा है क़ानून परख लिया
कोई तिजोरी लूट लाएं क्या

रोने को रो लिए बहुत हम
पल दो पल मुस्कराएं क्या

यारों ने दिल की लगी दी है
यारों से दिल लगाएं क्या

सायों का क़द नापेगा कौन
हम भी घट-बढ़ जाएँ क्या

चुप की बात समझ आलम
और हम हाल सुनाएँ क्या

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

लो क सं घ र्ष !: हिंदी के महान साहित्यकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा के कार्यालय में भ्रष्टाचार नहीं होता ?

ऐसे महान साहित्यकार को लोकसंघर्ष का शत् !-शत् ! नमन ?

हिंदी के महान साहित्यकार श्री सुभाष चन्द्र कुशवाहा बाराबंकी जनपद में सहायक संभागीय परिवहन अधिकारी (ए.आर.टी.ओ ) के पद पर कार्यरत हैं। ए.आर.टी.ओ कार्यालय में कोई भी दलाल नहीं है। गाडी स्वामी सीधे जाते हैं और उनके कार्य नियमानुसार हो जाते हैं ? विभाग में किसी गाडी स्वामी का उत्पीडन नहीं होता है ? ड्राइविंग लाइसेंस बगैर किसी रिश्वत दिए बन जाते हैं। अंतर्गत धारा 207 एम.बी एक्ट के तहत कागज होने पर लागू नहीं किया जाता है ?
श्री कुशवाहा साहब के बाराबंकी में ए.आर.टी.ओ पद पर तैनाती के बाद उनके कार्यालय के कर्मचारियों ने रिश्वत खानी बंद कर दी है ? श्री कुशवाहा साहब भी रिश्वत नहीं खाते हैं ? लखनऊ में साधारण मकान में आप निवास करते हैं लेकिन जनपद स्तर के अधिकारी होने के नाते वह कभी मुख्यालय नहीं छोड़ते हैं ? आम आदमी की तरह श्री कुशवाहा साहब अपनी तनख्वाह में जीने के आदी हैं ? श्री कुशवाहा साहब सत्तारूढ़ दल की रैलियों के लिये कभी वाहन पकड़ कर रैली में जाने के लिये बाध्य नहीं किया है ? इस तरह से हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार अन्य साहित्यकारों के लिये प्रेरणा स्रोत्र हैं और हर हिंदी के साहित्यकार को उनसे प्रेरणा लें, यदि उपरोक्त नियम-उपनियम के विरुद्ध कार्य कर रहे हों या कभी-कभी रिश्वत खा रहे हों तो बंद कर देना चाहिए ?
अगर आपको मेरी बात पर विश्वास हो तो बाराबंकी जनपद कर ऐसे ऐतिहासिक महापुरुष का दर्शन करें तथा कार्यालय में उक्त बिन्दुओं पर ध्यान देकर अन्य सरकारी कार्यालयों में उसको लागू करवाने की नसीहत ले सके

सुमन
लो क सं घ र्ष !

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

बसंत ऋतू की शुभकामनाएं...


आइये कुछ झलकियां तो देख लीजिए मित्र मेरे ब्लाग में बसंत पंचमी की...
"आप सभी को हार्दिक दिल से शुभकामनाएं बसंत पंचमी की"

साभार: गूगल वेब को चित्रों के लिए.

रविवार, 22 जनवरी 2012

मेरा दर्द....,


आप सभी मित्रों के लिए पेश है नए साल(2012) का मेरा पहला पोस्ट
जिसमें तो दो अलग-अलग लाइने हैं पर दोनों कविता का अर्थ और दर्द एक ही है,


(१)
मुझे उदास देख कर उसने कहा ;
मेरे होते हुए तुम्हें कोई 
दुःख नहीं दे सकता,


"फिर ऐसा ही हुआ"
ज़िन्दगी में जितने भी दुःख मिले, 
सब उसी ने दिए.....
(२)
वो अक्सर हमसे एक वादा करते हैं कि;
"आपको तो हम अपना बना कर 
ही छोड़ेंगे"
और फिर एक दिन उन्होंने अपना
वादा पूरा कर दिया,


"हमें अपना बनाकर छोड़ दिया..."


नीलकमल वैष्णव"अनिश"

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

अनोखी बेटी

अनोखी बेटी 
Disha Verma
दिशा  वर्मा
आज मैं आप सबको एक ऐसी बेटी के त्याग और अपने माता पिता के लिए कुछ भी करने का जज्बा रखने वाली बहुत बहादुर और बेमिसाल बिटिया की सच्ची कहानी बताने आई हूँ /आप पदिये और अपनी राय जरुर दीजिये की आज भी जब हमारे देश में कन्याओं को गर्भ में ही मारने की घटनाओं  में दिन पर दिन बढोतरी हो रही है और लड़कियों को बोझ समझा जाता है /वहां ऐसी बेटी ने एक मिसाल कायम की है /


ये प्यारी सी बेटी दिशा वर्मा  हमारे बहुत ही करीबी और अजीज पारिवारिक दोस्त श्री मनोज वर्मा और श्रीमती माधुरी वर्मा की है /इनकी दो बेटियाँ हैं /श्री मनोजजी की तबियत बहुत ख़राब थी ,उनका लीवर ७५% ख़राब हो गया था /उनको लीवर ट्रांसप्लांट की जरुरत थी .उनकी हालत इतनी ख़राब थी की वो कोमा में जा रहे थे /मेरी दोस्त माधुरी को कुछ समझ नहीं आ रहा था की वो किससे बोले की कोई उसके पति को अपना लीवर दे दे /क्योंकि उसका ब्लूड ग्रुप  तो लीवर देने के लिए मैच ही नहीं कर रहा था / ऐसी हालत में मैं उनकी बहन श्रीमती नीलू श्रीवास्तव जी को भी नमन करना चाहूंगी जो अपने भाई की खातिर आगे आईं और उसका जीवन बचाने के लिए अपना जीवन जोखिम में डालकर लीवर देने के लिए तैयार हो गईं /फिर उनके सारे मेडिकल टेस्ट हुए परन्तु दुर्भाग्यबस वह मैच नहीं हो पाए जिस कारण वो अपना लीवर नहीं दे पायीं /फिर सवाल उठ पडा की अब क्या होगा सारा परिवार चिंता में डूब गया की  अब श्री मनोज जी का क्या होगा/ ऐसे समय में जब सारा परिवार दुःख के अन्धकार में  डूबा था ये बेटी दिशा जिसको अभी १८ वेर्ष की होने में भी कुछ समय था एक उजली किरण के रूप में आगे आई उसने कहा की मैं दूँगी अपने पापा को लीवर /उसने अकेले

 ही जा कर डॉ. से बात चीत की /डॉ. उसके जज्बात और हिम्मत देखकर हैरान रह गए फिर उन्होंने उसे समझाया भी की बहुत बड़ा operation होगा जो १६ घंटे चलेगा और operation के बाद जो काफी risky भी है और तुम्हारे पेट को काटने से उस पर एक हमेशा के लिए बड़ा सा निशान भी बन जाएगा /उसे तरह तरह से समझाया की उस की जान भी जोखिम में पड़ सकती है परन्तु वो बहादुर बेटी बिलकुल नहीं घबराई ना डरी और अपने पापा के लिए उसने ना अपनी जान की और ना इतने बड़े operation की परवाह की और  वो अपने 
निर्णय पर अडिग रही /फिर उसने इंटर-नेट  और अपने चाचा जो एक डॉ.हैं से लीवर ट्रांसप्लांट के बारे में सब कुछ समझ लिया और अपने को इस operation के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से पूरी तरह तैय्यार कर लिया और बड़ी हिम्मत से  इतने बड़े operation का सामना किया /भगवान् भी उस बेटी की त्याग की भावना और हिम्मत के सामने हार गए  और operation  सफल हुआ और उसके पिता को दूसरा जीवन मिला /भगवान् ऐसी बेटी हर घर में दे जिसने अपने पिता के लिए इतना बड़ा त्याग किया जो शायद  दस बेटे मिलकर भी नहीं कर सकते थे /और वो हमारे देश की सबसे कम उम्र की लीवर डोनर भी बन गई /   यह हम सबके जीवन की अविस्मरनीय घटना है जिसको याद करके आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं /आज वो बेटी इंजिनियर बन गई है और Infosys जैसी multi-national कंपनी में काम कर रही है /उसके पापा बिलकुल ठीक हैं और एक सामान्य जीवन जी रहे हैं /


 ऐसी प्यारी बेटी को में नमन करती हूँ और आप सभी का भी उसकी आने वाली जिंदगी के लिए आशीर्वाद चाहती हूँ /और यह कहना चाहती हूँ की बेटे की चाह में बेटी को गर्भ में मत मारो क्योंकि दिशा जैसी  बेटियां अपने माता पिता के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं करतीं /उनमे से कौन   सी बेटी दिशा बन जाए क्या पता /उसके बाद  उसे अपने पापा की हालत से प्रेरणा मिली और दूसरों की परिस्थिति समझने का जज्बा मिला जिसके कारण उसने eye donation  कैंप में जा कर अपनी आंखें दान करने का फार्म भरा /दिशा को तथा उसके माता पिता को भगवान् हमेशा खुश ,स्वस्थ एवं सुखी रखे बस यही कामना है / 

ऐसी करोड़ों में एक अनोखी बेटी को ,मेरा शत शत नमन आशीर्वाद /










दिशा अपने  मम्मी  पापा (श्री मनोज  वर्मा)और बहन के साथ   
operation के एक साल बाद 
happy family